Thursday, December 31, 2009

ऐसे तो कोपेनहेगन नो-पेनहेगन से फ्लॉपेनहेगन हो जायेगा!

अमरीका ने कोपेनहेगन में आयोजित धरती सम्मेलन में भारत और चीन के साथ एक अबाध्यकारी और धुंधली सी संधि करके यह प्रतिबद्धता दर्शाने का प्रयास किया था कि वह धरती को चढ़ते बुखार से चिंतित है और वह को-पेन हेगन (हमदर्द हेगन) को नो-पेन हेगन (बेदर्द हेगन) नहीं बनने देगा किंतु केवल पन्द्रह दिनों में ही अमरीका ने भारत से खरीदे जा रहे सैण्ड स्टोन पर प्रतिबंध लगाकर इसे फ्लॉप-एन हेगन (असफल हेगन) बनने के कगार पर धकेल दिया है। आज पूरी दुनिया में भारत से मोटे तौर पर तीन तरह के पत्थरों का निर्यात होता है- संगमरमर, ग्रेनाइट तथा सैण्ड स्टोन। इनमें से संगमरमर और ग्रेनाइट महंगे पत्थर हैं तथा प्रसंस्करण के बाद ही काम आते हैं जबकि सैण्ड स्टोन एक सस्ता पत्थर है और बिना प्रसंस्करण के ही भवन निर्माण जैसे कार्यों में लगता है। विगत दिनों अमरीकी राष्ट्रपति अपनी चीन यात्रा में इस बात के संकेत दे चुके हैं कि वे चीन के साथ नये व्यापारिक सम्बन्ध बनायेंगे और ऐसा करने के लिये वे चीन को एशियाई देशों का नेतृत्व सौंपने में भी नहीं हिचकिचायेंगे। इसलिये समझा जा सकता है कि विगत आधी शताब्दी से भारत से आयात किये जा रहे सैण्ड स्टोन को अब अमरीका यह कहकर खरीदने से क्यों मना कर रहा है कि भारतीय खदानों में बाल श्रमिक इस पत्थर को खोदते हैं! जबकि पर्दे के पीछे की सच्चाई यह है कि इससे चीनी हित जुÞडेÞ हुए प्रतीत होते हैं। चीन विगत आधी शताब्दी से भारत से संगमरमर और ग्रेनाइट से बनी सामग्री खरीदता था। विगत एक दशक में चीन ने भारत से तैयार सामग्री खरीदना बंद करके संगमरमर तथा ग्रेनाइट के ब्लॉक खरीदने आरंभ कर दिये।
चीन पत्थर के इन ब्लॉक्स का दो तरह से उपयोग करता है। पहला उपयोग तो यह कि चीन उनसे विभिन्न प्रकार की सामग्री तैयार करके अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात करता है जिससे उसके श्रमिकों को रोजगार और देश को अधिक वैदेशिक मुद्रा मिल सके। चीन इस पत्थर का दूसरा उपयोग इसे सीधे ही दुनिया के दूसरे देशों को बेच कर मुनाफा वसूलने में करता है। अमरीका और उसके मित्रों द्वारा चीन को प्रश्रय दिये जाने के कारण भारतीय पत्थर व्यवसायी एवं निर्यातक दुनिया के बाजारों में पिट रहे हैं और चीन उस पत्थर से करोड़ों डॉलर कमा रहा है।
इस प्रकार चीन पहले ही भारत के ग्रेनाइट और संगमरमर से तैयार चीजें खरीदना बंद करके भारतीय श्रमिकों को बेरोजगारी की ओर धकेल चुका है और अब अमरीका भी भारत से सैण्ड स्टोन खरीदना बंद करके इस प्रक्रिया को बढ़ावा देगा। अकेले राजस्थान में सैण्ड स्टोन के खनन, परिवहन एवं निर्यात व्यवसाय से जुडे दो लाख लोग बेरोजगार हो जायेंगे। अमरीका और चीन यदि वास्तव में धरती के बुखार को उतारने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें दो काम करने होंगे। चीन भारत से ग्रेनाइट और संगमरमर के ब्लॉक्स खरीदने की बजाय तैयार माल खरीदने की नीति अपनाये तथा अमरीका भारत से सैण्ड स्टोन खरीदने पर प्रतिबंध न लगाये। अन्यथा भारतीय पत्थर उद्योग में लगे श्रमिक, व्यवसायी एवं अन्य लोग नि:संदेह ऐसे कामों की तरफ जायेंगे जिनके कारण को-पेनहेगन को नो-पेन हेगन या फ्लोप-एन हेगन बनने से कोई नहीं रोक सकेगा।

Wednesday, December 30, 2009

जैकेट क्यों उतारती है?

जोधपुर ने पूरे देश को नया संदेश दिया है वह बधाई का पात्र है। जिस राष्टÑीय संगठन के नेतृत्व में देश ने आजादी की लड़ाई लड़ी, उस संगठन के 125 वें स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में एक नृत्यांगना ने नृत्य करते-करते अपनी जैकेट उतारी ही थी कि वयोवृद्ध और अनुभवी नेताओं ने उस गीत और नृत्य को बंद करवा दिया और नृत्यांगना को मंच से नीचे उतार दिया। ऐसा देश में पहली बार हुआ है और सचमुच उल्लेखनीय हुआ है। ये भारत की संस्कृति नहीं है कि सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे भौण्डे नृत्य हो, किसी समय समाज का हिस्सा रहे नौटंकी घरों, कोठों और खेल-तमाशों में ऐसी बातें होती रही होंगी किन्तु आजाद भारत में सामाजिक सरोकारों वाले ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में नृत्यांगनाओं का क्या काम? विदेशों में कुछ ऐसे टीवी चैनल हैं जिनमें कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली एंकर अथवा समाचार वाचिका कार्यक्रम अथवा समाचार वाचन के दौरान अपने शरीर के सारे कपड़े उतार फैंकती है। ऐसा वह अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए करती है। भारत में भी आज टीआरपी बढ़ाने के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है। सार्वजनिक कार्यक्रमों में क्रिकेट के खिलाड़ियों को बुलाने, फिल्मी अभिनेताओं को बुलाकर उनसे सिनेमाई संवाद बुलवाने तथा भौण्डे नृत्य आयोजित करवाने के पीछे आयोजकों में अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ाने अर्थात अधिक भीड़ खींचने की भावना निहित रहती है। लगे हाथों नृत्यांगना भी अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए नृत्य के दौरान जैकेट अतार देने जैसी हरकतें करती है। आजादी के बाद बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से इस तरह की अपसंस्कृति का चलन आरंभ हुआ जो बढ़ता हुआ पूरे देश में कैंसर की तरह फैल गया। दक्षिण भारत आज इस मामले में सबसे आगे बढ़ गया है। जोधपुर ने इस कैंसर को उखाड़ फैंकने का रास्ता दिखाया है। आशा की जानी चाहिए कि देश के दूसरे नगर भी जोधपुर का अनुसरण करेंगे। कार्यक्रम आयोजक तो अपनी ओर अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढाने के लिए रामलीला जैसे धार्मिक आयोजन में क्रिकेट खिलाड़ी हरभजनसिंह को रावण का मुखौटा पहना कर सीता मैया का अभिनय कर रही नटी के साथ भौंडा और अश्लील नृत्य करवा चुके हैं। हरभजनसिंह को तो केवल पैसे से मतलब है, पूरा देश और उसकी भावनाएं जाएं भाड़ में।
मेरा अभिमत है कि और चाहे जिस किसी की पैसे की भूख मिट जाए क्रिकेट के खिलाड़ियां की पैसे की भूख कभी नहीं मिटती। देखा जाए तो नृत्य के दौरान जैकेट उतारने के लिए केवल नृत्यांगना दोषी नहीं है। हमें अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि आखिर नृत्यांगना नृत्य के दौरान जैकेट क्यों उतारती है? उसके लिए जिम्मेदार कौन है? नृत्यांगना अथवा हम? मैं समझता हूं कि नृत्यांगना तो नाच-गाकर अपना पेट भरती है। उसका क्या दोष, वह तो वही करेगी जिससे दर्शक प्रसन्न हो, उसे अधिक पैसे मिले और उसका रोजगार चलता रहे। दोष तो सभ्य और सुसंस्कृत माने कहलाने वाल हम लोगों का है जो उस नृत्यांगना को ऐसा भौण्डा प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, उसे ऐसा रोजगार अपनाने के लिए अधिक पैसे देते हैं। हमें जोधपुर की जनता को बधाई देनी चाहिए जो टीआरपी और भौण्डे मनोरंजन के मोहजाल से बचकर जैकेट उतारने वाली लड़की को मंच से नीचे उतार देती है।

Saturday, December 26, 2009

अब भी सच नहीं बोल रहे बराक !

कोपेनहेगन सम्मेलन से लौटकर अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ने इसके सफल होने की घोषणा की थी किंतु केवल 6 दिन बाद ही हुसैन ने अपना बयान बदलते हुए कहा है कि कोपेनहेगन के नतीजे पर पूरी दुनिया में चिंता होना वाजिब है। अचानक ऐसा क्या हुआ जो दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी की अन्तरात्मा हिलती हुई दिखाई दे रही है। वे कह रहे हैं कि वैज्ञानिक तथ्य हमसे इस बात की मांग करते हैं कि हम अगले 40 वर्षों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सजर्न में महत्वपूर्ण कटौती करें। वे ये भी कह रहे हैं कि सभी देश जलवायु परिवर्तन की समस्या से निबटने के इच्छुक हैं।
देखा जाये तो हुसैन अब भी सच नहीं बोल रहे हैं, वे अपने आप को सच बोलते हुए दिखाने का भ्रम फैला रहे हैं। वस्तुत: कोपेनहेगन की विफलता की कहानी आज से नहीं, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से आरंभ हो जाती है। आज तो केवल उसके परिणाम दिखाई दे रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामों ने दुनिया पर दादागिरी करने का लाइसेंस यूरोप से छीनकर अमरीका के हाथों में दे दिया था। तब से ही अमरीका अपने पंूजीवादी उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिये पूरी दुनिया का शोषण करने के लिये निकल पÞडा था। तब केवल सोवियत संघ ही एक मात्र ऐसा देश था जिसने अमरीका को चुनौती देते हुए उसका मार्ग रोका था। इसी कारण विश्व शक्तियों के मध्य शीतयुद्ध आरंभ हुआ और अमरीका तथा रूस में भारी मात्रा में खतरनाक हथियार बनाने की होड आरंभ हुई। अंतत: भारत, चीन तथा फ्रांस जैसे देशों को भी इस होड में शामिल होना पड़ा इतना ही नहीं, इन हथियारों को बनाने के लिये पूरी दुनिया को अधिक से अधिक पूंजी की आवश्यकता अनुभव हुई जिससे पूरी दुनिया को औद्योगिकीकरण, मुक्त व्यापार और उदारीकरण की तरफ जाना पड़ा। विश्वव्यापी औद्योगिकीकरण के चलते भारत और चीन जैसे देशों में सदियों से चल रहे ग्रामीण और कुटीर उद्योग बंद हो गये। लोगों को अपने गांव छोड़कर कारखानों में काम करने के लिये शहरों की ओर भागना पड़ा जिससे शहरीकरण की प्रक्रिया तेजी से बढ़ी। शहरीकरण से बाजारीकरण को तेजी से बढ़ावा मिला। बाजार की मांग को पूरा करने के लिये और अधिक संख्या में कारखाने लगे, बिजली की मांग बढ़ी, वातानुकूलित जीवन शैली का विकास हुआ और पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया।
1945 से लेकर 2008 तक तो अमरीका ने इन स्थितियों का लाभ उठाया किंतु 2009 में पंूजीवाद का जनाजा निकलने लगा, ठीक वैसे ही, जैसे कि कुछ दशक पहले साम्यवाद का जनाजा उठा था। देखते ही देखते अमरीका और यूरोप महामंदी की सुनामी से घिर गये। सैंकड़ों अमरीकी और यूरोपीय बैंक बर्बाद हो गये। अब अमरीका चाहता है कि भारत और चीन जैसे बड़े देश औद्योगिक उत्पादन न बढ़ायें ताकि अमरीकी और यूरोपीय कारखानों में बने हुए माल को इन देशों में बेचा जा सके। यही कारण है कि कोपेनहेगन सम्मेलन से ठीक पहले अमरीकी राष्ट्रपति हुसैन ने भारत के प्रधानमंत्री को चीन आने का न्यौता दिया और स्वयं चीन की राजधानी बीजिंग में जाकर हाजिरी भर आये। भारत और चीन ने हुसैन की मुसीबत को समझते हुए, कोपेनहेगन में अमरीका की नाक कटने से बचाने का प्रयास किया। यही कारण था कि कोपेनहेगन में हुसैन केवल भारत और चीन के साथ ही एक धुंधली सी अबाध्यकारी संधि करने में सफल हुए जिसका वास्तव में कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि अब ओबामा फिर से कोपेनहेगन का पिटारा खोलकर बैठ गये हैं। इसी को कहते हैं- भई गति सांप छछूंदर केरी। हुसैन न तो पूंजीवाद के संÞडांध मारते शव की अंत्येष्टि कर सकते हैं और न ऐसा किये बिना दूसरी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लग सकती है। यही कारण है कि वे सच न बोलकर सच बोलने का दिखावा कर रहे हैं। वे जो कुछ भी कह रहे हैं, उसका केवल यही अर्थ है कि भारत और चीन अपने कारखाने बंद करके अमरीकी कारखानों में बना हुआ माल खरीदने की संधि कर ले।

Friday, December 18, 2009

कोपेनहेगन के अमृत और विष का बंटवारा किस आधार पर हो!

कोपेनहेगन पृथ्वी सम्मेलन रूपी समुद्र-मंथन से निकले अमृत और विष का बंटवारा किस आधार पर हो! 7 से 18 दिसम्बर तक इसी बंटवारे का कोई सर्वमान्य फार्मूला निकालने की माथापच्ची चल रही है। विकसित कहे जाने वाले सम्पन्न देश यह चिंता तो जताते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में कमी होनी चाहिये किंतु वे इस कमी का बीड़ा स्वयं नहीं उठाना चाहते। वे चाहते हैं कि कार्बन उत्सर्जन से होने वाले विकास की वारुणि उन्हें सदैव निर्बाध रूप से प्राप्त होती रहे और कार्बन उत्सर्जन का विषपान विकासशील देशों के माथे मढ़ दिया जाये। विकसित देश चाहते हैं कि विकसित, विकासशील एवं अविकसित देशों में 20 से 25 प्रतिशत कार्बन ऊत्सर्जन कटौती की जाये। देखने में तो यह फार्मूला न्याय संगत लगता है कि सब देशों में बराबर कार्बन कटौती हो किंतु इस फार्मूले में छिपी कड़वी सच्चाई कुछ और है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि बैल, ऊँ ट, घोडेÞ और गधे आदि पशुओं की पीठ पर समान भार लाद दिया जाये और यह दावा किया जाये कि हमने सबके साथ बराबरी का व्यवहार किया है। आज भारत में प्रति-व्यक्ति, प्रति-वर्ष ऊर्जा देने के लिये 510 किलोग्राम आॅयल के बराबर र्इंधन जलाया जाता है जबकि चीन में 1500 किलो, अमरीका में 7778 किलो और कनाडा में 8262 किलो आॅयल के बराबर र्इंधन जलाया जाता है। यदि इस ऊर्जा में से चौथाई हिस्से की कटौती कर दें तो भारत में प्रतिव्यक्ति, प्रतिवर्ष 382 किलो तेल जलाने जितनी ऊर्जा मिलेगी। जैसे-जैसे आबादी बढ़ती जायेगी, प्रति व्यक्ति ऊर्जा की उपलब्धता कम होती जायेगी। जबकि चीन को भारत से तीन गुनी, अमरीका को पन्द्रह गुनी और कनाडा को सोलह गुनी ऊर्जा मिलती रहेगी। कार्बन उत्सर्जन में पच्चीस प्रतिशत कटौती के फार्मूले को लागू करने के दस सालों बाद जब हम दुनिया का आर्थिक मानचित्र देखेंगे तब भारत की आबादी सवा गुनी हो चुकी होगी किंतु ऊर्जा की कमी के कारण देश में अनाज, पेयजल, दवायें, कपड़े और आवास की भयानक समस्या उत्पन्न हो चुकी होगी। भारत अत्यंत पिछड़ा, निर्धन और अशक्त देश दिखाई देगा जबकि चीन भारत से तीन गुनी ऊर्जा की खपत करके भारत में आने वाली सैंकड़ों नदियों को बांध बनाकर रोक लेगा। वह हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करके बड़े भू-भाग दाब लेगा और हमारी सामरिक क्षमताओं के मुकाबले में वह अत्यधिक ताकतवर हो जायेगा। अमरीका और कनाडा हमसे पंद्रह- सोलह गुनी ऊर्जा का उपयोग करके आज से भी अधिक विकसित, शक्तिशाली और सम्पन्न देशों का रूप ले चुके होंगे। भारत चाहता है कि सन् 2012 तक समस्त घरों में बिजली पहुंचे। यदि कोपेनहेगन संधि के बाद भारत पर भी कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती लागू की गई तो सन् 2012 तो क्या, आने वाली कई सदियों तक भारत के करोड़ों लोग बिजली का प्रकाश नहीं देख सकेंगे। इसलिये कोपेनहेगन में कार्बन कटौती का फार्मूला तय करने का आधार केवल यह होना चाहिये कि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को प्रति वर्ष उपभोग के लिये कितनी ऊर्जा उपलब्ध रहे। इसके अतिरिक्त कोई भी फार्मूला दुनिया के देशों के साथ न्याय नहीं कर सकेगा।

Monday, December 14, 2009

क्या कार्बन उत्सर्जन ने श्रीकृष्ण की द्वारिका समुद्र में डुबो दी?

