Thursday, January 28, 2010

इट हैपन्स ओनली इन इंडिया!

मोहनलाल गुप्ता
गणतंत्र दिवस पर भी अब बधाई के एस एम एस करने का फैशन चल निकला है। मेरे मोबाइल फोन पर जो ढेर सारे एस एम एस आये, उनमें से एक एस एम एस के शब्द अब तक मेरे मस्तिष्क में चक्कर काट रहे हैं। यह एस. एम. एस. मुझे जोधपुर से ही किसी साथी ने भेजा है जिसमें लिखा है कि हम एक ऐसे मजाकिया देश में रहते हैं जिसमें पुलिस या एम्बुलेंस से पहले पिज्जा घर पहुंचता है और जहाँ बैंकों द्वारा एज्यूकेशन लोन पर 12 प्रतिशत किंतु कार लोन पर 8 प्रतिशत ब्याज दर ली जाती है। वस्तुत: पिछले कुछ सालों से मैं इस बात को बार-बार दोहराता रहा हूँ कि हमारे देश का बाजारीकरण हो रहा है। बाजार हम सबको खाये जा रहा है। सारे रिश्ते, सारी संवेदनायें, मानवीय मूल्य, सामाजिक पर्व, रीति-रिवाज, हमारी गौरवशाली परम्परायें, सब पर बाजार हावी हो रहा है। गणतंत्र दिवस पर मिला यह एस. एम. एस., देश पर हावी होते जा रहे बाजारीकरण को ही व्यक्त करता है। बीड़ी के बण्डल पर गणेशजी तो पिछले कई दशकों से छपते रहे हैं, चोली के पीछे क्या है जैसे भद्दे गीत भी इस देश में डेढ़ दशक पहले करोडों रुपयों का व्यवसाय कर चुके हैं। अब तो परिस्थितियां उनसे भी अधिक खराब हो गई है। देश में पिछले कुछ सालों में हुए स्टिंग आॅपरेशन हमारे देश में बढ़ते लालच की कहानी कहते हैं। पहले इस देश में जनसंख्या का विस्फोट हुआ, फिर लालच का भूकम्प आया और उसके तत्काल बाद बाजार में महंगाई का ज्वालामुखी फूट पड़ा। आज तक जितनी भी वैज्ञानिक प्रगति हुई है, उसे अचानक बाजार ने अपनी चपेट में ले लिया है। रेडियो, टी. वी. और पत्र-पत्रिकाओं का आविष्कार मानो बाजारू वस्तुओं के विज्ञापन दिखाने के लिये ही हुआ है ! मोबाइल फोन पर सारे दिन इस प्रकार के एसएमएस आते रहते हैं- जानिये अपने लव गुरु के बारे में। यदि आप अठारह साल या उससे अधिक उम्र के हैं, तो वयस्क चुटकले पाने के लिये हमें एसएमएम कीजिये। तीन रुपये प्रति मिनट में अपना भविष्य जानिये। अर्थात् धर्म, विज्ञान, अध्यात्म, ज्योतिष सब कुछ बाजार ने निगल लिये हैं। इस देश का राष्ट्रीय खेल हॉकी है, किंतु लोग क्रिकेट के पीछे पागल हैं। शेर इस देश का राष्ट्रीय पशु है किंतु वह जंगलों से गायब हो रहा है। साड़ी इस देश की औरतों की मुख्य पोशाक है किंतु अब वह टीवी के ढेर सारे चैनलों से लेकर सिनेमा के पर्दों और सड़कों के किनारे लगे होर्डिंगों पर निक्कर-बनियान पहने ख़डी है। वह जननी से जनानी बनाई जा रही है और यह सब नारी मुक्ति, नारी स्वातंत्र्य और नारी सशक्तीकरण के नाम पर हो रहा है। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के भार से अधिक उनकी पीठ पर लदे बस्ते का भार है जिसके बोझ के तले दबकर बचपन ही नहीं बड़े भी आत्महत्या कर रहे हैं।

Thursday, January 21, 2010

अब बॉस देर शाम तक रुकने को नहीं कहते !

