Thursday, November 19, 2009

पति पत्नी में से कोई एक घर पर रहे !

लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन ने भारत की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को विशव में सर्वश्रेष्ठ माना है। नि:संदेह उनके द्वारा यह निष्कर्ष भारत के बहुसंख्य परिवारों को देखकर निकाला गया है। भारत के बहुसंख्य परिवार, परम्परागत परिवार हैं जो सनातन सामाजिक व्यवस्था पर आधारित हैं। सनातन भारतीय परम्परा में स्त्री और पुरुष की भूमिकाएं सुस्पष्ट हैं। उसमें किसी तरह का संशय, विवाद, स्पर्धा, तुलना, असुरक्षा जैसी नकारात्मक बातों को स्थान नहीं दिया गया है। परस्पर प्रेम, विश्वास, समर्पण, श्रद्धा और सेवा के संस्कार ही इस सनातन सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्था का ताना-बाना तैयार करते हैं।
इस व्यवस्था में न तो अधकचरी उम्र में प्रेम के पीछे पागल होकर आग से जलने या जहर खाकर मरने की आवश्यकता है, न अपने पालक माता -पिता से छिप कर अंधी गलियों में भाग जाने और दैहिक शोषण का शिकार होने की संभावना है और न दो-तीन साल के लघु वैवाहिक जीवन के बाद तलाक के लिये कचहरियों के चक्कर लगाने की विवशता है। माता-पिता अपने व्यस्क बच्चों के लिये एक परिवार का निर्माण करते हैं। बेटी को हल्दी भरे हाथों से ससुराल के लिये विदा करते हैं। मंगल गीत गाये जाते हैं और बहू को मेहंदी भरे हाथों से घर की देहरी में प्रवेश दिया जाता है। बहू अपने पूर्वजों की संस्कृति को आगे बढ़ाती है, वंश बढ़ता है और परिवार की सनातन व्यवस्था आगे चलती है।
ऐसी सामाजिक व्यवस्था लगभग पूरे एशिया में थी जिसका प्रणयन भारतीय संस्कृति से हुआ था। जापान, चीन, श्रीलंका, बर्मा, बाली, सुमात्रा, जावा, इण्डोनेशिया, श्याम आदि देशों में आज भी मोटे रूप में इसी सनातन भारतीय परम्परा और संस्कृति पर आधारित परिवारिक संरचना विद्यमान है किंतु सुरसा की तरह बढ़ता हुआ पूंजीवाद भारतीय पारिवारिक संरचना और सामाजिक व्यवस्था के लिये खतरा बन गया है। परिवारों को आज अधिक पैसे की आवश्यकता है इसलिये पति-पत्नी दोनों ही कमाने को निकल पÞडे हैं। शिशु क्रेच में छोडेÞ जा रहे हैं, बच्चे डे बोर्डिंग में डाले जा रहे हैं, बूढ़ो को वृद्धाश्रमों में धकेला जा रहा है और बीमारों को पाँच सितारा होटलों जैसे अस्पतालों में भेजा जा रहा है।
क्रेच, डे बोर्डिंग, वृद्धाश्रम और महंगे अस्पतालों में भारी पूंजी लगती है। फिर भी बच्चों, बूÞढों और रोगियों को वैसा प्रेम, समर्पण और सहारा नहीं मिलता, जैसा कि उन्हें मिलना चाहिये। यदि पति-पत्नी में से कोई एक कमाने जाये और दूसरा घर पर रहकर बच्चों, बूढों और बीमारों की देखभाल करे तो घर को सुरक्षा भी मिलती है और परिवार को चलाने के लिये कम पूंजी की आवयकता होती है। जब पति-पत्नी दोनों ही कमाने जाते हैं तो परिवार के दूसरे सदस्यों को कई तरह के मन मारने पड़ते हैं। पारिवारिक और सामाजिक आयोजनों में दोनों ही छुट्टियों के लिये तरसते हैं।
पति-पत्नी दोनों ही कमाने चल देते हैं तो बूढेÞ माता-पिता को शिशुओं और छोटे बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी दे दी जाती है। परिवार उनके लिये बोझ बन जाता है। यदि घर में बड़े बूढेÞ नहीं हैं तो बच्चों नौकरों के पास रहते हैं जहाँ वे पूरी तरह असुरक्षित होते हैं और नौकरों की बदमाशियों के शिकार होते हैं। आरुषि हत्याकाण्ड ऐसी ही बच्ची की दारुण गाथा है। यदि पारिवारिक जीवन का आनंद और सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी चाहिये तो पति-पत्नी में से एक घर पर रहे। इससे पूरे समाज को सुरक्षा मिलेगी, अपराध घटेंगे और बेरोजगारी तो पूरी तरह समाप्त हो जायेगी। प्रत्येक परिवार स्वयं तय कर ले कि कमाने कौन जायेगा और घर पर कौन रहेगा! लेगटम रिपोर्ट से केवल यही सबक मिलता है।
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