Wednesday, September 16, 2009

नये स्वर्ग का विश्वामित्र पुराने स्वर्ग में रहने को चला गया!

जोधपुर। विश्वामित्र ने त्रिशंकु को वचन दिया था कि वे उसे सदेह स्वर्ग भेजेंगे। देवताओं ने त्रिशंकु को स्वर्ग में प्रवेश देने से मना कर दिया। त्रिशंकु आकाश में लटक गया। विश्वामित्र ने कहा दूसरा स्वर्ग बनाऊंगा। जब नया स्वर्ग बनने लगा तो देवताओं को अपने स्वर्ग की चिंता हुई। वे भागे-भागे भगवान के पास गये। भगवान ने विश्वामित्र को आदेश दिया, मिटा दो अपने स्वर्ग को। विश्वामित्र को भगवान का आदेश मानना पड़ा। नया स्वर्ग मिटा दिया गया किंतु उसके कुछ चिह्न धरती पर शेष रहने दिये ताकि संसार को विश्वामित्र की इस महान गाथा की जानकारी रहे। विश्वामित्र ने नये स्वर्ग के लिये गाय के स्थान पर भैंस का निर्माण किया था जो गाय की अपेक्षा कई गुना अधिक दूध देती थी और जिसमें घी की मात्रा भी अधिक थी। विश्वामित्र ने नये स्वर्ग के देवताओं के खाने के लिये जौ में से गेहूँ का निर्माण किया जो, जौ से अधिक स्वादिष्ट और अधिक पौष्टिक था। विश्वामित्र ने नये स्वर्ग में खाने के लिये फल के स्थान पर नारियल का निर्माण किया था जिसमें अन्य फलों के अपेक्षा प्रचुर मात्रा में आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी तत्व उपस्थित थे।
भारत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 15 अगस्त 1947 को आजादी तो मिल गई, किंतु खाने के लिये अनाज नहीं था। लोग भूखों मर रहे थे। नेहरू के समय अमरीका से सड़ा हुआ गेहूँ पी एल 80 योजना के तहत भारत में आता रहा। शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो भारत के लोगों से सप्ताह में एक दिन उपवास रखने एवं जो लोग अण्डे खा सकते हों, उन्हें अण्डे खाने के लिये कह दिया। अब बारी आई इंदिरा गांधी की। वे गेहूं के लिये पूरी दुनिया में घूमीं। वे जानती थीं कि भारत को जीवित रहना है तो गेहूँ का प्रबंंध करना पड़ेगा। वैसे भी उनकी दोस्ती रूस से रही, अमरीका से नहीं। रूस ने भारत से दोस्ती का दिखावा तो किया किंतु खून बहुत चूसा। एक रुपये की चीज दस रुपये में भारत को बेची और भारत की एक रुपये की चीज दस पैसे में खरीदी। इधर रूस भारत को खसोटता रहा। अचानक नॉरमन अरनेस्ट बोरलोग विश्वामित्र बनकर पूरी दुनिया के सामने आये। जिस प्रकार विश्वामित्र ने जौ में से गेहूँ पैदा किया था उसी प्रकार बोरलोग ने गेहूँ में से कनक पैदा की। पारम्परिक गेहूँ की फसल में दो तिहाई भूसा और एक तिहाई अनाज पैदा होता था। बॉरलोग ने गेहूं की ऐसी किस्में तैयार कीं जो उतनी ही खाद पानी पीकर आधा भूसा और आधा अनाज पैदा करती थीं। इंदिरा गांधी ने नॉरमन बॉरलोग की जादुई शक्ति को पहचान लिया। फिर क्या था, गेहूँ की बौनी किस्में भारत के खेतों में लहराने लगीं जिसे हम हरित क्रांति के रूप में जानते हैं। भारत ही नहीं तीसरी दुनिया कहे जाने वाले समस्त देशों को नॉरमन बोरलोग ने बौनी किस्मों के बीज दिये। पूरी दुनिया भूखमरी के कुचक्र से बाहर आ गई। 13 सितम्बर 2009 को वही नॉरमन बोरलोग 95 वर्ष की आयु में इस दुनिया से चले गये। मुझे लगा कि विश्वामित्र अपने नये बसाये स्वर्ग को छोड़कर किसी पुराने स्वर्ग को लौट गये हैं।

Tuesday, September 8, 2009

लाल दैत्य इतिहास के तिराहे पर आकर खड़ा हो गया!