इंग्लैण्ड में श्रमिकों, कर्मचारियों एवं अधिकारियों से लेकर प्रबंधकीय वर्ग तक में काम करने की एक आदर्श आचार संहिता है। इस आचार संहिता का अधिकांश हिस्सा अलिखित है जो परम्परा, मर्यादा और कॉमनसेंस से संचालित होता है। कुछ अडियल मालिकों और प्रबंधकों को नियंत्रित करने के लिये श्रम कानून भी बने हुए हैं। इंगलैण्ड में हर व्यक्ति निर्धारित समय पर अपने कार्य स्थल पर पहुंचता है। काम के समय में वह लगातार काम करता है। गप्पों, बहसों, चाय की चुस्कियों और हथाइयों के लिये उस दौरान कोई गुंजाइश नहीं रहती। कार्यालय कर्मचारियों से भरा रहता है किंतु वहां शोर नहीं होता। लंच के समय लंच होता है और छुट्टी के समय छुट्टी होती है। काम समाप्त करने का समय उसी तरह निश्चित है जिस तरह काम आरंभ करने का। काम का समय पूरा होने के बाद कोई भी बॉस अपने अधीनस्थ को कार्य स्थल पर एक मिनट के लिये भी नहीं रोक सकता अन्यथा उसे श्रम कानूनों का सामना करना पड़ सकता है। अवकाश के दिन कोई कर्मचारी काम पर नहीं बुलाया जाता, उस दिन केवल अवकाश ही रहता है।
देखने-सुनने में यह व्यवस्था कुछ रूखी और यांत्रिक प्रतीत होती है किंतु इस व्यवस्था को बनाये रखने में काम के समय काम वाला फण्डा सहायता करता है। भारत में इस परम्परा का निर्वहन केवल उन कारखानों में लागू है जहां श्रमिक समय पर अपना कार्ड पंच करवाते हैं और शाम को भौंपू बजते ही काम छोड़ देते हैं। जबकि अधिकांश कार्यालयों में श्रमिक वर्ग और कर्मचारियों से लेकर अधिकारी और प्रबंधक, काम पर पंद्रह बीस मिनट से लेकर एक घण्टे तक की देरी से पहुंचते हैं, दिन में गप्पें लगाते हैं, एक दूसरे को चाय पिलाकर आपसी सम्बन्धों को आगे बढ़ाते हैं। लंच में भी आधे घण्टे की जगह एक घण्टा लेते हैं और शाम को कार्यालय बंद होने से कुछ पहले ही अपना कार्य छोड़ देते हैं। एक ओर कर्मचारी कम होने का रोना रोया जाता है दूसरी ओर कार्यालय कर्मचारियों के शोर-शराबे से भरे हुए रहते हैं। इस कार्यशैली की भरपाई के लिये बहुत से कर्मचारी और अधिकारी देर शाम तक अपने कार्यालय में रुक कर काम निबटाते हैं और अवकाश के दिन भी कार्यालय खोलकर बैठते हैं।
मेरे एक मित्र की पुत्री लंदन की एक प्रतिष्ठित कम्पनी में अधिकारी हैं। वहां उनके बॉस एक भारतीय व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी अधीनस्थ भारतीय अधिकारी को निर्देश दिये कि शाम को कार्यालय छोÞडने से पहले वे दिन भर के काम की रिपोर्ट देकर ही घर जायेगी। शाम के समय जब यह अधिकारी अपने बॉस के कमरे में जाती तो, वे किसी अन्य कार्य में उलझे हुए होते। इस चक्कर में इस महिला अधिकारी को नित्य ही काफी देर तक कार्यालय में रुकना पÞडता। एक दिन भारतीय बॉस के अंग्रेज बॉस ने उस महिला अधिकारी को देर शाम को कार्यालय में देख लिया तो उससे कार्यालय में रुके रहने का कारण पूछा। लड़की ने अपने बॉस के निर्देश उन्हें बता दिये। इस पर बॉस के बॉस ने निर्देश दिये कि आप स्वयं रुककर कोई कार्य करना चाहें तो भले ही रुकें अन्यथा आपको रुकने की आवश्यकता नहीं है। यदि आपके बॉस को आपसे कार्य की रिपोर्ट लेनी है तो वे ऐसी व्यवस्था करें जिससे यह कार्य भी निर्धारित समय में पूरा हो। उस दिन के बाद से भारतीय बॉस ने उस अधिकारी को कभी कार्यालय समय के पश्चात् कार्यालय में नहीं रोका।