भारत के कई पुराणों में वर्णन मिलता है कि वैवस्वत मनु के समय में बर्फ पिघलने या मौसम के भीषण परिवर्तन के कारण धरती पर चारों ओर पानी ही पानी हो गया। इसे भारत का दूसरा महा जल प्लावन कहा जा सकता है। नि:संदेह उस समय के हिम ग्लैशियर जनसंख्या के बढ़ने, जंगलों के कटने, कार्बन डाई आॅक्साइड या क्लोरो फ्लोरो कार्बन जैसी गैसों के बढ़ने से नहीं पिघले थे। न ही उस समय ग्रीन हाउस इफैक्ट जैसी किसी चीज ने धरती पर जन्म लिया था। काठक संहिता, तैत्तारीय संहिता, अतैत्तारीय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि एक बार सारी पृथ्वी पर सर्वंतक अग्नि से भयंकर दाह हुआ।
तदनन्तर एक वर्ष की अतिवृष्टि से महान् जन प्लावन आया। सारी पृथ्वी जल निमग्न हो गई। वृष्टि की समाप्ति पर जल के शनै:शनै: नीचे होने से कमलाकार पृथ्वी प्रकट होने लगी। इस समय उन जलों में श्री ब्रह्माजी ने योगज शरीर धारण किया। सृष्टि वृद्धि को प्राप्त हुई। तब बहुत काल के पश्चात् समुद्रों के जलों के ऊँचा हो जाने से एक दूसरा जल प्लावन वैवस्वत मनु और यम के समय आया। इन दो महा जलप्लावनों के अतिरिक्त लघु जलप्लावन भी संसार में आते ही रहे हैं। ईसा से 1400 साल पहले आये एक ऐसे ही जल प्लावन में कृष्णजी की द्वारिका समुद्र में समा गई। विभीषणजी की लंका भी एक ऐसे ही जल प्लावन के कारण समुद्र में डूब गई थी। तमिल साहित्य में वर्णित दो जल प्लावनों में से एक जलप्लावन में दक्षिण में स्थित कपाटपुरम् तथा दूसरे जल प्लावन में पुरानी मदुरा जल में डूब गई थी। कश्मीर के नीलमत पुराण में कश्मीर में आये प्रलय का विशद वर्णन है । स्पष्ट है कि इन सारे जलप्लावनों का कारण वायुमण्डल के तापमान में अत्यधिक वृद्धि होना रहा होगा किंतु तापमान में वृद्धि किसी मानवीय कारण से नहीं आई होगी। न जनसंख्या बढ़ने से, न जंगलों की कटाई से और न सीओटू या सीएफसी में वृद्धि से। ताण्ड्य महाब्राह्मण में सरस्वती के लुप्त होने का उल्लेख है जबकि जैमिनी ब्राह्मण में उसके लुप्त होकर पुन: प्रकट होने का उल्लेख है। ऐतरेय ब्राह्मण सरस्वती की स्थिति मरुप्रदेश से कुछ दूरी पर बताता है। एक पुराण में सरस्वती की स्थिति रेत में पÞडी उस नौका के समान बताई गई है जिसके तल में छेद हैं। माना जाता है कि सरस्वती धरती में घुस गई। कालीदास ने भी सरस्वती को अंत:सलिला कहकर सम्बोधित किया है। भूकम्प भी समुद्री एवं भूगर्भीय जल स्तरों को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। लातूर के भूकम्प के दौरान महाराष्ट्र में कई स्थानों पर जल की धाराएं फूट पÞडी थीं। कुछ वर्ष पहले आया सुनामी भी समुद्री क्षेत्र में आया एक भूकम्प ही था। इसी प्रकार बाड़मेर क्षेत्र में विगत दो माह पूर्व आये भूकम्प के बाद वैज्ञानिकों ने चिंता जताई थी कि इससे इस क्षेत्र का तेल बहकर पाकिस्तान की ओर ेसरक सकता है। ये सारे उदाहरण गिनाने का उद्देश्य यह है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या केवल मानव जनित नहीं हैं, इसमें नैसर्गिक बदलावों की भारी भूमिका है। कहीं बड़े, धनी और ताकतवर देश जलवायु परिवर्तन को मनुष्य जनित संकट बताकर छोटे, विकासशील, अविकसित अथवा निर्धन देशों का गला घोंटने में सफल नहीं जायें।

Wednesday, December 9, 2009

यमुना ने सरस्वती को निगला तब कार्बन उत्सर्जन कहाँ था !

ज्ञात मानव इतिहास में धरती पर पहला बड़ा जल प्लावन ईसा से लगभग 3102 साल पहले आया। जब जल प्रलय समाप्त हो गया तब सरस्वती की दिशा उलट गई। अर्थात् इस नदी की मुख्य धारा अपने पहले के बहाव क्षेत्र में बहने के स्थान पर दिल्ली से कुछ ऊपर एक छोटी पहाड़ी नदी की तेज धारा में मिलकर दक्षिण-पूर्व की ओर बहने लगी और विशाल यमुना का जन्म हुआ। चूंकि उसने सरस्वती का पानी निगल लिया था इसलिये वह सरस्वती को मृत्यु देने वाली यमुना अर्थात् यम की बहिन कहलाई। गंगा और यमुना जहाँ प्रयाग में मिलती हैं, उस स्थल को देखकर अनुमान होता है कि इनमें से यमुना बड़ी नदी है किंतु आज वास्तविक स्थिति यह है कि गंगा, यमुना से बड़ी है।
पुराणों में वर्णित तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अगस्त्य और वसिष्ठ ऋषियों के समय तक अर्थात् 2350 ई. पूर्व तक सरस्वती की पुरानी धारा में कुछ जल बहता था जो विनाशन नामक स्थान तक आकर लुप्त होता था। सरस्वती की मुख्य धारा के यमुना में मिल जाने से सरस्वती के पुराने तटों पर बसी हुई मानव बस्तियां उजड़ गर्इं जिनमें कालीबंगा, हड़प्पा और मोहनजोदड़ों आदि के नाम लिये जा सकते हैं। सरस्वती के तट पर बने ऋषियों के आश्रम उजड गये।
इस घटना के लगभग एक सौ साल बाद सप्त-ऋषियों के काल में सरस्वती का पुराना स्वर्णकाल लौटा पर वह सरस्वती तट तक सीमित नहीं था, उसका प्रभाव सारे उत्तरी भारत में था। यह स्थिति पाँच सौ साल तक चली। इसमें उत्तरी भारत के लोगों को शुद्ध जल की आपूर्ति प्रचुर मात्रा में हुई। कालीबंगा जैसी पुरानी बस्तियों पर फिर से नई बस्तियां बस गर्इं। आज भी कालीबंगा की खुदाई में मानव बस्तियों के दो स्तर ठीक एक दूसरे के ऊपर मिलते हैं।
1800 ई. पूर्व के आस-पास एक बार फिर उत्तरी भारत में नदियों ने अपना रूप बदला। सरस्वती फिर सूखने लगी। इस कारण उसके तटों पर खड़े जंगल सूख गये। इस काल का हमारे पुराणों में विशद वर्णन उपलब्ध है जिसमें कहा गया है कि सरस्वती के तट पर ऋषि भूखों मरने लगे तथा अधिकांश ऋषि सरस्वती का तट छोड़कर गंगा-यमुना के मध्य क्षेत्र में जा बसे। इस काल में पूरे उत्तरी भारत में भयानक अकाल पड़ा। इसी काल के एक उपनिषद में वर्णन आता है कि भूख से बिलबिलाते हुए एक ऋषि ने एक महावत से साबुत उड़द मांगकर खाये। वामन पुराण में लिखा है कि ब्रह्मावर्त (आज का हरियाणा और उत्तरी राजस्थान) में सरस्वती के किनारे बड़ी संख्या में ऋषियों के आश्रम स्थित थे। अत्यंत दीर्घजीवी मार्कण्डेय ऋषि सरस्वती के उद्गम के पास रहते थे। जब प्रलय आया तो मार्कण्डेय ऋषि अपने स्थान से उठकर चल दिये। सरस्वती नदी उनके पीछे-पीछे चली। इसी कारण सरस्वती की ऊपरी धारा का नाम मारकण्डा पड़ गया। इस रूपक से आशय लगाया जा सकता है कि जब सरस्वती की मुख्य धारा सूखने लगी तो मार्कण्डेय ऋषि ने अपने पूर्व स्थान को त्याग दिया तथा सरस्वती की जिस धारा के तट पर जाकर वे रहे, वह धारा ऋषि के नाम पर मारकण्डा के नाम से जानी गई। हिमालय पर्वत पर 3207 फुट की ऊँ चाई पर नाहन की चोटी है जिस पर स्थित मारकण्डा नदी का चौड़ा पाट बताता है कि किसी समय यह नदी एक विशाल नद के रूप में प्रवाहित होती थी तथा सरस्वती इसकी सहायक नदी थी। इस सरस्वती को प्राचीन सरस्वती की ही एक धारा समझना चाहिये। सरस्वती के इतने सारे मार्ग परिवर्तनों के समय कार्बन उत्सर्जन जैसी कोई चीज नहीं थी। फिर भी वह लुप्त हो गई।

Tuesday, December 8, 2009

कोई हुसैन और अमरीकियों को भारतीय पुराण पढ़ाये !

आज ध्रुवों और ग्लेशियरों का जल पिघल कर समुद्र में आ रहा है, बराक हुसैन तथा उसके पिछलग्गू विकसित देशों द्वारा इसके दो बड़े कारण बताये जा रहे हैं। एक तो आदमी द्वारा जंगलों को काटना तथा दूसरा र्इंधन चालित मशीनों से कार्बन उत्सर्जन को खतरनाक स्तर पर पहुंचा देना। इन दोनों ही कारणों के लिये विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। क्या वास्तव में धरती पर आये जलवायु संकट का कारण यही है? संभवत: नहीं! पिछले छ: लाख सालों में एशिया, यूरोप और उत्तरी अमरीका के उत्तरी भागों की जलवायु बारी बारी से बहुत ठण्डी और गरम होती रही है जिसके कारण धरती पर कई बार हिमयुग, दुर्भिक्ष और जल प्लावन आये जिनकी कहानी भारतीय पुराणों में लिखी हुई है। इन जलवायु परिवर्तनों के लिये विकासशील देश अथवा आदमी कतई जिम्मेदार नहीं थे। प्लीस्टोसीन पीरियड जो कि आज से छ: लाख वर्ष पहले शुरु हुआ और आज से 10 हजार साल पहले तक चला, इसमें धरती पर कम से कम चार हिम युग आये। प्रत्येक दो कालों के बीच मंद या थोडा गर्म अंतर्हिम काल आया। इस प्रकार कुल तीन अंतर्हिम काल आये जिनमें आदमी ने बार-बार अपना स्थान बदला। जब अधिक सर्दी का दौर आता तो आदमी दक्षिणी प्रदेशों में चला जाता और जब अधिक गर्मी पड़ती तो वह उत्तरी प्रदेशों में आकर रहने लगता। हिम युग की सर्दी के कारण वनस्पति भी नष्ट हो जाती थी जिसके कारण पशु भी लगातार उन प्रदेशों के लिये पलायन करते रहते थे जहाँ गर्मी के कारण घास के मैदानों का विकास हो जाता था। आदमी धरती पर आज से लगभग 20 लाख साल पहले आया किंतु हमारी प्रजाति का आदमी अर्थात् होमोसेपियन का उदय हिमयुगों की आवाजाही के बीच आज से लगभग 40 हजार से लेकर 30 हजार साल पहले के किसी काल में हुआ। यह चौथे हिम युग का अंतिम दौर था। आज से दस हजार साल पहले चौथा हिमयुग समाप्त हो गया और गर्म युग की शुरुआत हुई। इस गर्म युग में ही आदमी ने तेजी से अपना मानसिक विकास किया और उसने कृषि, पशुपालन तथा समाज को व्यवस्थित किया। भारतीय भूभाग में जलवायु परिवर्तन का इतिहास वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में देखा जा सकता है। यदि बराक हुसैन ओबामा और उनके देश के वैज्ञानिक इन वेदों और पुराणों को पढें तो उन्हें ज्ञात हो सकेगा कि धरती पर जलवायु परिवर्तन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। वैदिक काल में सरस्वती नदी एक चौÞडे महानद के रूप में प्रवाहित होती थी। वह स्थान-स्थान पर सर अर्थात् झील बनाकर चलती थी। उन झीलों में से कुछ को कुरुक्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। इनमें से एक को महाभारत काल में ब्रह्म सरोवर कहा गया है जिसमें महाभारत के युद्ध के बाद धृतराष्ट्र ने मृतक पुत्रों एवं पौत्रों का तर्पण किया। आज उन्हीं सरोवरों को कुण्ड कहा जाता है। वैदिक काल में इसी सरस्वती की एक धारा राजस्थान में कालीबंगा तक बहकर आती थी और यह क्षेत्र सारस्वान कहलाता था। जब सरस्वती लुप्त हुई और कालीबंगा की सभ्यता नष्ट हुई उस समय मानव जनित कार्बन उत्सर्जन की मात्रा शून्य थी। यदि कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि ही धु्रवों और ग्लेशियरों के पिघलने का कारण है तो फिर सरस्वती के ग्लेशियर कैसे नष्ट हुए! कालीबंगा क्यों उजड गया! कोई बराक हुसैन ओबामा और उनकी वैज्ञानिक टीम से इन सवालों के जवाब पूछे ताकि कोपेनहेगन में वह अपना विश्वव्यापी खेल खेलकर विकासशील देशों में प्रगति के पहिये पर ब्रेक लगाने की अपनी योजना को अंजाम न दे सकें। अपने पाठकों की जानकारी के लिये हम भारतीय पुराणों के वे संदर्भ अगली दो कड़ियों में लिखेंगे जिनमें जलवायु परिवर्तन का इतिहास लिखा हुआ है।

विकासशील देशों में प्रगति का पहिया रोकना चाहते हैं धनी देश!

दुनिया भर के देशों ने आज से 20 साल पहले रियो दी जेनरो में तथा 10 साल पहले क्योटो में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किये थे जिनमें संसार के लगभग सभी देशों ने जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये सर्वमान्य संधियां की थीं। क्योटो संधि 2012 में समाप्त हो रही है। इसलिये आज से 18 दिसम्बर तक कोपेनहेगन में फिर से पृथ्वी सम्मेलन आयोजित हो रहा है जिसमें दुनिया के देशों द्वारा एक नई संधि की जायेगी जिसके तहत सभी देशों को आगामी दस सालों में कार्बन उत्सर्जन में एक निश्चित कमी लाने का संकल्प व्यक्त करना है। यह आयोजन ठीक वैसा ही प्रतीत होता है जैसा कि भारतीय पुराणों में मायावी असुरों एवं सरल-चित्ता सुरों द्वारा किये गये समुद्र मंथन का वर्णन मिलता है। कोपेनहेगन मंथन में अमरीका और यूरोप के विकसित देश मायावी असुरों की भूमिका में हैं तथा भारत एवं उसके जैसे विकासशील देश देवताओं की भूमिका में हैं। मायावी असुर अपनी ताकत पर कूद रहे हैं जबकि देवताओं को शरणागत वत्सल विष्णु और विषपायी शिव-शम्भू का भरोसा है।
मायावी असुरों और सरल-चित्ता सुरों के मध्य समुद्र मंथन का आयोजन अमृत प्राप्ति के लिये किया गया था किंतु दोनों ही पक्ष इस बात से अनजान थे कि अमृत के साथ-साथ इसमें से देवी लक्ष्मी, धनवन्तरि, चंद्रमा, कौस्तुभ, उच्चैश्रवा:, कामधेनु एवं ऐरावत जैसी सम्पदायें और विष एवं वारुणि जैसी विपदायें भी निकलेंगी और इन्हें कौन लेगा! जबकि कोपेनहेगन में में तो झगडा ही इस बात पर होना है कि र्इंधन चालित मशीनों से निकलने वाले कार्बन उत्सर्जन रूपी विष को कौन पियेगा! धनी देश चाहते हैं कि उनके द्वारा निकाले गये विष को विकासशील देश पी लें। जब इंधन से चलने वाली मशीनें काम करती हैं तो विकास का पहिया आगे बढता है तथा अपने पीछे कार्बन डॉई आक्साइड, कार्बन मोनो आॅक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन जैसे विषैले उत्सर्जन छोड जाता है। इन गैसों से धरती का वातावरण गरम होता है जिससे ग्लेशियरों और ध्रुवों की बर्फ पिघलती है तथा समुद्रों का जलस्तर बढता है। परिणामत: किनारों पर बसे देश पानी में डूब जाते हैं। पिछले दिनों मालदीव अपने मंत्रिमण्डल की बैठक समुद्र में करके तथा नेपाल अपने देश की बैठक एवरेस्ट के बेस कैम्प में करके संसार को इस बात की चेतावनी दे चुके हैं कि यदि धरती का तापक्रम इसी तरह बÞढता रहा तो आने वाला भविष्य कैसा होगा!
इतिहास गवाह है कि जब से मनुष्य ने र्इंधन चालित मशीनों का निर्माण किया है, तब से यूरोप और अमरीका ने सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन किया है। यही कारण है कि आज यूरोप और अमरीका जगमगाती बिजलियों, सरपट दौडती सडकों, लम्बे पुलों और ऊँची भव्य मीनारों से सजे हुए हैं। इसके विपरीत पिछडे हुए अर्थात् विकासशील देशों में टूटी फूटी सडकों, अंधकार में बिलखते शहरों और गरीबी में सिसकते गांवों की उपस्थिति केवल इसलिये है क्योंकि वे र्इंधन चालित मशीनों का उपयोग प्रभूत मात्रा में नहीं कर पाये। आज विकसित देश अपनी समृद्धि के चरम पर हैं। उन्हें लगता है कि यदि विकासशील देशों ने उनकी बराबरी की तो विकसित देशों पर कहर टूट पÞडेगा। इसलिये वे रियो दी जेनरो और क्योटो पृथ्वी सम्मेलनों में विकासशील देशों को यह संदेश दे चुके हैं कि वे ईधन चालित मशीनों के पहियों की गति धीमी करें नहीं तो दुनिया समुद्र में डूब जायेगी तथा अब कोपेनहेगन में भी वे यही दोहराना चाहते हैं जिसका अर्थ है पंजाब के खेतों में चल रहे ट्रैक्टर बंद हो जायें, राजस्थान की सीमेंट फैक्ट्रियां बंद हो जायें, महाराष्ट्र के कपडे और बिजली के कारखाने बंद हो जायें नहीं तो आगामी पचास सालों में धरती के कई बडे शहर समुद्र के पेट में समा जायेंगे।