जोधपुर। लाल दैत्य इतिहास के तिराहे पर आकर खड़ा हो गया। यह तिराहा तिब्बत, लद्दाख और स्पीती को जाने वाली सड़कों को जोड़ता है। अंग्रेजों ने इस तिराहे का निर्माण किया था और तिब्बत, लद्दाख एवं चीन की सीमाएं निर्धारित की थीं। अंग्रेज चले गये, इतिहास रह गया। तिब्बत को लाल दैत्य निगल गया और लद्दाख तथा स्पीती पर लाल दैत्य का खूनी पंजा गढ़ गया। लद्दाख और स्पीती ही क्यों वह तो अरूणाचल प्रदेश, सिक्कम, लद्दाख, नेपाल और भूटान को अपने खूनी पंजे की पांच अंगुलियां बता चुका। इसीलिये 31 जुलाई को लाल दैत्य ने लद्दाख के जुलुंग ला दर्रे से अपना खूनी पंजा फैलाया और माउंट ग्या के पत्थरों पर लाल निशान लगा दिये।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लाल दैत्य ने ऐसा क्यों किया? वस्तुत: यह भारत को उकसाने वाली कार्यवाही है जिसे वह विगत कई वर्षों से लगातार कर रहा है। वह चाहता है कि भारत अपना संयम खोकर कोई गलती करे और लाल दैत्य को अपने रक्त दंत फैलाकर चढ़ दौड़ने का बहाना मिल जाये। एक तरफ तो भारत लाल दैत्य के साथ व्यस्त हो जाये और दूसरी तरफ पश्चिम में बैठा काला दैत्य कश्मीर की घाटियों में घुस कर बैठ जाये। सर्दियां आरंभ होने से पहले ये दोनों दैत्य अपना काम निबटा लेना चाहते हैं। लाल दैत्य ने यह कार्यवाही 31 जुलाई अथवा उससे पूर्व की, जबकि काला दैत्य जुलाई और अगस्त में 12 बार भारत में घुसने का प्रयास कर चुका। वह सीमा पर गोली बारी करने से भी नहीं चूक रहा।
लाल दैत्य अपने सिर बदनामी मोल नहीं लेगा। वह तो काले दैत्य को आगे बढ़ने के लिये रास्ता साफ करेगा। काला दैत्य भारत में घुसकर लाल दैत्य के एजेंट के रूप में लाल और काली बिसात बिछायेगा। यही कारण है कि काला दैत्य पिछले कुछ सालों में न केवल कारगिल कर चुका, न केवल दिल्ली में संसद और लाल किला तथा मुम्बई में होटल ताज को काले धुंए और लाल खून से रंग चुका अपितु एक लाख 70 हजार करोड़ रुपये से अधिक की नकली करंसी भारत में खपा चुका। नेपाल के अपदस्थ राजा के पुत्र ने इस नकली करंसी को भारत में भेजने का काम ठेके पर लिया। उसे भूरा दैत्य कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पूर्व में बैठा पीला दैत्य पहले से ही अपने एक करोड़ से अधिक नागरिकों की घुसपैठ भारत में करवा चुका। समझने वाली बात यह है कि भारत तीन ओर से बुरी तरह से घिर चुका।
रूस भी था तो लाल किंतु लाल रंग कब का छोड़ चुका। अब उसका कौनसा रंग है, पता ही नहीं चलता। सारे रंगों से न्यारे रंग का अमरीका फिलहाल मंदी-मंदी खेलने में व्यस्त। इसलिये उसे पूरी दुनिया में अपने हथियार बेचने का अच्छा बहाना मिल चुका। बराक हुसैन ओबामा सारी दुनिया में देवता बनकर पुजवाने के चक्कर में सबसे गुडी-गुडी हो रहे। उन्हें इन रंग-बिरंगे दैत्यों से क्या लेना-देना! इसलिये तो लाल दैत्य सचमुच इतिहास के तिराहे पर आकर अपने खूनी पंजे चमका रहा।

Sunday, September 6, 2009

घर आया, माँ जाया बराबर!