इंगलैण्ड में कोई नहीं पूछता कि आप कहाँ जा रहे हैं !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
श्री द्वारकादास माथुर ने मुझे एक रोचक किस्सा सुनाया। उनकी पुत्री लंदन की एक टेलिकॉम कम्पनी में अधिकारी है। उसे अपने कार्य के विषय में कोई जानकारी चाहिये थी। उसे ज्ञात हुआ कि कार्यालय की एक इंगलिश लड़की इस सम्बन्ध में सबसे अच्छी जानकारी रखती है। भारतीय लड़की ने उस इंगलिश लÞडकी से सम्पर्क किया और अनुरोध किया कि वह उसे इस विषय की जानकारी दे। इंगलिश लड़की ने भारतीय लड़की से कहा कि वह उसे जानकारी तो दे देगी किंतु वह भारतीय लोगों को कम ही पसंद करती है क्योंकि वे बहुत जल्दी पर्सनलाईज होने का प्रयास करते हैं। भारतीय लड़की को बुरा लगा। इसलिये अगले कुछ दिन तक उसने इंगलिश लड़की से सम्पर्क नहीं किया। तीसरे-चौथे दिन वह इंगलिश लड़की स्वयं चलकर भारतीय लड़की के पास आई और उसे वांछित जानकारी प्रदान कर दी। भारतीय लड़की को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि इंगलिश लड़की को उस विषय की बहुत अच्छी जानकारी थी और उसने वह जानकारी बहुत ही अच्छे तरीके से भारतीय लड़की को दी। काम पूरा होने के बाद इंगलिश लड़की खेद व्यक्त करते हुए बोली, मुझे ज्ञात है कि आपको मेरी उस दिन वाली बात बुरी लगी है किंतु भारतीय लोगों के साथ कठिनाई यह है कि एकाध दिन की भेंट के बाद ही वे अत्यंत व्यक्तिगत सवाल पूछने लगते हैं। कभी पूछेंगे, आपकी शादी हो गई, या आपके बच्चे कितने हैं, या आपके हसबैण्ड क्या करते हैं ? मुझे यह समझ नहीं आता कि भारतीय लोग एक दूसरे के बारे में इतनी व्यक्तिगत जानकारी क्यों लेना चाहते हैं ! यहाँ कोई भी व्यक्ति एक दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं करता। कौन कहां आता है, कहां जाता है, किसका किससे क्या सम्बन्ध है, किसका किसी से क्या झगड़ा है इस बारे में किसी अन्य व्यक्ति को तब तक नहीं जानना चाहिये जब तक कि ऐसा करना आवश्यक न हो। हो सकता है कि कुछ लोगों के पास उस इंगलिश लड़की के विरुद्ध कुछ तर्क हों किंतु काफी सीमा तक वह अपनी बात सही कह रही है। आम भारतीय एक दूसरे के जीवन में आवश्यकता से अधिक तांका-झांकी करता है। यद्यपि यह भी सही है कि आम भारतीय सुख-दुख में एक दूसरे का अधिक साथ देता है किंतु यूरोपीय संस्कृति में सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि किसी व्यक्ति को सुख-दुख में सहायता उस व्यवस्था से ही प्राप्त हो जाती है। यही कारण है कि इंगलैण्ड के लोग एक दूसरे से मिलने पर मौसम के बारे में तो बात करते हैं किंतु कोई किसी से यह नहीं पूछता कि आप कहाँ जा रहे हैं। जबकि भारत में तो घर से बाहर निकलते ही हर व्यक्ति को इसी सवाल का सामना करना पड़ता है। हैरानी होती है यह देखकर कि कभी-कभी तो दो-चार किलोमीटर की दूरी में ही हमारा सामना इस सवाल से आठ-दस बार तक हो जाता है। उस इंगलिश लड़की की तरह मैं भी यह सोचकर हैरान होता हूँ कि लोग आखिर क्यों जानना चाहते हैं कि कोई कहाँ जा रहा है!

Monday, January 18, 2010

वे मुस्कुराकर बूढ़ों को रास्ता देते हैं!