Wednesday, December 2, 2009

वो किचन में पेशाब करेगी, जय हो

अभी मेरे उस आलेख की स्याही सूखी भी नहीं है जिसमें मैंने लिखा था कि पति-पत्नी में से कोई एक घर में रहे। इधर देश के एक बड़े शहर से यह खबर आई है कि खाना बनाने वाली एक नौकरानी पर रसद सामग्री की चोरी करने का संदेह होने पर एक गृह-स्वामिनी ने अपने रसोईघर में एक गुप्त कैमरा लगाया और आठ दिनों तक उसकी हरकतों की रिकॉर्डिंग की। जब इस कैमरे की रिकॉर्डिंग देखी गई तो सबकी आंखें शर्म और घृणा से भर गर्इं। यह नौकरानी खाना बनाने के दौरान न केवल चावल, घी, चीनी तथा बना हुआ खाना खाती रहती थी अपितु वह जिस कपड़े से अपनी बहती हुई नाक साफ करती थी और पसीना पौंछती थी, उसी कपड़े में रोटियां लपेट कर टिफन में रखती थी। जिस पानी में वह गंदे हाथ धोती थी, उसी पानी में सब्जियां बनाती थी। इस रिकॉर्डिंग के घृणास्पद और शर्मनाक अंश वे थे जिनमें नौकरानी खाना बनाते हुए, वहीं खड़ी होकर पेशाब भी करती थी। पता नहीं कब से उस घर के लोग उसी किचन में बना हुआ खाना खा रहे थे जिसे उनकी नौकरानी ने पेशाब करने के दौरान बनाया था। आजाद भारत, समृद्ध परिवार और आधुनिक संस्कृति का यह कैसा वीभत्स दृश्य है! हो भी क्यों नहीं, हमें तो स्लमडॉग मिलेनियर को देखकर जय हो! गाने से फुर्सत ही कहाँ है! क्रिकेट के मैच में भारतीय खिलाड़ियों को जीतते हुए देखकर धरती को हिला देने वाले पटाखे फोड़ने से ही भला कहाँ फुर्सत है। राखी सावंत का अधनंगा और बेशर्म नाच देखकर पुलकित होने वाले हम भारतीय प्रतिदिन कम से कम एक घण्टा इस बात पर खर्च करते हैं कि बिग बॉस में राजू श्रीवास्तव औरतों के कपड़े पहन कर क्या भौण्डी हरकतें कर रहा है! मेरा दावा है कि यदि गृह स्वामिनी ने अपने टीवी को देखना छोड़कर अपनी रसोई को देखा होता तो वह नौकरानी किचन में पेशाब कतई नहीं कर सकती थी। क्रिकेट, टी. वी. के कार्यक्रम और नित्य होने वाले विवाह समारोहों में एकत्रित होने वाले हजारों लोगों की बदहवास भीड़ में खोकर हम स्वयं को आधुनिक समाज का हिस्सा समझते हैं, वस्तुत: यह बर्बादी की तरफ धकेले जाते समाज का चेहरा है न कि आधुनिक समाज का। बर्बादी की तरफ धकेला जाता हुआ भारतीय समाज बाजारवाद की हवस का शिकार हुआ है। यह हवस कभी पूरी नहीं होने वाली। जो आज लखपति है उसे करोड़पति और करोड़पति को अरबपति बनने की हवस है। इसलिये धोनी का क्रिकेट चलेगा, राखी सावंत का स्वयंवर चलेगा और अमिताभ बच्चन का बिग बॉस चलेगा। इन्हें चलाने के लिये बाजार विज्ञापन देगा, जिन्हें देखकर आप और हम जरूरत और बिना जरूरत का सामान खरीदेंगे। इस सामान को खरीदने के लिये अनाप-शनाप पैसे चाहियेंगे। पैसों के लिये आदमी और औरत दोनों कमाने के लिये घर से निकलेंगे और पीछे से नौकरानी किचन में पेशाब करेगी। जय हो!

Saturday, November 28, 2009

कोरिया कमा रहा है भारतीय इसबगोल से !

कोरिया में तैयार रेडियो, टीवी. टेपरिकॉर्डर कम्प्यूटर, मोबाइल चिप, कारों और पानी के जहाजों ने एशियाई, अफ्रीकी और यूरोपीय बाजारों में धूम मचा रखी है किंतु जब से चीन ने अपने यहाँ औद्योगिक क्रांति खड़ी की है, उसने सैंकडों कोरियाई कम्पनियों को अपने देश से बाहर निकाल कर खड़ा कर दिया है। जापानी तकनीक ने भी कोरिया को दुनिया भर के बाजारों में टक्कर दी है। ऐसी स्थिति में कोरिया के समक्ष दो ही उपाय बचे हैं, या तो वह अपनी कम्पनियों को दूसरे देशों में ले जाये या फिर वह कम्पनियाँ अपने ही देश में खड़ी करे और कुछ नये उत्पादों के साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उतरे। कोरिया ने ये दोनों ही उपाय किये। उसने अपनी सैंक ड़ों कम्पनियों को वियतनाम में उतार दिया। चीन से निकाली गई कम्पनियों को वियतनाम ने अपनी शर्तों पर प्रवेश दिया। आज कोरिया भारत से क च्च्ो माल के रूप में ईसबगोल, तिल, आयरन और कॉटन यार्न का जबर्दस्त आयात कर रहा है।
आज से लगभग सत्रह साल पहले मैंने लिखा था कि अमरीका में सुबह के नाश्ते की टेबल पर ईसबगोल के व्यंजनों का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि अमरीकियों में मोटापे की समस्या बढ़ रही है जिसके कारण वहाँ हृदय रोग, डायबिटीज आदि बीमारियों में जबर्दस्त वृद्धि हुई है। ईसबगोल में शरीर से वसा कम करने का अद्भुत गुण है। इसके सेवन से न केवल पेट की आंतें ढंग से काम करती हैं अपतिु शरीर से गंदा कॉलेस्ट्रोल बाहर निकलता है, मोटापा रुकता है और हृदय रोग से बचाव होता है। संसार का सर्वाधिक ईसबगोल भारत में होता है। पश्चिमी राजस्थान और उत्तरी गुजरात इसके बड़े केन्द्र हैं। जालोर, भीनमाल तथा रानीवाडा में सबसे अच्छी किस्म का ईसबगोल होता है। ऊँ झा में ईसबगोल की एशिया की सबसे बड़ी मण्डी है। कोरिया ने अमरीका में ईसबगोल की बढ़ती हुई मांग को पहचाना। उसने भारत से बड़ी मात्रा में ईसबगोल और तिल खरीदना आरंभ किया और उनसे कुकीज और बिस्किट बनाकर अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में उतार दिया। आज पूरे अमरीका में कोरियाई कुकीज का डंका बज रहा है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार की इस मांग को भारतीय व्यवसाई आसानी से कैच कर सकते थे किंतु उन्होंने इस अवसर को पहचाना ही नहीं। कोरिया एक ऐसा देश है जहाँ प्राकृतिक संसाधन न के बराबर उपलब्ध हैं। वह भारत से खरीदे गये कॉटन यार्न में सिंथेटिक रेशा मिलाकर कपड़ा तैयार करता है और दुनिया भर के देशों को बेच रहा है। इसी तरह भारत से खरीदे गये आयरन से वह बड़ी मात्रा में पानी के जहाज, मोटर वाहन और विद्युत उपकरण बनाकर दुनिया भर के बाजारों पर कब्जा बनाये हुए हैं।
हाल ही में कोरिया की अग्रणी कम्पनी पोस्को ने भारत के उड़ीसा प्रांत में लोहे का कारखाना डाला है। कुछ और भी कम्पनियाँ आ रही हैं। स्टील किंग लक्ष्मीनिवास मित्तल ने भी झारखण्ड में इस क्षेत्र में बड़ा निवेश किया है। जब चीन अपने यहाँ से कम्पनियों को निकाल रहा है तो हमें अपने कच्चे माल के निर्यात पर रोक लगाकर देश के भीतर ही माल तैयार करवाने और उसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में खपाना चाहिये। पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने वाले जोधपुर के युवा व्यवसाई तरुण जैन बताते हैं कि आज जापान जैसे देश दूसरे देशों में अपनी कम्पनियाँ लगवाने के लिये शून्य ब्याज पर धन उपलब्ध करवा रहे हैं तथा 15 प्रतिशत तक का अनुदान भी दे रहे हैं। सिडबी भी इस कार्य में सहयोग कर रहा है। भारत को इन अवसरों को पहचानना चाहिये और अपने देश के भीतर उपलब्ध श्रम संसाधनों और प्राकृतिक संसाधनों को खपाने के लिये नई औद्योगिक क्रांति को जन्म देने की पहल करनी चाहिये।

Tuesday, November 24, 2009

चीन बेच रहा है भारत के पत्थर !

चीनी बौना पूरी दुनिया को सामरिक मोर्चों पर तो नहीं खींच सका किंतु आर्थिक मोर्चों पर उसने पूरी दुनिया के घुटने टिकाने का निश्चय किया है। विगत एक दशक में उसने अपने देश के भीतर इतनी जबर्दस्त आर्थिक तैयारी की है कि अब उसे दुनिया में किसी की परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। प्रकृति से उसे विशाल भू-क्षेत्र, विशालतर प्राकृतिक संसाधन और विशालतम मानव जनसंख्या मिली है। उसने अपनी जनसंख्या को बोझ नहीं माना, न ही जनसंख्या के दैत्य को अपने ऊपर हावी होने दिया। उसने जनसंख्या को श्रम संख्या समझा और उन्हें देश के विशाल भू भागों में बन रहे बांधों, कारखानों, सड़कों और खानों में खपा दिया। कुछ दशक पहले तक चीन एक निर्धन देश था किंतु आज उसकी समृद्धि की चकाचौंध से सम्मोहित होकर अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन उसके समक्ष लम्बलेट हुए जा रहे हैं। वे ये तक भूल गये हैं कि अमरीका और चीन में सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा है। जोधपुर के युवा व्यवसायी तरुण जैन विगत दो दशकों से चीन, ताइवान, कोरिया, वियतनाम, बैंकाक, हांगकांग, टर्की तथा दुबई आदि देशों से पत्थर और हैण्ड टूल्स के आयात-निर्यात का व्यवसाय करते हैं। व्यापार के सिलसिले में उन्होंने कई बार इन देशों की यात्रा की है। वे बताते हैं कि उनके देखते ही देखते चीन के भीतर इतने जबर्दस्त आर्थिक बदलाव आये हैं कि आँखों से देखे बिना उन बदलावों की कल्पना तक करना कठिन है। एक समय था जब चीन में कोरियाई कम्पनियां काम करती थीं। आज चीन ने उन्हें निकाल बाहर किया है। चीन दुनिया भर के देशों से कच्चा माल खरीद रहा है, उसे अपने यहाँ प्रसंस्करित कर रहा है और दुनिया के दूसरे देशों को निर्यात कर रहा है। चीनियों के काम करने का तरीका इतना जबर्दस्त है कि दुनिया भर के व्यवसायी निर्यात के मोर्चे पर पिछड़ते जा रहे हैं। उदाहरण के लिये चीन के पत्थर व्यवसाय को देखा जा सकता है। भारत में अच्छी गुणवत्ता के ग्रेनाइट, संगमरमर, सैण्डस्टोन आदि कई प्रकार के पत्थर उपलब्ध हैं जिनका राजस्थान से लेकर तमिलनाडु तक बड़े स्तर पर उत्खनन होता है। भारत के द्वारा दशकों से बड़ी मात्रा में ग्रेनाइट एवं संगमरमर के तैयार स्लैब एवं टाइल आदि उत्पादों का दुनिया भर के देशों को निर्यात किया जाता रहा है। चीन भी पहले भारत से यह सामग्री मंगवाता था किंतु जब चीन ने अपनी जनसंख्या का श्रमिकीकरण किया तो उसने भारत से पत्थर के तैयार उत्पाद मंगवाने के स्थान पर भारत से भारी मात्रा में पत्थर के ब्लॉक मंगवाने आरंभ किये। चीन इस पत्थर से टाइल, स्लैब, दरवाजों की चौखटें, फव्वारे, कुण्डियां आदि बनाकर दुनिया के दूसरे देशों को बेच रहा है। जहाँ पहले भारतीय व्यवसायी अपने देश में तैयार माल दूसरे देशों को बेचते थे आज चीन ने आगे आकर भरतीय व्यवसाइयों को पीछे धकेल दिया है। भारतीय व्यवसाई हैरान हैं कि देखते ही देखते यह क्या हुआ? क्यों भारतीय व्यवसाई, भारतीय पत्थर से भारत के भीतर प्रसंस्करित सामग्री को विश्व के बाजार में नहीं बेच पा रहे? क्यों चीन भारत से पत्थर खरीद कर उसे प्रसंस्करित करके दुनिया के हर देश में बेच पा रहा है? भाव, गुणवत्ताा, समय पर डिलीवरी, भुगतान आदि हर मोर्चे पर भारतीय व्यवसायी चीन से मुँह की खा रहे हैं। भारतीय इसी में खुश हैं कि चलो चीन हमसे पत्थर तो खरीद रहा है जिससे वैदेशिक मुद्रा प्राप्त हो रही है। होना तो यह चाहिये था कि भारत अपने देश से पत्थरों के ब्लॉक्स के निर्यात पर रोक लगाता तथा दुनिया को केवल तैयार सामग्री ही बेचता। इससे भारत के भीतर लोगों को रोजगार मिलता, भारतीय आय में वृद्धि होती तथा चीन अंतर्राष्ट्रीय बाजार से भारतीय व्यवसाइयों को हरगिज नहीं धकेल सकता था।

Thursday, November 19, 2009

पति पत्नी में से कोई एक घर पर रहे !

लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन ने भारत की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को विशव में सर्वश्रेष्ठ माना है। नि:संदेह उनके द्वारा यह निष्कर्ष भारत के बहुसंख्य परिवारों को देखकर निकाला गया है। भारत के बहुसंख्य परिवार, परम्परागत परिवार हैं जो सनातन सामाजिक व्यवस्था पर आधारित हैं। सनातन भारतीय परम्परा में स्त्री और पुरुष की भूमिकाएं सुस्पष्ट हैं। उसमें किसी तरह का संशय, विवाद, स्पर्धा, तुलना, असुरक्षा जैसी नकारात्मक बातों को स्थान नहीं दिया गया है। परस्पर प्रेम, विश्वास, समर्पण, श्रद्धा और सेवा के संस्कार ही इस सनातन सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्था का ताना-बाना तैयार करते हैं।
इस व्यवस्था में न तो अधकचरी उम्र में प्रेम के पीछे पागल होकर आग से जलने या जहर खाकर मरने की आवश्यकता है, न अपने पालक माता -पिता से छिप कर अंधी गलियों में भाग जाने और दैहिक शोषण का शिकार होने की संभावना है और न दो-तीन साल के लघु वैवाहिक जीवन के बाद तलाक के लिये कचहरियों के चक्कर लगाने की विवशता है। माता-पिता अपने व्यस्क बच्चों के लिये एक परिवार का निर्माण करते हैं। बेटी को हल्दी भरे हाथों से ससुराल के लिये विदा करते हैं। मंगल गीत गाये जाते हैं और बहू को मेहंदी भरे हाथों से घर की देहरी में प्रवेश दिया जाता है। बहू अपने पूर्वजों की संस्कृति को आगे बढ़ाती है, वंश बढ़ता है और परिवार की सनातन व्यवस्था आगे चलती है।
ऐसी सामाजिक व्यवस्था लगभग पूरे एशिया में थी जिसका प्रणयन भारतीय संस्कृति से हुआ था। जापान, चीन, श्रीलंका, बर्मा, बाली, सुमात्रा, जावा, इण्डोनेशिया, श्याम आदि देशों में आज भी मोटे रूप में इसी सनातन भारतीय परम्परा और संस्कृति पर आधारित परिवारिक संरचना विद्यमान है किंतु सुरसा की तरह बढ़ता हुआ पूंजीवाद भारतीय पारिवारिक संरचना और सामाजिक व्यवस्था के लिये खतरा बन गया है। परिवारों को आज अधिक पैसे की आवश्यकता है इसलिये पति-पत्नी दोनों ही कमाने को निकल पÞडे हैं। शिशु क्रेच में छोडेÞ जा रहे हैं, बच्चे डे बोर्डिंग में डाले जा रहे हैं, बूढ़ो को वृद्धाश्रमों में धकेला जा रहा है और बीमारों को पाँच सितारा होटलों जैसे अस्पतालों में भेजा जा रहा है।
क्रेच, डे बोर्डिंग, वृद्धाश्रम और महंगे अस्पतालों में भारी पूंजी लगती है। फिर भी बच्चों, बूÞढों और रोगियों को वैसा प्रेम, समर्पण और सहारा नहीं मिलता, जैसा कि उन्हें मिलना चाहिये। यदि पति-पत्नी में से कोई एक कमाने जाये और दूसरा घर पर रहकर बच्चों, बूढों और बीमारों की देखभाल करे तो घर को सुरक्षा भी मिलती है और परिवार को चलाने के लिये कम पूंजी की आवयकता होती है। जब पति-पत्नी दोनों ही कमाने जाते हैं तो परिवार के दूसरे सदस्यों को कई तरह के मन मारने पड़ते हैं। पारिवारिक और सामाजिक आयोजनों में दोनों ही छुट्टियों के लिये तरसते हैं।
पति-पत्नी दोनों ही कमाने चल देते हैं तो बूढेÞ माता-पिता को शिशुओं और छोटे बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी दे दी जाती है। परिवार उनके लिये बोझ बन जाता है। यदि घर में बड़े बूढेÞ नहीं हैं तो बच्चों नौकरों के पास रहते हैं जहाँ वे पूरी तरह असुरक्षित होते हैं और नौकरों की बदमाशियों के शिकार होते हैं। आरुषि हत्याकाण्ड ऐसी ही बच्ची की दारुण गाथा है। यदि पारिवारिक जीवन का आनंद और सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी चाहिये तो पति-पत्नी में से एक घर पर रहे। इससे पूरे समाज को सुरक्षा मिलेगी, अपराध घटेंगे और बेरोजगारी तो पूरी तरह समाप्त हो जायेगी। प्रत्येक परिवार स्वयं तय कर ले कि कमाने कौन जायेगा और घर पर कौन रहेगा! लेगटम रिपोर्ट से केवल यही सबक मिलता है।

Wednesday, November 18, 2009

अधिक पूंजी मनुष्य की सामाजिकता को नष्ट कर देती है !

लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन ने भारत को उसके पड़ौसी देशों अर्थात् चीन, पाकिस्तान, बर्मा, बांगलादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान और नेपाल की तुलना में अच्छी प्रशासनिक, सामाजिक एवं पारिवारिक स्थिति वाला देश ठहराया है। इससे हमें फूल कर कुप्पा होने की आवश्यकता नहीं है। कई बार अकर्मण्य पुत्र अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित सम्पदा के बल पर धनी कहलवाने का गौरव प्राप्त करते हैं, ठीक वैसी ही स्थिति हमारी भी हो सकती है। भारतीय समाज और परिवार के भीतर सब-कुछ ठीक नहीं चल रहा है। भारतीय समाज और परिवार अब तक तो पूर्वजों द्वारा निर्धारित नैतिक मूल्यों के दायरे में जीवन जीते रहे हैं और सुख भोगते रहे हैं किंतु जब नैतिक मूल्यों का स्थान पूंजी ले लेगी, तब भारतीय समाज और परिवारों के भीतर कष्ट और असंतोष बÞढते चले जायेंगे। कुछ लोग हैरान होकर पूछते हैं कि कम पूंजी में सुखी कैसे रहा जा सकता है? उनके विचार में तो मनुष्य के पास जितनी अधिक पूंजी बढ़ेगी, उतना ही वह सुखी रहेगा। लोगों के चिंतन में आई यह विकृति हमारी शिक्षा पद्धति का दोष है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था और परिवार नामक संस्था के विरुद्ध, राष्ट्र के भीतर और बाहर जो षड़यंत्र रचे गये हैं, उनका ही परिणाम है कि अधिकांश भारतीय परिवार पूंजी के पीछे पागल होकर बेतहाशा दौड़ पडेÞ हैं।संसार में मनुष्य ही एकमात्र प्राणी नहीं है, करोडों तरह के जीव जंतु हैं। उनमें से कोई भी पूंजी का निर्माण नहीं करता, संग्रह भी नहीं करता। फिर भी वे ना-ना प्रकार के श्रम करते हैं और भोजन के रूप में आजीविका प्राप्त करते हैं। बिना पंूजी के वे प्रसन्न कैसे रहते हैं, क्या केवल भोजन प्राप्त कर लेना ही उनके लिये एकमात्र प्रसन्नता है? हमारा सनातन अनुभव और नूतन विज्ञान दोनों ही बताते हैं कि पशु-पक्षियों, कीट पतंगों, सरीसृपों और मछलियों में भी सामाजिक जीवन होता है जिसके आधार पर वे एक दूसरे का सहारा बनते और सुखी रहते हैं। यह सही है कि पूंजी का निर्माण किये बिना मनुष्य का सामाजिक जीवन लगभग असंभव है किंतु यह भी सही है कि अधिक पूंजी का विस्तार मनुष्य की सामजिकता को नष्ट कर देता है।श्रीमती इंदिरा गांधी लगभग 17 साल तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। उन्होंने देश के संविधान की भूमिका में भारत के नाम के साथ समाजवादी शब्द जोÞडा (न कि पूंजीवादी)। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे स्वतंत्र भारत के सामाजिक ढांचे को सुरक्षित रखने के लिये चिंतित थीं और उन्हें ज्ञात था कि दुनिया हमारे समाजिक ढांचे को चोट पहुंचाने के भरपूर प्रयास करेगी। दु:ख की बात यह है कि विगत दशकों में भारत का सामाजिक ढांचा कमजोर हुआ है तथा परिवारों में टूटन बढ़ी है। आम आदमी के नैतिक बल में कमी आने से समाजिक स्तर पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार, विवाहेत्तर सम्बन्ध, सम्पत्तिा हरण, कमीशनखोरी, सÞडक दुर्घटनाएं, बलवे, साम्प्रदायिक उन्माद, फतवे, आतंकवादी हमले, नकली नोटों का प्रचलन, राहजनी, सेंधमारी, चेन स्नैचिंग, नक्सलवाद आदि बुराइयों का प्रसार हुआ है। इसी तरह परिवारों के भीतर घर के सदस्यों की हत्याएँ, उत्पीड़न, तलाक, बच्चों के पलायन, मदिरापान, विषपान, आत्महत्या जैसी बुराइयों का निरंतर प्रसार हुआ है। हम भीतर ही भीतर खोखले हो रहे हैं। यही कारण है कि लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन की रिपोर्ट में भारत को 104 देशों की सूची में से 47वां स्थान मिला है। यह काफी नीचे है और भय है कि आने वाले दशकों में हम 47 से और नीचे न खिसक जायें। यह सोचकर प्रसन्न होने का कोई लाभ नहीं है कि चीन को हमसे काफी नीचे, 75वां स्थान मिला है।

Monday, November 16, 2009

यह आग तो हमारा घर भी फूंक देगी

लंदन से जारी हुई लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की जो उज्जवल सामाजिक और पारिवारिक तस्वीर खींची गई है, उसे बदरंग करने के लिये देश के भीतर विगत कई वर्षों से कला एवं संस्कृति की आड़ में, नारी मुक्ति और स्त्री स्वातंत्र्य के नाम पर घिनौने खेल खेले जा रहे हैं। एक दशक पहले दीपा मेहता ने भारतीय महिलाओं में समलैंगिकता की फायर लगाने का प्रयास किया। लखनऊ में गोमती नदी के किनारे इस फिल्म यूनिट का भारी विरोध हुआ। फिल्म के सैट नदी में फैंक दिये गये किंतु दीपा मेहता फिल्म बनाने पर अडी रहीं। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्ता ने इस यूनिट को पैक एण्ड गो के आदेश दिये। दीपा मेहता यूपी से तो चली गर्इं किंतु यह फिल्म बनकर रही। दीपा मेहता और शबाना आजमी ने इस फिल्म में समलैंगिक गृहणियों की भूमिका निभाई। यह फिल्म कैसा भारत बनाना या दिखाना चाहती थी!
इस तरह की फिल्मों को बनाने वाले, नारी मुक्ति की बात करने वाले, समलैंगिकता का आंदोलन चलाने वाले और देश की नसों में जहर घोलने वाले लोग वही हैं जो हर बात में महात्मा गांधी को ढाल की तरह इस्तेमाल करते हैं। महात्मा गांधी ने तो यह कहा था कि दम्पत्ति संतानोत्पत्ति के लिये ही निकट आयें, अन्यथा ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करें। गांधी की दृष्टि में आनंद प्राप्ति के लिये किया गया सैक्स तो हिंसा थी। फिर ये लोग गांधी के देश में, गांधी की बातें करके समलैंगिकता का इतना बड़ा आंदोलन खड़ा करने में कैसे कामयाब हो जाते हैं कि उन्हें कानूनी मान्यता तक मिल जाये!
कुछ और भी ऐसे कानून खड़े किये जा रहे हैं जिनकी आवश्यकता पाश्चात्य जीवन शैली के अभ्यस्त लोगों के लिये तो ठीक होती होगी किंतु भारतीय संस्कृति और समाज में उनके कारण बिखराव आयेगा। ऐसे कानून भारतीय समाज और परिवारों की शांति किस भयानक तरीके से भंग करेंगे इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। एक कानून ऐसा भी है कि जब किसी औरत के साथ कोई सहकर्मी, मित्र या अपरिचित पुरुष घर में आये तो घर के सदस्य उससे यह तक नहीं पूछ सकते कि यह कौन है और तुम्हारे साथ क्यों आया है? नारी स्वातंत्र्य की रक्षा करने के लिये यह कैसा कानून रचा गया है! यह भारतीय परिवारों को बिखेरने और समाज की शांति भंग करने के लिये रचा गया अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र नहीं तो और क्या है!
जब आग दूर लगती है तो हम इस बात से प्रसन्न होते हैं कि चलो अच्छा हुआ हमारा घर तो नहीं जलेगा किंतु विनाशकारी आग कभी स्वत: नहीं रुकती। उसे प्रयास करके रोकना पड़ता है अन्यथा वह एक न एक दिन हमारे घर तक चली ही आती है। सोचिये वह कैसा भारत होगा जिसमें हमारी बहू बेटियाँ, बड़ी-बूढ़ियों से दूधों नहाओ, पूतों फलो का आशीर्वाद लेने की बजाय समलैंगिक यौनाचरण करेगी और कानून से अनुमति मिली हुई होने के कारण हम उन्हें ऐसा करने से रोक भी नहीं सकेंगे! यदि ऐसा हुआ तो फिर लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन किस भारत की कैसी तस्वीर प्रस्तुत करेंगे!

Sunday, November 15, 2009

दुनिया की आंखों में कांटे की तरह गड़ती है भारत की पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था!

लंदन से जारी हुई लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की जिस सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को विश्व में सबसे अच्छी बताया गया है, उसे विनष्ट करने के लिये पूरी दुनिया ताल ठोक कर खड़ी हुई है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था अपने आप में कितनी अद्भुत है और शेष विश्व की सभ्यताओं से कितनी भिन्न है। चूंकि दूसरे देश इस प्रकार की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकते जिसमें आदमी को सुखी जीवन जीने के लिये कम पूंजी की आवश्यकता होती हो, इसलिये वे भारत की अथाह सम्पदा को व्यापार के नाम पर लूटना चाहते हैं किंतु परम्परागत भारतीय सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था के चलते वे भारत के लोगों से अरबों खरबों की सम्पत्ति नहीं लूट सकते। यही कारण है कि भारतीय सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था पूरी दुनिया की आँखों में कांटे की तरह गड़ती है।
आज से कुछ साल पहले भारत की दो-तीन लड़कियों को अचानक ही विश्व सुंदरी और ब्रह्माण्ड सुंदरी बनाने का विश्वव्यापी नाटक रचा गया था। इन सुंदरियों ने टीवी के पर्दे से लेकर सिनेमा और प्रिण्ट मीडिया में नारी देह को भड़कीला बनाने वाली सामग्री का अंधाधुंध प्रचार किया और अपनी अधनंगी देह के सम्मोहन को औजार की तरह काम में लिया जिसके कारण पश्चिमी देशों के बड़े-बड़े व्यापारी भारत से अरबों खरबों रुपये कमा कर ले गये और आज भी ले जा रहे हैं। सुंदरियों की अचानक आई बाढ़ के कारण बहुत से भारतीय माता-पिताओं ने अपनी लड़कियों को फैशन परेडों, ब्यूटी कांटेस्टों और रियलिटी शो नामक बेशरम तमाशों की तरफ धकेल दिया। इन चक्करों में पड़ कर न जाने कितनी लड़कियों का दैहिक शोषण हुआ। सामाजिक बदनामी से बचने के लिये लड़कियों ने अपनी अस्मत लुटाकर भी चुप रहना स्वीकार किया। जो कहानियाँ समाज के समक्ष आर्इं वे तो एक प्रतिशत भी नहीं रही होंगी। कुछ स्टिंग आॅपरेशनों ने ऐसे दैहिक शोषणों के मकड़जाल की छोटी सी झलक देश के लोगों को दिखाई थी।
भारतीय पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के लिये टी वी सीरियल पूरी ताकत के साथ आगे आये। इन धारावाहिकों में एक अलग ही तरह का भारत दिखाया गया जहाँ बहुएँ अपनी सास के विरुद्ध और सास बहुओं के विरुद्ध षड़यंत्र करती हैं। सगे भाई एक दूसरे की इण्डस्ट्री पर कब्जा करने की योजनाएं बना रहे हैं। बेटियां अपने पिता को शत्रु समझ रही हैं और ननद-भाभियां एक दूसरे की जान की दुश्मन बनी हुई हैं। पत्नियाँ धड़ल्ले से एक पति को छोÞडकर दूसरे से ब्याह रचा रही हैं। यह कैसा भारत है? कहाँ रहता है यह? मुझे अपने गली, मौहल्ले में ऐसा भारत कहीं दिखाई नहीं देता। फिर भी कुछ कम बुद्धि के लोग इन सीरियलों को रीयल लाइफ मानकर अपने दिमागों में अपने ही परिवार के सदस्यों के प्रति खराब धारणा बना कर बैठ गये हैं। ऐसे परिवारों में आई टूटन साफ देखी जा सकती है। यह टूटन अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक षड़यंत्रों का ही परिणाम है। यदि हमें सुखी रहना है तो इन अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्रों को पहचानकर अपने परिवारों को पूजी से नहीं मानसिक शांति से समृद्ध करने की पुरानी परम्परा पर लौटना होगा। लड़कियों के तन नहीं, मन सुंदर बनाने होंगे।

Saturday, November 14, 2009

भारत की पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था को बचाना होगा !

जोधपुर। लंदन से जारी हुई लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की सामाजिक व्यवस्था को विश्व में सबसे अच्छी बताया गया है। भारतीय समाज और परिवारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये कम खर्चीली जीवन शैली पर विकसित हुए हैं। घर, परिवार और बच्चों के साथ रहना, गली मुहल्ले में ही मिलजुल कर उत्सव मनाना, कीर्तन आदि गतिविधियों में समय बिताना, कम कमाना और कम आवश्यकतायें ख़डी करना, आदि तत्व भारतीय सामाजिक और पारिवारिक जीवन का आधार रहे हैं। इसके विपरीत पश्चिमी देशों की जीवन शैली होटलों में शराब पार्टियां करने, औरतों को बगल में लेकर नाचने, महंगी पोशाकें पहनने और अपने खर्चों को अत्यधिक बढ़ा लेने जैसे खर्चीले शौकों पर आधारित रही है।
आजकल टी. वी. चैनलों और फिल्मों के पर्दे पर एक अलग तरह का भारत दिखाया जा रहा है जो हवाई जहाजों में घूमता है, गर्मी के मौसम में भी महंगे ऊनी सूट और टाई पहनता है तथा चिपचिपाते पसीने को रोकने के लिये चौबीसों घण्टे एयरकण्डीश्नर में रहता है। घर की वृद्धाएं महंगी साड़ियाँ, क्रीम पाउडर और गहनों से लदी हुई बैठी रहती हैं। टीवी और सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाला यह चेहरा वास्तविक भारतीय समाज और परिवार का नहीं है। वह भारत की एक नकली तस्वीर है जो आज के बाजारवाद और उपभोक्तवाद की देन है।
आज भी वास्तविक भारत का बहुत बड़ा हिस्सा दिन भर धूप भरी सड़कों पर फल-सब्जी का ठेला लगाता है, सड़क पर बैठ कर पत्थर तोड़ता है, पेड़ के नीचे पाठशालायें लगाता है और किसी दीवार की ओट में खड़ा होकर पेशाब करता है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इन लोगों का योगदान, ए.सी. में छिपकर बैठे लोगों से किसी प्रकार कम नहीं है। इन्हीं लोगों की बदौलत कम खर्चीले समाज का निर्माण होता है। यदि इन सब लोगों को ए. सी. में बैठने की आवश्यकता पड़ने लगी तो धरती पर न तो एक यूनिट बिजली बचेगी और न बिजली बनाने के लिये कोयले का एक भी टुकड़ा। लेगटम प्रोस्पेरिटी इण्डेक्स में भारतीय समाज की इन विशेषताओं को प्रशंसा की दृष्टि से देखा गया है। भारतीय परिवार के दिन का आरंभ नीम की दातुन से होता था। आज करोड़ों लोग खड़िया घुले हुए चिपचिपे पदार्थ से मंजन करते हैं, इस स्वास्थ्य भंजक चिपचिपे पदार्थ को बेचकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हजारों करोड़ रुपये हर साल भारत से लूट कर ले जाती हैं।
पाश्चात्य संस्कृति की देन यह है कि हर बार पेशाब करने के बाद कम से कम पंद्रह लीटर फ्रैश वाटर गटर में बहा दिया जाता है तथा मल त्याग के बाद कागज से शरीर साफ किया जाता है। जो काम बिना पानी के हो सकता है, उसमें पानी की बर्बादी क्यों? और जो काम पानी से हो सकता है, उसके लिये फैक्ट्री में बना हुआ कागज क्यों? भारतीय समाज सुखी इसीलिये रहा है क्योंकि आज भी करोÞडों लोग पेशाब करने के बाद पंद्रह लीटर पानी गटर में नहीं बहाते और मल त्याग के बाद कागज का उपयोग नहीं करते। इस गंदे कागज के डिस्पोजल में भी काफी बड़ी पूंजी लगती है। जैसे-जैसे भारतीय समाज दातुन, पेशाब और मल त्याग की पश्चिमी नकल करने वालों की संख्या बढ़ेगी भारतीय समाज और परिवार को अधिक पूंजी की आवश्यकता होगी और उसकी शांति भंग होगी।

Friday, November 13, 2009

पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था ही हमारी पूंजी है!