जोधपुर। नागाणा में जो कुछ भी 5 सितम्बर को श्रमिकों के बीच हुआ, उसे समझदार आदमियों का काम तो नहीं कहा जा सकता। दोष किसी एक पक्ष को देना व्यर्थ है। हो सकता है किसी एक पक्ष का कम या अधिक दोष रहा हो, हो सकता है कि झगड़े का आरंभ किसी एक पक्ष ने किया हो और दूसरा पक्ष भड़क कर सामने से आया हो। हो सकता है कि इस झगड़े में कोई एक पक्ष अधिक पीड़ित और प्रताड़ित हुआ हो, हमारा उद्देश्य उसकी छानबीन करना नहीं, हमारा उद्देश्य तो इस बीमारी की जड़ को समझना है। यह सच है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत कभी भी एक राजनीतिक इकाई नहीं रहा किंतु उससे भी बड़ा सच यह है कि सांस्कृतिक रूप से यह देश सभ्यता के आरंभ से ही एक रहा है और खण्ड-खण्ड क्षरित होता हुआ आज अपने सबसे छोटे आकार में विद्यमान है। इसकी सांस्कृतिक एकता को स्थापित करने के लिये अयोध्या के राजा रामचंद्र ने धुर दक्षिण में रामेश्वरम् का ज्योतिर्लिंग स्थापित किया। मथुरा के राजा श्रीकृष्ण ने समुद्र के किनारे द्वारिका नगरी स्थपित की। अशोक ने महेंद्र और संघ मित्रा को पड़ौसी देशों में शांति का संदेश देकर भेजा आदिगुरु शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किये। सुभाषचंद्र बोस जब कलकत्ता से निकल कर बर्लिन, टोकियो और सिंगापुर की खाक छानते फिर रहे थे और आजाद हिंद फौज के लिये गोला बारूद जुटाते फिर रहे थे तो क्या वे केवल बंगाल को आजाद करवाने के लिये ऐसा कर रहे थे? हरिद्वार, प्रयाग, पुष्कर, उज्जैन, गया और जगन्नाथ पुरी एक दूसरे से सैंकड़ों किलोमीटर दूर हैं किंतु सबके लिये एक समान रूप से अपने हैं। फिर यह तेरा मेरा कैसा? जब देश 562 सम्प्रभु रियासतों और 11 ब्रिटिश प्रांतों में बंटा हुआ था, तब भी इस तरह का अपना-पराया नहीं था, तब भी हम भारत माता की जय बोलकर आनंदित होते थे, फिर आज एक संविधान और एक ध्वज के तले स्थानीय और बाहरी का झगड़ा कैसे खड़ा हो गया!
नागाणा में स्थानीय कर्मचारी हों या फिर किसी अन्य प्रांत से आये हुए, हैं तो सब भारत माता के पुत्र ही, फिर भीतर -बाहर का प्रश्न क्यों? जब एक माता के पुत्र लड़ते हैं तो माता को कष्ट होता है। जो पुत्र अपनी माता के कष्ट का अनुभव नहीं करते, वे कैसे पुत्र हैं? भारत माता के प्रति प्रेम क्या केवल फिल्मों में दिखाने के लिये है या फिर क्रिकेट के मैदानों में गाने के लिये है! जब हम एक देश के नागरिक होकर केवल इसलिये लडेंगे कि कुछ लोग हमारे बीच में दूसरे प्रांत से आ गये हैं, तो सोचिये फिर हमें आस्ट्रेलिया वालों से शिकायत क्यों होनी चाहिये जो सात समंदर पार से आये भारतीयों को केवल इसलिये पीटते हैं कि वे विदेशी हैं? मुझे स्मरण है आज से पच्चीस साल पहले गंगानगर जिले के एक छोटे से गांव की एक पंजाबी स्त्री ने मुझ नितांत अपरिचित का स्वागत यह कह कर किया था- घर आया, माँ जाया बराबर और जब थोड़ी देर बाद मैं उससे विदा हुआ तो उसने कहा- तेरे बच्चों के गांव बसें। आज भी मैं उस स्त्री के बारे में सोचता हूँ तो श्रद्धा से अभिभूत हो जाता हूँ। कहाँ गई हमारे देश की ऐसी अनोखी सांस्कृतिक विरासत? कौन निगल गया उसे? नागाणा में बाहर से आये जिन श्रमिकों को उनके परिजनों ने यहां भेजा है, राजस्थानियों की भारतीय संस्कृति में गहरी आस्था पर विश्वास करके ही भेजा है। हम उस विश्वास को बनायें। आज लाखों राजस्थानी भारत के कौने-कौने में बसे हुए हैं, लाखों राजस्थानी दुनिया के दूसरे देशों में बसे हुए हैं। सोचिये वे कितने शर्मसार हुए होंगे जब उन्होंने राजस्थान की धरती पर स्थानीय बाहरी का झगड़े के बारे में पढ़ा होगा।