मोहनलाल गुप्ता
गांधी के नाम पर दे दे बाबा ! शीर्षक वाले कल के लेख की भाँति यह लेख भी मेरे मित्र द्वारकादास माथुर की इंगलैण्ड यात्रा के अनुभव पर आधारित है। हम भारतीय अपने आप को दुनिया का सबसे तमीजदार और सभ्य आदमी मानते हैं जबकि दुनिया देखने पर पता लगता है कि वास्तविकता कुछ और ही है। भारत में सड़कों पर जो आपा-धापी मची हुई है और साल भर में सड़क दुर्घटनाओं में जितने लोग मरते हैं उनका आंकÞडा देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से बता सकता है कि हमारा देश तमीज, सभ्यता और मानवता के मामले में पिछड़ता जा रहा है। हम अपने से बड़ों का सम्मान करना छोड़ रहे हैं और किसी भी तरह दूसरों से आगे निकल जाने की अंधी होड में लगे हुए हैं। इंग्लैण्ड में सड़क, फुटपाथ, गली या सार्वजनिक स्थानों पर चलने का एक सामान्य नियम है कि जब दो व्यक्ति चलते हुए एक दूसरे के सामने आ जायें तो कम आयु के लोग अपने से बड़ी आयु के लोगों की तरफ देखकर मुस्कुराते हैं और उनके लिये पर्याप्त स्थान छोड़ देते हैं। जिस व्यक्ति के लिये मार्ग छोड़ा जाता है, वह भी मुस्कुराता है और धन्यवाद ज्ञापित करता हुआ आगे निकल जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में एकाध सैकेण्ड लगता है किंतु इससे आम आदमी के जीवन में जो मिठास और विश्वास घुलता है, उसकी कीमत कई घंटों में की गई समाज सेवा से भी अधिक होती है। इंगलैण्ड में बड़ी आयु के लोगों को मुस्कुराकर रास्ता देने का कोई लिखित कानून नहीं है। वहाँ तो संविधान तक अलिखित है। इसके विपरीत हमारे देश में बÞडा भारी लिखित संविधान मौजूद है किंतु हमारे सामाजिक जीवन की जटिलतायें दूसरे देशों से कहीं अधिक हैं। हमारा आपसी व्यवहार लगभग स्तरहीन है। वह मिथ्या प्रदर्शन, ढोंग और पाखण्ड से भरा हुआ है। हम दूसरों की सहायता करने में सबसे पीछे हैं जबकि इंग्लैण्ड में किसी से सहायता मांगने पर हमारा सामना जिस सद् व्यवहार से होता है, वह अनुकरणीय है। नि:संदेह उनके पास हमारे जैसी गीता, रामायण, महाभारत और उपनिषद नहीं हैं किंतु बहुत सारी उन अच्छी किताबों के होने का क्या लाभ है जब तक उन्हें पढा न जाये और अपने जीवन में उतारा न जाये। हमारी सड़कों पर युवकों के प्रदर्शन को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि उन्हें नैतिकता और सदाचरण की शिक्षा नहीं दी जा रही है। वे मोटर साइकिल पर हवा की गति से चलते हैं, किसी नियम और किसी की मानसिक परेशानी की परवाह न करके दांये, बांये होते हुए सबसे आगे निकलने का प्रयास करते रहते हैं। कार चलाने वाले, चौराहों पर भी अपनी कार धीमी नहीं करते, उनके कानों पर हर समय मोबाइल फोन लगा हुआ रहता है। लड़कियां अपनी स्कूटी को फुर्र से उÞडाने के चक्कर में बड़े वाहनों के सामने आकर दुर्घटनाग्रस्त होती है। ट्रक और ट्रैक्टर वाले तो ब्रेक पर पैर रखना ही नहीं चाहते। साइकिल वाले अपने जीवन की जिम्मेदारी पूरी तरह से दूसरों के माथे डाल कर चलते हैं। पैदल चलने वाले एक दूसरे से कंधे छीलते हुए चलते हैं। बसों में बैठे हुए यात्री सÞडकों पर केले के छिलके और थूक फैंकने में संकोच नहीं करते। यूरोप में ऐसे स्तरहीन समाजिक व्यवहार वाले दृश्य दिखाई नहीं देते।

Saturday, January 16, 2010

गांधी के नाम पर दे दे बाबा!