इसी माह जारी लंदन की लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की पारिवारिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा गया है। वस्तुत: भारत की परिवार व्यवस्था संसार की सबसे अच्छी परिवार व्यवस्था रही है। भारतीय पति-पत्नी का दायित्व बोध से भरा जीवन पूरे परिवार के लिये समर्पित रहता है। इसी समर्पण से भारतीय परिवारों को समृद्ध और सुखी रहने के लिये आवश्यक ऊर्जा मिलती है। जबकि आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में पति-पत्नी एक बैरक में रहने वाले दो सिपाहियों की तरह रहते हैं, जो दिन में तो अपने-अपने काम पर चले जाते हैं, रात को दाम्पत्य जीवन जीते हैं और उनके छोटे बच्चे क्रैश में तथा बड़े बच्चे डे बोर्डिंग में पलते हैं। यह ठीक ऐसा ही है जैसे मेंढक अपने अण्डे पानी में छोड़कर आगे बढ़ जाता है, वे जानें और उनका भाग्य जाने।
पश्चिमी देशों की औरतें अपने लिये अलग बैंक बैलेंस रखती हैं। उनके आभूषणों पर केवल उन्हीं का अधिकार होता है। आर्थिक रूप से पूरी तरह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने के कारण उनमें अहमन्यता का भाव होता है और वे अपने पहले, दूसरे या तीसरे पति को तलाक देकर अगला पुरुष ढूंढने में अधिक सोच विचार नहीं करतीं। यही कारण है कि आज बराक हुसैन ओबामा का कोई भाई यदि केन्या में मिलता है तो कोई भाई चीन में। जब से ओबामा अमरीका के राष्ट्रपति बने हैं, तब से दुनिया के कई कौनों में बैठे उनके भाई बहिनों की लिखी कई किताबें बाजार में आ चुकी हैं। यही राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के मामले में भी यही हुआ था।
जापानी पत्नियां संसार भर में अपनी वफादारी के लिये प्रसिद्ध है। फिर भी जापान में एक कहावत कही जाती है कि पत्नी और ततभी (चटाई) नई ही अच्छी लगती है। यही कारण है कि जापानी परिवारों में बूढ़ी औरतों को वह सम्मान नहीं मिलता जो भारतीय परिवारों में मिलता है। भारत में स्त्री की आयु जैसे जैसे बढ़ती जाती है, परिवार में उसका सम्मान भी बढ़ता जाता है, उसके अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। भारत में स्त्रियां धन-सम्पत्ति और अधिकारों के लिये किसी से स्पर्धा नहीं करती हैं, जो पूरे परिवार का है, वही उसका है। पारम्परिक रूप से भारतीय औरत अपने लिये अलग बैंक खाते नहीं रखती है, उसके आभूषण उसके पास न रहकर पूरे परिवार के पास रहते हैं। वह जो खाना बनाती है, उसे परिवार के सारे सदस्य चाव से खाते हैं, बीमार को छोड़कर किसी के लिये अलग से कुछ नहीं बनता। जब वह बीमार हो जाती है तो घर की बहुएं उसके मल मूत्र साफ करने से लेकर उसकी पूरी तीमारदारी करती हैं। बेटे भी माता-पिता की उसी भाव से सेवा करते हैं जैसे मंदिरों में भगवान की पूजा की जाती है। पाठक कह सकते हैं कि मैं किस युग की बात कर रहा हूँ। मैं पाठकों से कहना चाहता हूँ कि भारत के 116 करोड़ लोगों में से केवल 43 करोड़ शहरी नागरिकों को देखकर अपनी राय नहीं बनायें, गांवों में आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है। शहरों में भी 80 प्रतिशत से अधिक घरों में आज भी परम्परागत भारतीय परिवार रहते हैं जहाँ औरतें आज भी संध्या के समय सिर पर पल्ला रखकर तुलसी के नीचे घी का दिया जलाती हैं और घर की बड़ी-बूढियों से अपने लम्बे सुहाग का आशीर्वाद मांगती हैं। ऐसी स्थिति में यदि लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट ने सामाजिक मूल्यों के मामले में भारत को संसार का पहले नम्बर का देश बताया है तो इसमें कौनसे आश्चर्य की बात है!

Thursday, November 12, 2009

लालसिंह कहां रहता है !

राज्य के सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशक डॉ. अमरसिंह राठौड़ बहुपठित व्यक्ति हैं। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन पत्रकारों के बीच व्यतीत किया है जिसका अर्थ होता है मानव जीवन और सभ्यता के हर कालखण्ड के अधिक से अधिक निकट रहना। भूतकाल को जान लेना, वर्तमान को हर कोण से परख लेना और समाज के भीतर भविष्य में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगा लेना। इतने सारे गहन अनुभव के साथ रविवार को सूचना केन्द्र में डॉ. राठौड़ ने जोधपुर के गणमान्य नागरिकों, समाज सेवियों, उद्योग प्रतिनिधियों एवं मीडिया प्रतिनिधियों के बीच एक चुटुकला सुनाया- एक दिन शराब के नशे में धुत्त एक व्यक्ति ने देर रात में एक घर का दरवाजा खटखटाया। एक वृद्धा के द्वारा दरवाजा खोलने पर उसने पूछा- माताजी! क्या आप जानती हैं कि लालसिंह कहाँ रहता है? वृद्धा ने कहा कि हाँ मैं जानती हूँ किंतु तुम क्यों पूछ रहे हो! तुम तो स्वयं ही लालसिंह हो? इस पर वह व्यक्ति बोला कि हाँ यह तो मैं भी जानता हूँ कि मैं ही लालसिंह हूँ किंतु मुझे अपना घर नहीं मिल रहा। अब मैं किसी का दरवाजा खटखटाकर उससे यह तो नहीं पूछ सकता कि बताईये मेरा घर कहाँ है!
सुनने में यह चुटुकला नितांत अगंभीर लग सकता है किंतु इस चुटुकले में आज के भारतीय समाज की बहुत बड़ी त्रासदी छिपी हुई है। आज हमारे बीच लाखों लालसिंह रहते हैं जो देर रात को नशे में धुत्त होकर घर पहुँचते हैं। घर के लोग उन्हें लेकर चिंतित तो रहते हैं किंतु घर में किसी को उनकी प्रतीक्षा नहीं होती। चिंतित इसलिये कि कहीं वे मार्ग में दुर्घटना के शिकार नहीं हो जायें। प्रतीक्षा इसलिये नहीं क्योंकि वे घर पहुंचते ही अपनी औरत और बच्चों के साथ मारपीट करते हैं। गंदी गालियां देते हैं और घर का पूरा वातावरण खराब कर देते हैं। पत्नी को समझ में नहीं आता कि वह ईश्वर से इस आदमी की लम्बी उम्र की कामना करे या उससे शीघ्र छुटकारा मिलने की। बच्चे जब तक छोटे होते हैं, सहमे हुए रहते हैं, उनकी पढ़ाई बरबाद हो जाती है और व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाता है। जब वे बड़े हो जाते हैं तो वे दूसरों के प्रति असहिष्णु और अनुदार हो जाते हैं जो आतंक उनके जीवन में उनके पिता ने मचाया होता है, उस आतंक का प्रतिकार वे दूसरों के जीवन में कष्ट घोलकर करते हैं। अधिकांश बच्चे तो केवल इसलिये शराब पीते हैं क्योंकि उनका पिता भी शराब पीता था। फिर उनके परिवार में भी वही सब कुछ घटित होता है जो उन्होंने अपने पिता के परिवार में देखा और भोगा था। इस प्रकार यह सिलसिला चलता रहता है। नशे में धुत्त सैंकड़ों लालसिंहों को हमने अक्सर सड़क के किनारे अर्द्धबेहोशी की अवस्था में गिरे हुए देखा होगा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे एक परिचित परिवार में दसवीं कक्षा के एक बच्चे ने केवल इसलिये जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसके पिता ने शराब पीकर उसकी माता को इतना पीटा था कि बच्चे से सहन नहीं हुआ। इस अपराध के लिये वह अपने पिता को किसी भी तरह दण्डित नहीं कर सकता था। इसलिये उसने अपने पिता को दण्डित करने का यह बेहद तकलीफदेह तरीका निकाला। बहुत से हंसते खेलते परिवार इस नर्क की भेंट चढ़ चुके हैं। ठीक ही है कि पहले आदमी शराब पीता है, फिर शराब शराब को पीती है और अंत में शराब आदमी को पी जाती है। डॉ. अमरसिंह राठौड़ की चिंता वाजिब है, हम किसी और को तो लालसिंह बनने से नहीं रोक सकते, कम से कम स्वयं को तो रोकें।

उनका क्या जो तपती भट्टी में कोयला झौंक रहे है

जोधपुर। कल हमने उल्लेख किया था कि सड़कों अथवा रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते हुए, रेलगाड़ियों में अपनी शर्ट से सफाई करते हुए, चाय की थड़ियों और रेस्टोरेंटों पर कप प्लेट धोते हुए, हलवाई की कढ़ाई मांजते हुए, कारखानों की भट्टियों में कोयला झौंकते हुए, लेथ मशीन पर लोहा घिसते हुए, वैल्डिंग करते हुए, कमठे पर पत्थर या रेत ढोते हुए, कचरे के ढेर से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए बच्चों की प्रतिभा कैसे कुंद हो जाती है। ऐसे बच्चे धनवान तो खैर हो ही नहीं सकते। केवल स्लमडॉग मिलेनियर में ही ऐसे बच्चे डॉलर और पौण्ड पर छपे राजा की तस्वीर पहचानते हैं और क्विज कंटेस्ट जीत कर मिलेनियर भी बन सकते हैं किंतु वास्तविक जीवन में यह लगभग नामुमकिन है कि वे करोड़पति हो जायें। यह अलग बात हंै कि अपराध की दुनिया में प्रवेश करके ये वह सब कुछ हासिल कर लें जो भारतीय हिंदी सिनेमा में दिखाया जाता रहा है। फिर भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे बच्चों को सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी पूंजी की आवश्यकता नहीं होती किंतु ये बच्चे अपना काम छोड़कर स्कूल नहीं जा सकते। यदि स्कूल जायेंगे तो खायेंगे क्या? यदि स्कूल में एक समय का पौषाहार मिल भी गया तो भी इन बच्चों के ऊपर अपने परिवार के दूसरे सदस्यों का पेट भरने की जिम्मेदारी भी होती है।इनमें से बहुत से बच्चे तो सालों तक नहाते भी नहीं। बरसात में प्राकृतिक स्रान हो जाये तो बात अलग है। उनके शरीर में से दुर्गंध आती है। उनके तन पर कपड़े या तो होते ही नहीं, यदि होते भी हैं तो मैले-कुचैले और फटे हुए। ऐसे बच्चों को कौन विद्यार्थी अपनी कक्षा में बैठने देगा! पहली बात तो अध्यापक भी ऐसे बच्चों को स्कूल में शायद ही प्रवेश दें। कौन जाने उस मैले-कुचैले और गंदे बच्चे से कौन सा इंफैक्शन दूसरे बच्चे को हो जाये! इनमें से बहुत से बच्चों को उनकी जातियों के आधार पर आरक्षण की सुविधा उपलब्ध होती है किंतु आरक्षण शब्द से वे जीवन भर परिचित नहीं होते। क्या होता है यह! किस काम आता है! कहा मिलता है! कैसे मिलता है! संविधान में उनके लिए आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है किंतु ये बच्चे उससे कोसों दूर है। यही वह भारत है जिसे समस्त संवैधानिक अधिकारों, न्यायिक उपचारों, विकास योजनाओं और विशाल शैक्षिक तंत्र के उपलब्ध होते हुए भी शिक्षा के समान तो क्या, असमान अवसर भी उपलब्ध नहीं हैं। भारत सरकार के अनुसार भारत में 5 से 14 करोड़ की आयु के 39 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से 2 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं जबकि अन्य एजेंसियां भारत में बाल श्रमिकों की संख्या 5 करोड़ बताती हैं। भारत सरकार के आंकड़ें को ही स्वीकार करें तो भारत में बाल श्रमिकों की कुल जनसंख्या आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर है और भारत की कुल जनसंख्या का पचासवां हिस्सा है। ये दो करोड़ बच्चे कभी स्कूल का मुंह नहीं देखते।

देश को राखी और संभावना की चिंता

जोधपुर। राज्य के सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशक डॉ. अमरसिंह राठौड़ गत सोमवार को एक बार फिर नगर के प्रबुद्ध नागरिकों, बुद्धिजीवियों, मीडिया प्रतिनिधियों और उद्योगपतियों को सम्बोधित कर रहे थे। अपने उद्बोधन में उन्होंने एक बड़ी जोरदार बात कही कि आज हमारे देश को सर्वाधिक चिंता संभावना सेठ और राखी सावंत की है। उन्होंने लोगों से सवाल पूछा कि संभावना सेठ और राखी सावंत का सामाजिक सरोकार क्या है? आखिर उन पर अखबारों और मैगजीनों के लाखों पृष्ठ खर्च किये जा चुके हैं। इस देश के करोड़ों नागरिकों ने उन्हें टी वी के विभिन्न चैनलों पर देखते हुए न जाने कितने घण्टे खराब कर दिये हैं। ऐसा है क्या उन दोनों में जो देश की इतनी सम्पत्ति, संसाधन और समय उनकी अधनंगी तस्वीरों, उनके फूहड़ कारनामों और उनके अरुचिकर संवादों पर न्यौछावर कर दिये गये! उन्होने यह भी पूछा कि आज हमारा सरोकार समाज की दो चार उन औरतों से ही क्यों रह गया है जो कपड़े पहनना नहीं चाहतीं, उस बड़े समाज से क्यों नहीं है जिसमें औरतों के पास पहनने के लिये कपड़े ही नहीं हैं। ऐसा लगता है जैसे हमारा सरोकार सिने तारिकाओं की अधनंगी तस्वीर, क्रिकेट के मैच और भ्रष्टाचार की चटखारे भरी खबर के अतिरिक्त और किसी चीज से नहीं रह गया है। माना कि देश में भ्रष्टाचार और अपराध भी हैं जिन्हें नहीं होना चाहिये किंतु हर समय उन्हीं की बातें करने से लोगों में हताशा फैलती है। देश में ईमानदार, मेहनतकश और देशभक्त लोग भी तो हैं, वे भी हमारी चर्चाओं में सम्मिलित होने चाहिये। देश में सामाजिक समस्याएं भी तो हैं। सिनेमा, क्रिकेट, भ्रष्टाचार और अपराध के साथ उन पर भी बात होनी चाहिये।
डॉ. राठौड़ की बातों को पारदर्शी करके देखना हो तो दीपक महान का वक्तव्य भी जान लेना चाहिये। दीपक सामाजिक विषयों की डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के सुप्रसिद्ध निर्माता निर्देशक हैं। उन्होंने जयपुर में हुए देश के सबसे बड़े अग्निकांड पर टिप्पणी की है कि जब तक समाज अपने दायित्व को भूलकर आईपीएल, बिग बॉस और शादियों में सीमित होकर रहेगा, इस तरह के हादसे होते रहेंगे। उनके उद्बोधन में जो व्यग्रता है उसे इस अग्निकाण्ड के परिप्रेक्ष्य में भलीभांति समझा जा सकता है। संभावना सेठ और राखी सावंत समाज के जिस वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं, उस वर्ग की औरतों को मुँह अंधेरे उठकर नगर की सड़कों पर कचरा नहीं बीनना पड़ता। यदि उन्हें यह काम दे दिया जाये तो वे कर भी नहीं सकेंगी किंतु जो औरतें आज मुँह अंधेरे कचरा बीन रही हैं, उन्हें यदि क्रीम पाउडर से पोतकर संभावना सेठ और राखी सावंत का काम दे दिया जाये तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दो-चार दिन के प्रशिक्षण के बाद उनके लिये वह कोई बड़ा काम नहीं होगा।
डॉ. राठौड़ के भाषण को मैं अपनी दृष्टि से देखता हूँ तो मुझे लगता है कि संभावना सेठ और राखी सावंत इस युग की ऐसी व्यावसायिक मजबूरियां हैं जो लिज हर्ले और दीपा मेहता की तरह समाज को अपने शरीर के अधनंगेपन और व्यर्थ के लटके-झटके में उलझाये रखने में माहिर हैं। वे मीडिया में सुर्खियां बनकर छायी रहती हैं, जिनके बल पर वे भारतीय संस्कृति को ताल ठोक कर चुनौती देती हैं और अधनंगेपन के सम्मोहन में बंधा भारतीय समाज उनके लिये बड़े बाजार का कार्य करता है। इस सम्मोहन का परिणाम यह होता है कि कुछ ही दिनों में वे सैंकड़ों करोड़ रुपयों की स्वामिनी बन जाती हैं और टी. वी. के पर्दे के सामने बैठा आम भारतीय छोटे पर्दे की चकाचौंध और अधनंगी देह के सम्मोहन में खोया रहता है।

क्यों है भारत विश्व में पैंतालीसवें नम्बर पर ?

लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा 79 मानकों को आधार मान कर विश्व के 104 देशों का रिपोर्ट कार्ड तैयार करवाया है उसमें भारत के लिये एक शुभ सूचना है। इन 104 देशों में विश्व की 90 प्रतिशत आबादी रहती है और इस सूची में भारत को पैंतालीसवां स्थान मिला है। सामाजिक मूल्यों के मामले में भारत को विश्व में पहले स्थान पर रखा गया है।
यदि 104 देशों की सूची में से विकसित समझे जाने देशों को निकाल दें और केवल विकासशील देशों की सूची देखें तो समृद्धि के मामले में भारत को प्रथम 10 शीर्ष देशों में स्थान मिला है। विश्व समृद्धि की सूची में भारत को 45वां स्थान मिला, यह शुभ सूचना नहीं है, शुभ सूचना यह है कि सकल विश्व को आर्थिक मोर्चे पर कडी चुनौती दे रहे चीन को 75वां स्थान मिला है। आगे बढ़ने से पहले बात उन मानकों की जिनके आधार पर यह रिपोर्ट कार्ड तैयार करवाया गया है। देश का सामाजिक ढांचा, परिवार व्यवस्था, मैत्री भावना, सरकार के आर्थिक सिद्धांत, उद्यमों के लिये अनुकूल वातावरण, विभिन्न संस्थाओं में लोकतंत्र, देश की शासन व्यवस्था, आम आदमी का स्वास्थ्य, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामाजिक मूल्य और सुरक्षा आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मानक हैं जिनकी कसौटी पर भारत संसार में 45वें स्थान पर ठहराया गया है और चीन 75वें स्थान पर।
भारत के अन्य पÞडौसी देशों- पाकिस्तान, बांगलादेश, अफगानिस्तान, बर्मा, श्रीलंका, नेपाल और भूटान आदि की स्थिति तो और भी खराब है। ऐसा कैसे हुआ? इस प्रश्न का उत्तार पाने के लिये एक ही उदाहरण देखना काफी होगा। पिछले दिनों जब चीन ने अपना 60वां स्थापना दिवस मनाया था तब राष्ट्रीय फौजी परेड में भाग ले रहे सैनिकों की कॉलर पर नुकीली आलपिनें लगा दी थीं ताकि परेड के दौरान सैनिकों की गर्दन बिल्कुल सीधी रहे। किसी भी नागरिक को इस फौजी परेड को देखने के लिये अनुमति नहीं दी गई थी।
लोगों को घरों से निकलने से मना कर दिया गया था, बीजिंग में कर्फ्यू जैसी स्थिति थी। लोग यह परेड केवल अपने टी.वी. चैनलों पर ही देख सकते थे। इसके विपरीत हर साल 26 जनवरी को नई दिल्ली में आयोजित होने वाली गणतंत्र दिवस परेड में भारत के सिपाही गर्व से सीना फुलाकर और गर्दन सीधी करके चलते हैं, हजारों नागरिक हाथ में तिरंगी झण्डियां लेकर इन सिपाहियों का स्वागत करते हैं और करतल ध्वनि से उनका हौंसला बढ़ाते हैं।
यही कारण है कि कारगिल, शियाचिन और लद्दाख के बर्फीले पहाड़ों से लेकर बाड़मेर और जैसलमेर के धोरों, बांगला देश के कटे फटे नदी मुहानों और अरब सागर से लेकर बंगाल की खाÞडी तक के समूचे तटवर्ती क्षेत्र में भारत के सिपाही अपने प्राणों पर खेलकर भारत माता की सीमाओं की रक्षा करते हैं। हमारी सरकार सैनिकों के कॉलर पर तीखी पिनें चुभोकर उनके कॉलर खड़े नहीं करती, देश प्रेम का भाव ही सिपाही की गर्दन को सीधा रखता है। भारत और चीन का यही अंतर हमें 45वें और चीन को 75वें स्थान पर रखा है।

Friday, November 6, 2009

धूप ही जिन्हें नसीब नहीं शिक्षा कहां से उपलब्ध हो

जोधपुर। शिक्षा के समान अवसर की वास्तविकता जाननी हो तो दिल्ली में चल रही इकाइयों में झांक कर देखना होगा। इन इकाइयों में 8 से 14 साल तक के बच्चे को काम दिया जाता है। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को यहाँ केवल दो-तीन सौ रूपयों में बेच जाते हैं। ये बच्चे दिन रात छोटी, बंद अंधेरी कोठरियों में रहकर कार्य करते हैं। वे दिन में काम करते हैं और रात को उन्हीं कोठरियों में सो जाते हैं। उन्हें कोठरियों से बाहर जाने की अनुमति नहीं होती। इन कोठरियों में बेहद गर्मी और गंदगी तो होती ही है, प्रकाश तथा आॅक्सीजन की भी कमी होती है। धूप न मिलने से इन बच्चोें की हड्डियों के समुचित विकास हेतु विटामिन डी तो बन ही नहीं पाता। जिन बच्चों के शरीर में स्थित हड्डियों के लिए धूप तक नहीं मिलती, उन शरीरों के मस्तिष्क के लिए शिक्षा कहाँ से उपलब्ध होगी। यदि ये बच्चे इन कोठरियों से निकलकर भागने का प्रयास करते हुए पकड़े जाते हैं तो उन्हें बेरहमी से पीटा जाता है। इतनी बेरहमी से कि अगली बार वे यहाँ से भागने के बारे में सोचें तक नहीं। इन बच्चों को यहाँ रोटी पानी मिलता है और वेतन के नाम पर 1 0 रूपये। सुनकर आत्मा सिहर जाती है। सुसभ्य और सुसम्पन्न कही जाने वाली स्त्रियाँ जब जरी के काम वाली साड़ियों को पहन कर शादी विवाह की रंग-बिरंगी रोशनियों में दम-दम दमकती होती है, फिल्मी गीतों की धुन पर ठुमके लगा रही होती हैं तब सुसभ्य और सुसम्पन्न समाज के किसी आदमी को उन बच्चों के बारे में कल्पना तक नहीं होती कि कितने मासूम बच्चों ने कितनी गंदी, तंग, अंधेरी कोठरी में बैठकर अपने छोटे-छोटे हाथों से इन जरी को तैयार किया है। जरी इकाइयाँ तो एक उदाहरण हैं। पॉटरी उद्योग और हैण्डीक्राफ्ट से लेकर जीवन के हर क्षैत्र में बालक शिक्षा से वंचित रहकर कार्य कर रहे हैं।
यहाँ एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि ये दो करोड़ बाल श्रमिक जो कभी स्कूलों का मुहँ नहीं देखते राष्टÑीय अर्थव्यवस्था पर भार नहीं हैं अपितु राष्टीय आय में उनका भारी योगदान है। ये केवल अपनी रोटी कमाते हैं अपितु अपने धनी मालिकों की जेबों में इतना रूपया भर देते हैं कि उस रूपये के बल पर धनी मालिक और नये कारखाने, उद्योग और व्यापारिक संस्थान राष्ट को आगे बढाने का कार्य करता है।
हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जब ये अशिक्षित, असंरक्षित और असुरक्षित मासूम बच्चे समाज की समपन्नता को इतना बढ़ा सकते हैं तो पढ लिख लेने पर और कार्य का समुचित प्रशिक्षण मिलने पर इनका समाज को जो योगदान होगा, वह कई गुना अधिक होगा।

Monday, November 2, 2009

कुंद होती बच्चों की प्रतिभा

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
जोधपुर। कल हमने उल्लेख किया था कि सड़कों अथवा रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते हुए, रेलगाड़ियों में अपनी शर्ट से सफाई करते हुए, चाय की थड़ियों और रेस्टोरेंटों पर कप प्लेट धोते हुए, हलवाई की कढ़ाई मांजते हुए, कारखानों की भट्टियों में कोयला झौंकते हुए, लेथ मशीन पर लोहा घिसते हुए, वैल्डिंग करते हुए, कमठे पर पत्थर या रेत ढोते हुए, कचरे के ढेर से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए बच्चों की प्रतिभा कैसे कुंद हो जाती है। ऐसे बच्चे धनवान तो खैर हो ही नहीं सकते। केवल स्लमडॉग मिलेनियर में ही ऐसे बच्चे डॉलर और पौण्ड पर छपे राजा की तस्वीर पहचानते हैं और क्विज कंटेस्ट जीत कर मिलेनियर भी बन सकते हैं किंतु वास्तविक जीवन में यह लगभग नामुमकिन है कि वे करोड़पति हो जायें। यह अलग बात हंै कि अपराध की दुनिया में प्रवेश करके ये वह सब कुछ हासिल कर लें जो भारतीय हिंदी सिनेमा में दिखाया जाता रहा है। फिर भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे बच्चों को सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी पूंजी की आवश्यकता नहीं होती किंतु ये बच्चे अपना काम छोड़कर स्कूल नहीं जा सकते। यदि स्कूल जायेंगे तो खायेंगे क्या? यदि स्कूल में एक समय का पौषाहार मिल भी गया तो भी इन बच्चों के ऊपर अपने परिवार के दूसरे सदस्यों का पेट भरने की जिम्मेदारी भी होती है।इनमें से बहुत से बच्चे तो सालों तक नहाते भी नहीं। बरसात में प्राकृतिक स्रान हो जाये तो बात अलग है। उनके शरीर में से दुर्गंध आती है। उनके तन पर कपड़े या तो होते ही नहीं, यदि होते भी हैं तो मैले-कुचैले और फटे हुए। ऐसे बच्चों को कौन विद्यार्थी अपनी कक्षा में बैठने देगा! पहली बात तो अध्यापक भी ऐसे बच्चों को स्कूल में शायद ही प्रवेश दें। कौन जाने उस मैले-कुचैले और गंदे बच्चे से कौन सा इंफैक्शन दूसरे बच्चे को हो जाये! इनमें से बहुत से बच्चों को उनकी जातियों के आधार पर आरक्षण की सुविधा उपलब्ध होती है किंतु आरक्षण शब्द से वे जीवन भर परिचित नहीं होते। क्या होता है यह! किस काम आता है! कहा मिलता है! कैसे मिलता है! संविधान में उनके लिए आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है किंतु ये बच्चे उससे कोसों दूर है। यही वह भारत है जिसे समस्त संवैधानिक अधिकारों, न्यायिक उपचारों, विकास योजनाओं और विशाल शैक्षिक तंत्र के उपलब्ध होते हुए भी शिक्षा के समान तो क्या, असमान अवसर भी उपलब्ध नहीं हैं। भारत सरकार के अनुसार भारत में 5 से 14 करोड़ की आयु के 39 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से 2 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं जबकि अन्य एजेंसियां भारत में बाल श्रमिकों की संख्या 5 करोड़ बताती हैं। भारत सरकार के आंकड़ें को ही स्वीकार करें तो भारत में बाल श्रमिकों की कुल जनसंख्या आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर है और भारत की कुल जनसंख्या का पचासवां हिस्सा है। ये दो करोड़ बच्चे कभी स्कूल का मुंह नहीं देखते।

Friday, October 30, 2009

घर बैठे चावल खरीद रहे हो तो सावधान

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
नित्य ही इस स्तंभ में मैं, परबीती की बात करता हू किंतु आज, आप बीती। कल दोपहर में जब मैं अपने कार्यालय में था, बच्चे अपने कॉलेज और स्कूल में थे। पिताजी किसी काम से बाजार के लिए निकले और घर में रह गई मेरी माताजी और धर्मपत्नी। गलियों में घूमकर चावल बेचने दो युवक और दो युवतियां मेरे घर आई। उन्होंने माताजी से अनुरोध किया कि चावल खरीद लें। चावल अच्छा दिख रहा था। थोड़ी देर के मोलभाव के बाद उन्होंने बीस रुपए किलो की दर पर चावल बेचना स्वीकार कर लिया। शर्त यह थी कि पूरा कट्टा खरीदना पड़ेगा।
इतने अधिक चावल की किसी परिवार को आवश्यकता नहीं होती। फिर भी इतना अच्छा और सस्ता दिख रहा था कि माताजी ने सोचा कि वे इसमें से कुछ चावल मेरे दो छोटे भाइयों और बहिन के परिवारों को भी दे देंगी और एक कट्टा चावल का सौदा हो गया। मेरी माताजी तथा धर्मपत्नी ने उनसे अनुरोध किया कि इस कट्टे को सामने की चक्की पर तुलवा देते हैं किंतु उन्होंने कहा कि वे घर में ही तोलेंगे। उन्होंने एक डिब्बे में चावल भर कर उन्हे तोला। एक डिब्बे में चार किलो चावल आया इसके बाद उन्होंने उस कट्टे में से 31 डिब्बे चावल भर कर एक दूसरे कट्टे में डाल दिए। इस प्रकार 124 किलो चावल हुए जिनके लिए मेरी माताजी और धर्मपत्नी ने उन्हे 2480 रुपए दे दिए। वे लोग रुपए लेकर चले गए।
जब कुछ देर पश्चात पिताजी लौटकर आए तो उन्हे बताया गया कि बीस रुपए किलो की दर से 124 किलो अच्छे चावल खरीदे हैं। पिताजी ने चावल देखे तो उन्होंने तुरंत भांप लिया कि ये चावल मात्रा में कम है। चावल फिर से तोले गए। कुल 47 किलो चावल बैठे। मेरी माताजी ने उन युवकों को चावल के डिब्बे भरते देखा था और धर्मपत्नी ने एक एक डिब्बे को कागज पर दर्ज किया था। फिर भी उन युवकों के हाथ में इतनी सफाई थी कि दो समझदार पढ़ी लिखी और अनुभवी महिलाएं बड़ी सरलता से उनके झांसे में आ गई। 47 किलो के वजन में 124 किलो चावल तोल देना तो कोई उच्च प्रकार की कीमियागिरी करने जैसी बात है। यह कैसे हुआ, इसे तो करने वाले ही जाने।
यह कहानी मेरे घर की है, किसी को इससे कोई लेना देना नहीं किंतु फिर भी मैंने इसलिए लिखी है कि यदि आज जोधपुर नगर में वे चावल बेचने वाले किसी और परिवार में यह हरकत करे तो वे सावधान हो जाए तथा पुलिस को सूचित को सूचित करके उन ठगों को पकड़वाए।

Wednesday, October 14, 2009

अधिक वेतन भ्रष्टाचार मुक्त समाज की गारंटी तो नहीं है!

पिछले आलेख- यह कहानी है निर्लज्जता, लालच और सीना जोरी की! पर तीन महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं मिलीं। पहली प्रतिक्रिया प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी अनिल अग्रवाल की है कि यह बात सही है कि देश को प्रतिभाओं की जितनी आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता राष्ट्रभक्तों की भी है। ऐसी प्रतिभायें किस काम की जो देश के आम आदमी के सुख-दुख से सरोकार न रखकर केवल अपने मोटे वेतन के लिये समर्पित हों। इस प्रतिक्रिया का सीधा-सीधा अर्थ यह है कि प्रतिभावान होना राष्ट्रभक्त होने की गारण्टी नहीं है। उनकी बजाय यदि मंद प्रतिभाओं के व्यक्ति राष्ट्रभक्त हों तो वे व्यक्ति किसी भी देश के लिये पहली पसंद हो सकते हैं। प्रतिभावान तो रावण भी था जिसने कुबेर से सोने की लंका छीन ली थी। प्रतिभावान तो मारीच भी था जो सोने का हिरण बन सकता था। प्रतिभावान तो सोने की आंखों वाला हिरण्याक्ष भी था जो धरती को चुराकर पाताल में ले गया था किंतु इनमें से कोई भी, मानव समाज के व्यापक हित के लिये समर्पित नहीं था। सबके सब अहंकारी, स्वर्ण के लालची और मानवता के शत्रु थे, इनमें से कोई भी राष्ट्रभक्त नहीं था! इसलिये राष्ट्र के लिये उपयोगी नहीं था। उनके विपरीत, प्रतिभावान राष्ट्रभक्त मणिकांचन योग की तरह राष्ट्र के सिर माथे पर शिरोधार्य किये जा सकते हैं। दूसरी प्रतिक्रिया मेरे मित्र बी. आर. रामावत की रही, जिन्होंने कहा कि भारत में जोगी तथा साटिया जैसी जातियाँ छोटे जानवरों के मांस से पेट भरकर तथा सपेरा और मदारी जैसी जातियाँ साँप तथा बंदर नचाकर भी इसलिये प्रसन्न रहती हैं क्योंकि भारत की संस्कृति का मूल आधार अभावों में भी प्रसन्न रहने का है। भारत का आम आदमी संतोषी है तथा भाग्य पर विश्वास करता है। वह किसी पर बोझ बनकर नहीं जीना चाहता और अपने दिन भर के परिश्रम का मूल्य दो वक्त की रोटी के बराबर समझता है। इसके ठीक विपरीत, अमरीका और यूरोप की संस्कृति यह है कि वहाँ का आम आदमी अपने देश की सरकार पर तथा कार्यशील समाज पर भार बना हुआ है। वहाँ की सरकारों को हर माह बेरोजगारी भत्ते के मद में वेतन के मद से अधिक रकम चुकानी पड़ती है।एक अज्ञात सुधि पाठक ने तीसरी आंख के ब्लॉग पर बड़ी रोचक प्रतिक्रिया दी है।
वे लिखते हैं- ठीक है, यह बात सही है कि गरीबों के देश में इतना वेतन लेना गलत है मगर वो वेतन के बदले काम तो करते होंगे? मगर उन भ्रष्टों का क्या जो कुछ समय में करोÞडपति हो जाते हैं??????? यह अपील उन लोगों से की जाती कि वेतन भत्तों के अलावा कुछ न लें। इस सम्बन्ध में मुझे केवल इतना ही कहना है कि आदमी को यह अवश्य तय करना चाहिये कि किसी भी आदमी के एक दिन के परिश्रम का अधिकतम पारिश्रमिक या वेतन कितना होना चाहिये। क्या उसकी कोई सीमा होनी चाहिये। जैसे न्यूनतम वेतन की सीमा है, वैसे ही अधिकतम वेतन की सीमा अवश्य होनी चाहिये। अमानवीय तरीके से निर्धारित किया गया वेतन भी भ्रष्टाचार से कम अहितकारी नहीं है।

Wednesday, October 7, 2009

यह कहानी है निर्लज्जता, लालच और सीना जोरी की !

अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने दुनिया भर की निजी कम्पनियों के अधिकारियों के वेतन को लालच की संज्ञा दी है। भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने निजी कम्पनियों से अपील की है कि मंदी के इस दौर में वे सादगी बरतें। भारत सरकार के कंपनी मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है कि कम्पनियां अपने उच्च अधिकारियों को इतना मोटा वेतन और भत्ताा न दें कि लोग उन्हें निर्लज्ज कहें। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा है कि जब दुनिया भर की सरकारों ने विश्व को मंदी के भंवर से बाहर निकालने के लिये 76 लाख करोड़ रुपये लगाए हैं तब निजी कम्पनियां ऐसा कैसे कर सकती है कि वे कुछ लोगों को जरूरत से ज्यादा वेतन दें। मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं किंतु भारत का सामान्य नागरिक होने के नाते यह सोचकर पीड़ा का अनुभव करता हूँ कि आज भी भारत में ऐसे लोग रहते हैं जो सीवरेज के मोटे पाइपों में जीवन बसर करते हैं और रात को कचरों के डम्पिंग यार्डों में सोते हैं। हिन्दुस्तान भर के रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों और मंदिरों के बाहर भिखारियों की लम्बी कतारें भूख से बिलबिलाती है। हजारों युवक चोरी चुपके अपना खून बेच कर और युवतियां तन बेचकर पेट भरते हैं। हर साल किसान और बेरोजगार युवक हताशा में आत्महत्या करते हैं। हजारों लोग सांप और बंदर नचा कर पेट भरते हैं। यह तो वह हिन्दुस्तान है जिसके बारे में हम जानते हैं। हिंदुस्तान का एक हिस्सा ऐसा भी है जो कभी-कभी ही हमारी आंखों के सामने आता है। आज से दस साल पहले नागौर जिले में साटिया नामक जाति के लोगों की निम्न जीवन शैली देखकर मेरी आंखें वेदना से भीग गई थीं। ये लोग पेट भरने के लिये जंगलों से खरगोश, गोह, सांप आदि छोटे जीवों तथा कबूतर एवं तोते आदि पक्षियों का शिकार करते थे। वे कच्चा मांस ही खाते थे और जितना मांस बच जाता था, झौंपड़ी की छत में छिपाकर रख देते थे और अगले समय वह इसी कच्चे मांस से पेट का गड्ढा भरते थे। यह सचमुच निर्लज्जता की बात है कि जिस देश में करोड़ों लोगों के जीवन यापन का इतना निम्न स्तर हो, उसी देश में कुछ लोगों का वेतन 50 करोड़ रुपये सालाना हो। उन्हें भारत के आम आदमी की औसत आय से साढ़े बारह हजार गुना कमाई होती हो। भारत में आज भी लगभग एक तिहाई जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करती है। लोग रेलों और बसों की छतों पर बैठकर यात्रा करते हैं और उपचार के अभाव में दम तोड़ देते हैं। भारत सरकार के सादगी के आह्लान के जवाब में उद्योग जगत तथा कार्पोरेट जगत ने यह कहकर देश के आम आदमी को निराश किया है कि यदि कम्पनी के अधिकारियों का वेतन कम किया गया तो देश से प्रतिभायें बाहर चली जायेंगी। तो क्या इस देश को केवल चंद प्रतिभायें ही चला सकती हैं जिनके बाहर चले जाने से देश ठप्प हो जायेगा! इस देश में प्रतिभाओं की कमी थोडेÞ ही है। क्या कुछ प्रतिभायें इस शर्त पर देश में रहना चाहती हैं कि यदि उन्हें पचास करोड़ रुपये सालाना नहीं मिले तो वे देश छोड़कर चली जायेंगी। ऐसी प्रतिभाएं किस काम की जो देश के आम आदमी को भूखा मार दें। देश को चलाने के लिये जितनी आवश्यकता प्रतिभाओं की होती है, उतनी ही आवश्यकता राष्ट्र भक्तों की होती है। हम यह नहीं कहते कि हमें उन प्रतिभाओं की आवश्यकता है जो गरीबी में दिन गुजारें किंतु हम यह अवश्य कहना चाहते हैं कि हमें उन प्रतिभाओं की आवश्यकता है जो देश के आम आदमी के सुख दुख की भागीदार बनें। किसी ने शायद ठीक ही कहा है- कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं।

Monday, October 5, 2009

ऐसी होनी चाहिए पत्नी और पति वैसा

पति दुखी हैं, परेशान हैं, अपनी ही पत्नियों के अत्याचार से दुखी होकर धरना दे रहे हैं। पत्नियों ने 498 ए का दुरुपयोग करके पतियों को इस हाल तक पहुंचाया है। इस लड़ाई में बहुतों के घर बरबाद हुए हैं। बहुत से बूÞढेÞ मां-बाप थाने के लॉकअप में बंद हुए हैं तो बहुत से जेल भी भुगत आये हैं। बहुत सी नणदें विवाह की उम्र को पार करके कुंआरी ही रह गई हैं क्योंकि उन पर भाभियों ने दहेज उत्पीड़न के आरोप लगाये हैं। बहुत से जेठ और देवर घरों से गायब हो गये हैं क्योंकि वे 498 ए के शिकंजे में फंसना नहीं चाहते। कुछ बहुओं ने अपने श्वसुर सहित गृह के पूरे परिवार को थाने के लॉकअप में बंद करवा दिया और कुछ श्वसुर इस सदमे से हार्ट अटैक से मर गये। कई पति हर तरह की ज्यादती सहन करने के बाद भी पत्नी को घर लाना चाहते हैं ताकि मुकदमे खत्म हों और उनके परिवार में शांति लौट सके। कुछ नौजवान अपनी गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा, पीहर जा बैठी पत्नियों को चुका रहे हैं और उस पत्नी के मां-बाप हर महीने की बंधी कमाई के लालच में बेटी को उसके ससुराल जाने नहीं देते। एक पति ने अपनी मां और पत्नी के झगड़े से तंग आकर पत्नी को चांटा मार दिया। पत्नी को चांटा इतना नागवार गुजरा कि वह अपने दो बच्चों को लेकर पीहर चली गई। अब पति हर महीने कोर्ट में रुपये जमा करवाता है। पत्नी गुमसुम है, उसके पीहर वाले उन रुपयों पर मौज कर रहे हैं।
यह तो रहा सिक्के का एक पहलू। दूसरा पहलू कल के अखबारों में ही देखा जा सकता है। सिरोही एवं जालोर जिले के अम्बाजी तथा ओटलावा गांवों में पतियों द्वारा अपनी पत्नियों को चाकू घोंपकर मार डालने की खबर छपी है। पतियों के आरोप हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी को किसी दूसरे पुरुष के साथ देख लिया था जबकि पत्नियों के घर वालों के आरोप हैं कि ये दहेज हत्या के मामले हैं। यह हो ही नहीं सकता कि दुनिया की सारी पत्नियां अपने पति को 498 ए में फंसा दें या दुनिया के सारे पति अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह करके उन्हें चाकू घौंप कर मार डालें। खराबी तो दोनों तरफ किसी में भी हो सकती है किंतु जब किसी एक पक्ष को कोई प्रबल सहारा मिल जाता है तो वह उसका दुरुपयोग करने से नहीं चूकता। खराबी 498 ए में नहीं है, खराबी उसके दुरुपयोग में है। 498 ए भारतीय समाज में औरत की कमजोर आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को देखते हुए बनी थी किंतु कुछ औरतों अथवा उनके मां-बाप ने उसका दुरुपयोग करके यह स्थिति पैदा कर दी है कि जिन औरतों को वास्तव में 498 ए के सहारे की आवश्यकता है, वे भी दूसरे पक्ष द्वारा संदेह के घेरे में ख़डी की जा रही हैं। संत तिरुवल्लुवर का एक प्रसिद्ध किस्सा है, किसी ने उनसे पूछा कि पत्नी कैसी होनी चाहिये! उन्होंने कहा कि अभी बताता हूँ और अपनी पत्नी को आवाज लगाई। पत्नी उस समय कुंए में से पानी खींच रही थी। जैसे ही उसने पति की पुकार सुनी, उसने कुंए से बाहर आती हुई पानी की भरी हुई बाल्टी छोड़ दी और तुरंत पति के पास पहुंचकर बोली, कहिये। संत ने प्रश्नकर्त्ता से कहा, पत्नी ऐसी होनी चाहिये। यह बताना भी आवश्यक होगा कि संत तिरुवल्लुवर जब भोजन करते थे तो एक सुंई अपने पास लेकर बैठते थे, यदि कोई चावल धरती पर गिर पड़ता था तो उसे सुंई से उठाकर खा लेते थे, ताकि पत्नी के हाथ से बने भोजन का अनादर न हो। पति भी ऐसा होना चाहिये। तभी समाज 498 ए के भय से मुक्त रह सकता है।

Saturday, October 3, 2009

गांवों की आत्मा पंचायतों में बसती है

पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि भारत गांधीजी के पीछे चलता है। गांधीजी ने लिखा है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। आजादी के 62 साल बाद का ज्वलंत सवाल ये है कि गांवों की आत्मा कहां बसती है ? मेरा मत है कि भारत की आत्मा पंचायतों में बसती है। वही पंचायतें जिनकी सुव्यवस्थित प्रणाली का उदघाटन आज ही के दिन आज से ठीक पचास साल पहले देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिला मुख्यालय पर किया था। इस हिसाब से हमारी पंचायतें पचास साल की प्रौढ़ा हो गर्इं किंतु पंचायतों की आयु का सही हिसाब लगाने से पहले हमें भारत के इतिहास में और गहराई तक झांकना होगा। भारत में पंचायतें राजन्य व्यवस्था के साथ उत्पन्न हुर्इं। अपितु यह कहा जाये कि राजन्य व्यवस्था भारतीय पंचायतों की ही देन थी तो कोई गलत नहीं होगा। पंचायत शब्द बना है पांच से। पांच लोग मिलकर जो कार्य करते थे उसे पंचों द्वारा किया गया काम माना जाता था। राजा का चयन भी पंच लोग मिल कर करते थे। आगे चलकर जब राजा अपने पुत्रों में से अपने उत्ताराधिकारी चुनने लगे तो भी यह कार्य पंचों की सहमति से होता था। रामायण काल में तो पंच व्यवस्था थी ही, गुप्त काल में भी यदि शासन के सर्वोच्च स्तर पर चक्रवर्ती सम्राट की व्यवस्था थी तो सबसे निचले स्तर पर पंचायतें ही थीं। मौर्य काल में भी यही व्यवस्था कायम थी। राजपूत राजाओं के शासन में भी पंचायतें किसी न किसी रूप में कार्यरत थीं।भारत की प्राचीन पंचायती व्यवस्था का आधार कानून नहीं था, समाज के परस्पर सहयोग और सहमति से चलने की भावना और जीवन के हर पल में समाया हुआ आनंद था। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि दशरथजी ने अपनी राजसभा में रामजी को युवराज घोषित करने की अनुमति इन शब्दों में मांगी- जौं पांचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका। इन शब्दों में पंचायती राज व्यवस्था का गूÞढ अर्थ छिपा है। वह अर्थ यह है कि पांच लोगों द्वारा हर्षित मन से बनाई गई शासन व्यवस्था ही प्रजा के लिये हितकारी होती है। इसीलिये तो दशरथजी राज्य के पांच प्रमुख लोगों से प्रार्थना करते हैं कि यदि आप को यह अच्छा लगे तो आप हर्षित होकर रामजी को टीका दीजिये। कहने का आशय यह कि आज की शासन व्यवस्था में यदि गांवों की आत्मा पंचायतों में बसती है तो पंचायतों को परस्पर सहयोग और समन्वय से, सबकी सहमति से, प्रसन्न मन से, आनंद पूर्वक गांवों की व्यवस्था चलानी चाहिये।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जब पंचायती राज व्यवस्था का शुभारंभ किया था तब उनके मन में यही कल्पना रही होगी कि गांव के लोग, सबकी सहमति से, सबके सहयोग और समन्वय से, सबकी प्रसन्नता के लिये ग्राम पंचायतों के माध्यम से अपने गांवों को विकास करेंगे। हम देखते हैं कि पिछले पचास सालों में पंचायतों का रूप निखरा है, वे ताकतवर हुई हैं, उन्हें ढेरों कानूनी अधिकार मिले हैं। अब यह तो पंचायतों के सोचने की बात है कि क्या वे परस्पर सहयोग, समन्वय, सहमति, प्रसन्नता और आनंद के आधार पर अपनी पंचायतें चला रही हैं या अभी हमारी पंचायतों को इस दिशा में आगे बढ़ना शेष है!

Wednesday, September 16, 2009

नये स्वर्ग का विश्वामित्र पुराने स्वर्ग में रहने को चला गया!

जोधपुर। विश्वामित्र ने त्रिशंकु को वचन दिया था कि वे उसे सदेह स्वर्ग भेजेंगे। देवताओं ने त्रिशंकु को स्वर्ग में प्रवेश देने से मना कर दिया। त्रिशंकु आकाश में लटक गया। विश्वामित्र ने कहा दूसरा स्वर्ग बनाऊंगा। जब नया स्वर्ग बनने लगा तो देवताओं को अपने स्वर्ग की चिंता हुई। वे भागे-भागे भगवान के पास गये। भगवान ने विश्वामित्र को आदेश दिया, मिटा दो अपने स्वर्ग को। विश्वामित्र को भगवान का आदेश मानना पड़ा। नया स्वर्ग मिटा दिया गया किंतु उसके कुछ चिह्न धरती पर शेष रहने दिये ताकि संसार को विश्वामित्र की इस महान गाथा की जानकारी रहे। विश्वामित्र ने नये स्वर्ग के लिये गाय के स्थान पर भैंस का निर्माण किया था जो गाय की अपेक्षा कई गुना अधिक दूध देती थी और जिसमें घी की मात्रा भी अधिक थी। विश्वामित्र ने नये स्वर्ग के देवताओं के खाने के लिये जौ में से गेहूँ का निर्माण किया जो, जौ से अधिक स्वादिष्ट और अधिक पौष्टिक था। विश्वामित्र ने नये स्वर्ग में खाने के लिये फल के स्थान पर नारियल का निर्माण किया था जिसमें अन्य फलों के अपेक्षा प्रचुर मात्रा में आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी तत्व उपस्थित थे।
भारत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 15 अगस्त 1947 को आजादी तो मिल गई, किंतु खाने के लिये अनाज नहीं था। लोग भूखों मर रहे थे। नेहरू के समय अमरीका से सड़ा हुआ गेहूँ पी एल 80 योजना के तहत भारत में आता रहा। शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो भारत के लोगों से सप्ताह में एक दिन उपवास रखने एवं जो लोग अण्डे खा सकते हों, उन्हें अण्डे खाने के लिये कह दिया। अब बारी आई इंदिरा गांधी की। वे गेहूं के लिये पूरी दुनिया में घूमीं। वे जानती थीं कि भारत को जीवित रहना है तो गेहूँ का प्रबंंध करना पड़ेगा। वैसे भी उनकी दोस्ती रूस से रही, अमरीका से नहीं। रूस ने भारत से दोस्ती का दिखावा तो किया किंतु खून बहुत चूसा। एक रुपये की चीज दस रुपये में भारत को बेची और भारत की एक रुपये की चीज दस पैसे में खरीदी। इधर रूस भारत को खसोटता रहा। अचानक नॉरमन अरनेस्ट बोरलोग विश्वामित्र बनकर पूरी दुनिया के सामने आये। जिस प्रकार विश्वामित्र ने जौ में से गेहूँ पैदा किया था उसी प्रकार बोरलोग ने गेहूँ में से कनक पैदा की। पारम्परिक गेहूँ की फसल में दो तिहाई भूसा और एक तिहाई अनाज पैदा होता था। बॉरलोग ने गेहूं की ऐसी किस्में तैयार कीं जो उतनी ही खाद पानी पीकर आधा भूसा और आधा अनाज पैदा करती थीं। इंदिरा गांधी ने नॉरमन बॉरलोग की जादुई शक्ति को पहचान लिया। फिर क्या था, गेहूँ की बौनी किस्में भारत के खेतों में लहराने लगीं जिसे हम हरित क्रांति के रूप में जानते हैं। भारत ही नहीं तीसरी दुनिया कहे जाने वाले समस्त देशों को नॉरमन बोरलोग ने बौनी किस्मों के बीज दिये। पूरी दुनिया भूखमरी के कुचक्र से बाहर आ गई। 13 सितम्बर 2009 को वही नॉरमन बोरलोग 95 वर्ष की आयु में इस दुनिया से चले गये। मुझे लगा कि विश्वामित्र अपने नये बसाये स्वर्ग को छोड़कर किसी पुराने स्वर्ग को लौट गये हैं।

Tuesday, September 8, 2009

लाल दैत्य इतिहास के तिराहे पर आकर खड़ा हो गया!

जोधपुर। लाल दैत्य इतिहास के तिराहे पर आकर खड़ा हो गया। यह तिराहा तिब्बत, लद्दाख और स्पीती को जाने वाली सड़कों को जोड़ता है। अंग्रेजों ने इस तिराहे का निर्माण किया था और तिब्बत, लद्दाख एवं चीन की सीमाएं निर्धारित की थीं। अंग्रेज चले गये, इतिहास रह गया। तिब्बत को लाल दैत्य निगल गया और लद्दाख तथा स्पीती पर लाल दैत्य का खूनी पंजा गढ़ गया। लद्दाख और स्पीती ही क्यों वह तो अरूणाचल प्रदेश, सिक्कम, लद्दाख, नेपाल और भूटान को अपने खूनी पंजे की पांच अंगुलियां बता चुका। इसीलिये 31 जुलाई को लाल दैत्य ने लद्दाख के जुलुंग ला दर्रे से अपना खूनी पंजा फैलाया और माउंट ग्या के पत्थरों पर लाल निशान लगा दिये।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लाल दैत्य ने ऐसा क्यों किया? वस्तुत: यह भारत को उकसाने वाली कार्यवाही है जिसे वह विगत कई वर्षों से लगातार कर रहा है। वह चाहता है कि भारत अपना संयम खोकर कोई गलती करे और लाल दैत्य को अपने रक्त दंत फैलाकर चढ़ दौड़ने का बहाना मिल जाये। एक तरफ तो भारत लाल दैत्य के साथ व्यस्त हो जाये और दूसरी तरफ पश्चिम में बैठा काला दैत्य कश्मीर की घाटियों में घुस कर बैठ जाये। सर्दियां आरंभ होने से पहले ये दोनों दैत्य अपना काम निबटा लेना चाहते हैं। लाल दैत्य ने यह कार्यवाही 31 जुलाई अथवा उससे पूर्व की, जबकि काला दैत्य जुलाई और अगस्त में 12 बार भारत में घुसने का प्रयास कर चुका। वह सीमा पर गोली बारी करने से भी नहीं चूक रहा।
लाल दैत्य अपने सिर बदनामी मोल नहीं लेगा। वह तो काले दैत्य को आगे बढ़ने के लिये रास्ता साफ करेगा। काला दैत्य भारत में घुसकर लाल दैत्य के एजेंट के रूप में लाल और काली बिसात बिछायेगा। यही कारण है कि काला दैत्य पिछले कुछ सालों में न केवल कारगिल कर चुका, न केवल दिल्ली में संसद और लाल किला तथा मुम्बई में होटल ताज को काले धुंए और लाल खून से रंग चुका अपितु एक लाख 70 हजार करोड़ रुपये से अधिक की नकली करंसी भारत में खपा चुका। नेपाल के अपदस्थ राजा के पुत्र ने इस नकली करंसी को भारत में भेजने का काम ठेके पर लिया। उसे भूरा दैत्य कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पूर्व में बैठा पीला दैत्य पहले से ही अपने एक करोड़ से अधिक नागरिकों की घुसपैठ भारत में करवा चुका। समझने वाली बात यह है कि भारत तीन ओर से बुरी तरह से घिर चुका।
रूस भी था तो लाल किंतु लाल रंग कब का छोड़ चुका। अब उसका कौनसा रंग है, पता ही नहीं चलता। सारे रंगों से न्यारे रंग का अमरीका फिलहाल मंदी-मंदी खेलने में व्यस्त। इसलिये उसे पूरी दुनिया में अपने हथियार बेचने का अच्छा बहाना मिल चुका। बराक हुसैन ओबामा सारी दुनिया में देवता बनकर पुजवाने के चक्कर में सबसे गुडी-गुडी हो रहे। उन्हें इन रंग-बिरंगे दैत्यों से क्या लेना-देना! इसलिये तो लाल दैत्य सचमुच इतिहास के तिराहे पर आकर अपने खूनी पंजे चमका रहा।

Sunday, September 6, 2009

घर आया, माँ जाया बराबर!

