Friday, November 6, 2009

धूप ही जिन्हें नसीब नहीं शिक्षा कहां से उपलब्ध हो

जोधपुर। शिक्षा के समान अवसर की वास्तविकता जाननी हो तो दिल्ली में चल रही इकाइयों में झांक कर देखना होगा। इन इकाइयों में 8 से 14 साल तक के बच्चे को काम दिया जाता है। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को यहाँ केवल दो-तीन सौ रूपयों में बेच जाते हैं। ये बच्चे दिन रात छोटी, बंद अंधेरी कोठरियों में रहकर कार्य करते हैं। वे दिन में काम करते हैं और रात को उन्हीं कोठरियों में सो जाते हैं। उन्हें कोठरियों से बाहर जाने की अनुमति नहीं होती। इन कोठरियों में बेहद गर्मी और गंदगी तो होती ही है, प्रकाश तथा आॅक्सीजन की भी कमी होती है। धूप न मिलने से इन बच्चोें की हड्डियों के समुचित विकास हेतु विटामिन डी तो बन ही नहीं पाता। जिन बच्चों के शरीर में स्थित हड्डियों के लिए धूप तक नहीं मिलती, उन शरीरों के मस्तिष्क के लिए शिक्षा कहाँ से उपलब्ध होगी। यदि ये बच्चे इन कोठरियों से निकलकर भागने का प्रयास करते हुए पकड़े जाते हैं तो उन्हें बेरहमी से पीटा जाता है। इतनी बेरहमी से कि अगली बार वे यहाँ से भागने के बारे में सोचें तक नहीं। इन बच्चों को यहाँ रोटी पानी मिलता है और वेतन के नाम पर 1 0 रूपये। सुनकर आत्मा सिहर जाती है। सुसभ्य और सुसम्पन्न कही जाने वाली स्त्रियाँ जब जरी के काम वाली साड़ियों को पहन कर शादी विवाह की रंग-बिरंगी रोशनियों में दम-दम दमकती होती है, फिल्मी गीतों की धुन पर ठुमके लगा रही होती हैं तब सुसभ्य और सुसम्पन्न समाज के किसी आदमी को उन बच्चों के बारे में कल्पना तक नहीं होती कि कितने मासूम बच्चों ने कितनी गंदी, तंग, अंधेरी कोठरी में बैठकर अपने छोटे-छोटे हाथों से इन जरी को तैयार किया है। जरी इकाइयाँ तो एक उदाहरण हैं। पॉटरी उद्योग और हैण्डीक्राफ्ट से लेकर जीवन के हर क्षैत्र में बालक शिक्षा से वंचित रहकर कार्य कर रहे हैं।
यहाँ एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि ये दो करोड़ बाल श्रमिक जो कभी स्कूलों का मुहँ नहीं देखते राष्टÑीय अर्थव्यवस्था पर भार नहीं हैं अपितु राष्टीय आय में उनका भारी योगदान है। ये केवल अपनी रोटी कमाते हैं अपितु अपने धनी मालिकों की जेबों में इतना रूपया भर देते हैं कि उस रूपये के बल पर धनी मालिक और नये कारखाने, उद्योग और व्यापारिक संस्थान राष्ट को आगे बढाने का कार्य करता है।
हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जब ये अशिक्षित, असंरक्षित और असुरक्षित मासूम बच्चे समाज की समपन्नता को इतना बढ़ा सकते हैं तो पढ लिख लेने पर और कार्य का समुचित प्रशिक्षण मिलने पर इनका समाज को जो योगदान होगा, वह कई गुना अधिक होगा।

2 comments:

  1. bahut hee mahatvapoorn mudda uthaayaa hai aap ne.sarkaar shixhaa ka mool adhikaar dekar shixhaa dene se inkaar kar rahee hai.shikxhaa ke naam par sarkaaree skoolon men mid day meal aur kyaa kyaa diyaa jaa rahaa hai kintu unkeee badhaalee par aankh fer liyaa jaa rahaa hai .isee mudde ko hamne "muft aur zabardastee shixhaa"vyangy men uthaayaa hai zaroor padhen>

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  2. बहुत ही सही मुद्दा उठाया है आपने...हमारे यहाँ भी ईंट बनाने वाली इकाइयों में इसी प्रकार की समस्या है पूरे का पूरा परिवार बधुआ मजदूरी करता है बच्चे भी इन्ही में पिस कर रह जाते है...परवाह किसे है??

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