गांधी के नाम पर दे दे बाबा। रुपया नहीं पौण्ड चलेगा, गांधी के नाम पर ढोंग चलेगा। ये वे डेढ पंक्तियां हैं जो उस समय से मेरे मस्तिष्क में घूम रही है जब से मेरे मित्र द्वारका दास माथुर ने मुझे अपनी इंगलैण्ड यात्रा के कुछ संस्मरण सुनाये। गांधी हमारे राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नेताओं में सबसे बड़ा कद रखते हैं, उन्हें हम राष्ट्रपिता कहकर सम्मान देते हैं तथा किसी को अपनी बात मनवानी हो तो उस बात को गांधी के हवाले से कहने का प्रयास करते हैं। गांधी के नाम की तुरप ठोकते ही सामने वाला अपने हाथ खड़े कर देता है। यह अलग बात है कि आज हम गांधी के बारे में बहुत ही कम जानते हैं!
भारत से बाहर गांधी को किसी और दृष्टि से देखा जाता रहा है। आजादी की लड़ाई के दिनों में वे लंदन के आंख की सबसे बड़ी किरकिरी थे। आजादी के बाद भारत से अलग हुए पाकिस्तान में वे खलनायक के रूप में देखे गये। नि:संदेह उस पाकिस्तान में आज का बांगलादेश भी पूर्वी पाकिस्तान के नाम से सम्मिलित था किंतु आज बांगलादेशी लोग गांधी के नाम को यूरोप के बाजार में किसी खूबी के साथ बेच रहे हैं, वह देखने और समझने वाली बात है। लंदन सहित यूरोप के कई शहरों में आज बांगलादेशियों ने बड़े-बड़े रेस्टोरेंट्स खोल रखे हैं जिनके बाहर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा रहता है- गांधी रेस्टोरेंट।
जिस ब्रिटिश राजशाही से गांधी लगभग चार दशक तक लड़ते रहे। लंदन उन्हें भयभीत आंखों से देखा करता था। आज उसी लंदन में गांधी के नाम के रेस्त्रां खुले हुए हैं और धड़ल्ले से चल रहे हैं। एक बार को ऐसा लग सकता है कि यह बात लंदनवासियों के बड़े दिल का परिचायक है किंतु इसके पीछे कुछ और भी गहरी बात छिपी हुई है। आज तो गांधी की मृत्यु को तिरेसठ साल हो गये किंतु जब गांधी जीवित थे और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिये लंदन गये थे तो गांधी को सड़क पर चलते देखकर लंदन के अभिजात्य वर्ग की औरतें और पुरुष श्रद्धा मिश्रित कौतूहल से उनके पीछे चलने लगते थे। कैसे एक नंगे-बदन आदमी यूरोप की सर्दी को खादी की धोती से जीत लेता है! कैसे कोई आदमी बिना व्हिस्की और मांस के पेट भर लेता है! कैसे एक अधनंगी और मरियल सी देह के भीतर ऐसी मजबूत आत्मा निवास करती है जो संसार की सबसे बड़ी ताकत को चुनौती देती हुई लंदन तक चली आती है! आज भी बहुत से यूरोप वासियों के लिये गांधी एक कौतूहल हैं, एक विस्मयकारी जीवन शैली के प्रतिनिधि हैं। यही कारण है कि लंदन के लोग गांधी के नाम से चल रहे रेस्टोरेंट्स में बड़े चाव से जानते हैं किंतु जैसे हम भारत में दूसरों को सम्मोहित और निरुत्तर करने के लिये गांधी के नाम का मिथ्या इस्तेमाल करते हैं, ठीक वैसे ही बांग्लादेशी भी गांधी के नाम पर लंदन वासियों को मूर्ख बनाते हैं। उन रेस्टोरेंट्स में मछली से लेकर गाय का मांस बिकता है, शराब परोसी जाती है और सूअर के मांस के पकोडे और सैण्डविच परोसे जाते हैं। इसीलिये मैंने लिखा है- रुपया नहीं पौण्ड चलेगा, गांधी के नाम पर ढोंग चलेगा।

Monday, January 4, 2010

डॉन की पार्टी क्यों नाची खाकी!

बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह समंदर का नियम है। बÞडा सांप छोटे सांप को जिंदा निगल जाता है, यह जंगल का रिवाज है। बÞडा गुण्डा छोटे गुण्डे को पाल लेता है, यह आदमियों की रवायत है। यह है उस सवाल का जवाब जो पूरे देश के सामने है कि पच्चीस दिसम्बर की रात को बम्बई में एक डॉन की पार्टी में खाकी वाले क्यों नाचे! पिछले कुछ सालों से देश में नाचने का जो सिलसिला बढा है, उसका चरम यह है कि दिल्ली की सडकों पर एक नौजवान खुलेआम अपने पडौसी का खून करके वहशी दरिंदों की तरह हाथ लहरा कर नाचता है और बम्बई में पुलिस के बडे अधिकारी डॉन के घर में आयोजित पार्टी में शराब पीकर ठुमकते हैं। उन सारे नाच गानों और ठुमकों का तो हिसाब ही क्या रखना जो बम्बई के होटलों और डांस बारों में, या सुनसान इलाकों में चोरी छिपे आयोजित हो रही रेवा पार्टियों में समाज के प्रभावशाली परिवारों के नौजवान और युवतियां ड्रग्स पीकर नाचते हैं।
देश में वहशी दरिंदों के नंगे नाच का सिलसिला लम्बा हो गया है। मेरठ के मेडिकल कॉलेज में कुछ लोग आदमियों के शवों की हड्डियों में से चर्बी निकालकर घी में मिलाते हैं। मेरठ और कानपुर में रेलवे स्टेशनों पर दीवार रंगने के जहरीले पेण्ट से चाय बनाकर बेची जाती है। गाजियाबाद में कुछ वहशी दरिंदे बच्चों को मारकर उनके शव खा जाते हैं और उनकी हड्डियां नालों में फैंक देते हैं। आर. एस. शर्मा जैसे बÞडे पुलिस अधिकारी महिला पत्रकार की हत्या करते हैं, अमर मणि त्रिपाठी जैसे लोग कवयित्रियों से दोस्ती करके उनकी हत्या कर देते हैं। एस. पी. सिंह राठौÞड जैसे उच्च पुलिस अधिकारी रुचिका की हत्या करके पुलिस विभाग का सर्वोच्च पद पा जाते हैं।
पैसे का लालच चारों ओर इतना बढ गया है कि एक सहायक अभियंता फर्जी मेडिकल बिलों से ढाई करोड रुपये का भुगतान उठाता है। आखिर क्यों चाहिये एक आदमी को इतना पैसा? क्यों आज एक आम आदमी अपने बच्चे के विवाह में हजारों आदमियों की दावत करता है ? क्यों आज हर आदमी को रहने के लिये करोडों का मकान चाहिये!
उस पर भी हमारा ढोंग यह कि हम बात-बात में महात्मा गांधी की दुहाई देते हैं। विश्व गुरु होने का दंभ भरते हैं। सत्य, अहिंसा और न्याय का ढिंढोरा पीटता हैं। गंगा, गाय और गीता की सौगंध खाते हैं। कई बार मुझे लगता है कि जिस अनुपात में हमारा लालच बÞढा है, उसी अनुपात में स्कूलों और सार्वजनिक मंचों पर ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोसितां हमारा’’ गाया जाने लगा है। क्या वास्तव में हम इस देश की बुलबुलें बन गये हैं जो दाना चुगकर फुर्र हो जाने में विश्वास करते हैं? जैसे ही हमारे बच्चे के कुछ नम्बर ज्यादा आये, हमने अपने बच्चे को पÞढने के लिये अमरीका, लंदन या आॅस्ट्रेलिया भेजने का पासपोर्ट बनवाया। जैसे ही हमारा मौका लगा, हमने बेइमानी आरंभ की, इसी को तो कहते हैं बुलबुलें। एक ओर तो हम बुलबुलें बनकर नाच और गा रहे हैं और दूसरी ओर हमारा प्यारा भारत.... खैर जाने दो वह तो बिग बॉस के घर में बंद है।