जोधपुर। नागाणा में जो कुछ भी 5 सितम्बर को श्रमिकों के बीच हुआ, उसे समझदार आदमियों का काम तो नहीं कहा जा सकता। दोष किसी एक पक्ष को देना व्यर्थ है। हो सकता है किसी एक पक्ष का कम या अधिक दोष रहा हो, हो सकता है कि झगड़े का आरंभ किसी एक पक्ष ने किया हो और दूसरा पक्ष भड़क कर सामने से आया हो। हो सकता है कि इस झगड़े में कोई एक पक्ष अधिक पीड़ित और प्रताड़ित हुआ हो, हमारा उद्देश्य उसकी छानबीन करना नहीं, हमारा उद्देश्य तो इस बीमारी की जड़ को समझना है। यह सच है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत कभी भी एक राजनीतिक इकाई नहीं रहा किंतु उससे भी बड़ा सच यह है कि सांस्कृतिक रूप से यह देश सभ्यता के आरंभ से ही एक रहा है और खण्ड-खण्ड क्षरित होता हुआ आज अपने सबसे छोटे आकार में विद्यमान है। इसकी सांस्कृतिक एकता को स्थापित करने के लिये अयोध्या के राजा रामचंद्र ने धुर दक्षिण में रामेश्वरम् का ज्योतिर्लिंग स्थापित किया। मथुरा के राजा श्रीकृष्ण ने समुद्र के किनारे द्वारिका नगरी स्थपित की। अशोक ने महेंद्र और संघ मित्रा को पड़ौसी देशों में शांति का संदेश देकर भेजा आदिगुरु शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किये। सुभाषचंद्र बोस जब कलकत्ता से निकल कर बर्लिन, टोकियो और सिंगापुर की खाक छानते फिर रहे थे और आजाद हिंद फौज के लिये गोला बारूद जुटाते फिर रहे थे तो क्या वे केवल बंगाल को आजाद करवाने के लिये ऐसा कर रहे थे? हरिद्वार, प्रयाग, पुष्कर, उज्जैन, गया और जगन्नाथ पुरी एक दूसरे से सैंकड़ों किलोमीटर दूर हैं किंतु सबके लिये एक समान रूप से अपने हैं। फिर यह तेरा मेरा कैसा? जब देश 562 सम्प्रभु रियासतों और 11 ब्रिटिश प्रांतों में बंटा हुआ था, तब भी इस तरह का अपना-पराया नहीं था, तब भी हम भारत माता की जय बोलकर आनंदित होते थे, फिर आज एक संविधान और एक ध्वज के तले स्थानीय और बाहरी का झगड़ा कैसे खड़ा हो गया!
नागाणा में स्थानीय कर्मचारी हों या फिर किसी अन्य प्रांत से आये हुए, हैं तो सब भारत माता के पुत्र ही, फिर भीतर -बाहर का प्रश्न क्यों? जब एक माता के पुत्र लड़ते हैं तो माता को कष्ट होता है। जो पुत्र अपनी माता के कष्ट का अनुभव नहीं करते, वे कैसे पुत्र हैं? भारत माता के प्रति प्रेम क्या केवल फिल्मों में दिखाने के लिये है या फिर क्रिकेट के मैदानों में गाने के लिये है! जब हम एक देश के नागरिक होकर केवल इसलिये लडेंगे कि कुछ लोग हमारे बीच में दूसरे प्रांत से आ गये हैं, तो सोचिये फिर हमें आस्ट्रेलिया वालों से शिकायत क्यों होनी चाहिये जो सात समंदर पार से आये भारतीयों को केवल इसलिये पीटते हैं कि वे विदेशी हैं? मुझे स्मरण है आज से पच्चीस साल पहले गंगानगर जिले के एक छोटे से गांव की एक पंजाबी स्त्री ने मुझ नितांत अपरिचित का स्वागत यह कह कर किया था- घर आया, माँ जाया बराबर और जब थोड़ी देर बाद मैं उससे विदा हुआ तो उसने कहा- तेरे बच्चों के गांव बसें। आज भी मैं उस स्त्री के बारे में सोचता हूँ तो श्रद्धा से अभिभूत हो जाता हूँ। कहाँ गई हमारे देश की ऐसी अनोखी सांस्कृतिक विरासत? कौन निगल गया उसे? नागाणा में बाहर से आये जिन श्रमिकों को उनके परिजनों ने यहां भेजा है, राजस्थानियों की भारतीय संस्कृति में गहरी आस्था पर विश्वास करके ही भेजा है। हम उस विश्वास को बनायें। आज लाखों राजस्थानी भारत के कौने-कौने में बसे हुए हैं, लाखों राजस्थानी दुनिया के दूसरे देशों में बसे हुए हैं। सोचिये वे कितने शर्मसार हुए होंगे जब उन्होंने राजस्थान की धरती पर स्थानीय बाहरी का झगड़े के बारे में पढ़ा होगा।

Sunday, August 23, 2009

धनिये की लीद खाकर गा रहे हैं जय हो! जय हो!

सिनेमा वाले भले ही जय हो! जय हो! गाते हुए ऑस्कर कमाते रहें, अर्थशास्त्री भले ही विश्वव्यापी मंदी में भारत में 8 प्रतिशत की विकास दर रहने की गारंटी देते हुए लोगों को खुश करते रहे किंतु इतिहास गवाह है कि पिसे हुए धनिये में मिली हुई गधे की जितनी लीद हमने अल्लााउद्दीन खिलजी के काल में नहीं खाई, मुहम्मद बिन तुगलक के काल में नहीं खाई, रानी विक्टोरिया के काल में नहीं खाई, उससे कहीं अधिक गधे की लीद हम अपने ही शासनकाल में अथार्त बासठ साल में लोकतंत्र में खा चुके हैं। धनिये में मिली हुई लीद ही क्यों, यूरिया मिला हुआ दूध, वाशिंग पाउडर और घिया पत्थर मिला हुआ मावा, पशुओं की चर्बी मिला हुआ घी, पपीते के बीच मिली हुई काली मिर्च, मोम के पुते हुए सेब, पॉलिशों से चुपड़ी हुई दालें, हरे रंग से रंगी गई किशमिशें भी हम डकार चुके हैं। केवल खाने की चीजें ही नकली नहीं है। क्रिकेट के मैदानों में दिखने वाला देश प्रेम भी नकली है। आभूषणों का सोना भी नकली है। जेब में रखे हुए नोट भी नकली हैं। आज देश में एक लाख सत्तर हजार करोड़ रूपए की नकली मुद्रा से आम आदमी की जेब ठसाठस भरी है किंतु आसमान से पानी की बूंद तक नहीं बरसती। धरती का गर्भ निचुड़ चुका है, नदियां सूख चुकी है, ग्लेशियर गायब हो चुके है। नहरों में पानी नहीं आ रहा। दक्षिण भारत में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, बांधों से बिजली नहीं बन रही। फिर भी इन सारे दुखों से बेपरवाह, दूर कहीं किसी कृत्रिम स्वप् लोक में भारत के निर्धन लोग नैनो कार में बैठकर घूमने का सपना देख रहे हैं। मुहम्मद बिन तुगलक ने चांदी के सिक्कों के स्थान पर ताम्बे के सिक्के चलाये थे। उन दिनों भी नकली सिक्के बनते थे। सो जनता ने अपने घरों में ताम्बे के नकली सिक्के तैयार करके बादशाह के खजाने में जमा करवा दिये और उनके बदले में चांदी के असली सिक्के ले लिये। थोड़े दिनों बाद मुहम्मद बिन तुगलक को ज्ञात हुआ कि सरकारी खजाने में ताम्बे के नकली सिक्कों का ढेर लग गया है और जनता उन सिक्कों को लेने से मना कर रही है। तुगलकी फरमान फिर जारी हुआ । सिपाही घरों में घुस कर सारे असली सिक्के छीन लाये। जनता के हाथ न असली मुद्रा रही न नकली। बासठ साल के परिपक्व लोकतंत्र में तो ऐसा किया नहीं जा सकता। सो बैंकों की एटीएम मशीनें अपने पेट में नकली नोट छिपाये बैठी है और ईंट का चूरा मिली हुई लाल मिर्च और अधिक लाल होकर सौ, सवा सौ रूपये किलो हो गई। हल्दी और भी पीली पड़कर एक सौ दस रूपये किलो हो गई। सब्जियां रसोईघरों तक पहुंचने की बजाय दुकानों में पड़ी पड़ी ही सूख रही हैं। हर शहर में कोचिंग सेंटर खुल गये हैं, जिनकी कृपा से घर-घर में इंजीनियर तैयार हो रहे हैं। सबका स्टैण्डर्ड बढ़ गया है। चारों और जय हो, जय हो हो रही है। यही कारण है कि न्यूयार्क टाइम्स की वरिष्ठ पत्रकार हीदर टिमोन्स ने कहा कि आज का हिन्दुस्तान अमरीका से अलग नहीं है किंतु मेरी समङा में उन्होंने गलत कहा। आज का हिन्दुस्तान तो अमरीका से बहुत आगे निकल चुका है। यहां राखी सांवत टेलीविजन के पर्दे पर स्वयंवर रचा रही है और हम धनिये में मिली गधे की लीद खाकर जय हो! जय हो! गा रहे हैं। अमरीका में ऐसा कहां होता है!

Thursday, August 13, 2009

चलो सबको पीटें हम !

आजकल एक गीत लिखने की इच्छा बार-बार होती है। कुछ इस तरह का गीत- चलो सबको पीटें हम! चलो सबको पीटें हम! जो करते हैं हमारी सेवा उन्हें घसीटें हम। तोड़ दें, फोड़ दें, हाथ पांव मरोड़ दें। अनुशासनहीनता की खाज में मार-पीट का कोढ़ दें। कैसा रहेगा यह गीत! मैं अपने आप से सवाल करता हूँ। यद्यपि यह सवाल मैंने ख़डा नहीं किया है। यह सवाल तो आज हर चौराहे पर, सरकारी कार्यालयों में, अस्पतालों में, गांवों में और शहरों में मुँह बाये ख़डा है। हम उन डॉक्टरों को पीट रहे हैं जो भरसक उपचार के बाद भी हमारे परिजन को मरने से नहीं रोक सके। हम उन सिपाहियों को पीट रहे हैं जो चौराहे पर ख़डे होकर यातायात व्यवस्था भंग करने वाले को रोकते हैं। हम उन पत्रकारों को पीट रहे हैं जो दिन रात विविध घटनाओं की सूचना हम तक पहुँचाते हैं। हम जलदाय विभाग के उन कर्मचारियों को पीट रहे हैं जो भूगर्भ का जलस्तर नीचे चले जाने के कारण हम तक पेयजल नहीं पहुँचा पा रहे हैं। हम उन बिजली कर्मचारियों को भी पीट रहे हैं जो देश में बरसात में कमी और भीषण गर्मी के कारण बढी हुई बिजली की मांग पूरी नहीं कर पा रहे हैं। कई बार तो मुझे लगता है कि इन दिनों देश के मंदिरों में इतने घण्टे और घड़ियाल नहीं बजाये जा रहे होंगे जितने कि सरकारी कर्मचारी बजाये जा रहे हैं। देश में प्रजातंत्र है, जनता उसकी माई बाप है। जनता जैसे चाहे वैसे अपने देश की व्यवस्था बना सकती है। अच्छी-बुरी परम्परायें डाल सकती है लेकिन जनता का माई बाप कौन है? देश का संविधान ही तो! लेकिन संविधान में तो कहीं नहीं लिखा कि कोई भी किसी को पीटे। आज जब पुलिस थानों में भी चोरों और अपराधियों की पिटाई करने का समय बीत गया तब यह कैसा समय आया कि कुछ अपराधी सारी व्यवस्था को अपने काबू में लेकर पुलिस कर्मियों, पत्रकारों, डॉक्टरों और सरकारी कर्मचारियों को पीट रहे हैं! एक पुरानी कहावत है कि खराब कारीगर अपने औजारों से लडता है। पुलिसकर्मी, पत्रकार, डॉक्टर और सरकारी कर्मचारी जनता के औजार हैं। इन औजारों को अच्छा और तेज बनाया जाना चाहिये या कि उन्हें मार पीट कर और भोथरा बनाया जाना चाहिये! देश में जैसा माहौल हो गया है, उसके लिये क्या केवल ये खराब औजार ही जिम्मेदार हैं! क्या वे लोग जिम्मेदार नहीं हैं जो लाख समझाने पर उस पेड़ को काटने से बाज नहीं आते जिस पर वे बसेरा किये हुए हैं! हम लोग मसालों में गधों की लीद मिलाने से बाज नहीं आते, तेज वाहन चलाकर दुर्घटनायें करने से बाज नहीं आते, नकली मावा बनाने से बाज नहीं आते! हममें से कुछ लोग औरतों को सरे आम नंगा करके पीटते हैं और बाकी के लोग तमाशा देखते हैं। कुछ लोग आतंकवादियों को अपने घरों में शरण देते हैं और बाकी के लोग उसका खामियाजा भुगतते हैं। कुछ लोग विदेशियों द्वारा किये गये नकली नोटों के षडयंत्र में शामिल हो जाते हैं और पूरे देश को महंगाई का अभिषाप झेलना पडता है। क्या इन सारी बुराइयों के लिये हम सब दोषी नहीं हैं! क्या हमने अपने लालच को पूरा करने के लिये आजादी का गलत फायदा नहीं उठाया! क्या हम उन लोगों के अपराधी नहीं हैं जिन्होंने हमें आजाद करवाने के लिये अपना पूरा जीवन जेल की सलाखों के पीछे गुजार दिया। कई बार मुझे सुभाषचंद्र बोस और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्द याद आते हैं जिनका मानना था कि अभी भारतीय समाज आजादी पाने के लायक नहीं हुआ। क्या वे वास्तव में सही थे? क्या वे अंग्रेज भी सही थे जो 1947 में यहाँ से जाते समय हम पर हँसते थे? कितना अच्छा हो कि वे सब गलत सिध्द हों और किसी को मारपीट वाला गीत लिखने की इच्छा नहीं हो।

बिजली के पंख लगाकर उड़ने को तैयार है बौना ड्रेगन ! ( दूसरी किश्त )

सन् 2020 तक चीन अपने विद्युत परिदृश्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन करेगा। उसका लक्ष्य संसार की 20 प्रतिशत बिजली के उत्पादन एवं खपत करने का है। उस समय तक वह 1400 से 1500 गीगावाट बिजली का उत्पादन करने लगेगा। जबकि भारत ने अपने लिये अभी सन् 2012 तक का ही लक्ष्य निर्धारित किया है। इस अवधि में भारत की विद्युत उत्पादन क्षमता में केवल 78 गीगावाट बिजली की वृध्दि होगी।
आज चीन संसार का सबसे बड़ा पवन विद्युत उत्पादक देश है और अगले 12 वर्षों में वह इतनी पवन बिजली उत्पादन क्षमता अर्जित कर लेगा कि दुनिया को कोई भी देश उसका मुकाबला नहीं कर सकेगा। उसका लक्ष्य 30 गीगावाट पवन बिजली उत्पादन क्षमता अर्जित करने का है। सौर ऊर्जा के मामले में चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। वह अपने पश्चिमी हिस्से के ग्रामीण क्षेत्रों में सौर ऊर्जा को तेजी से विकसित कर रहा है। कहा जा रहा है कि चीन की सारी छतें सौर ऊर्जा उत्पादक छतों में बदल जायेंगी।
जल विद्युत पैदा करने के मामले में चीन संसार में दूसरे नम्बर पर आता है। चीन में प्रतिवर्ष 328 बिलियन किलोवाट आवर्स बिजली जल विद्युत के रूप में प्राप्त की जा रही है। वर्तमान में वह 700-700 मेगावाट की कुल 26 जल विद्युत उत्पादक इकाईयों का निर्माण कर रहा है जिनकी कुल क्षमता 18.2 गीगावाट होगी। इनमें से कुछ इकाईयाँ पूरी हो चुकी हैं।
इन परियोजनाओं के पूरा होते ही चीन में संसार के सबसे बड़े बांधों की एक शृंखला का निर्माण होगा जिन पर 15.8 गीगावाट विद्युत उत्पादन क्षमता की 25 इकाइयाँ लगाई जायेंगी। इस प्रकार चीन संसार भर में जल विद्युत उत्पादन करने के मामले में सबसे आगे निकल जायेगा। चीन के इस कदम से भारत में चीन की ओर से बहकर आने वाली अधिकांश नदियों का पानी चीन में ही रोक लिया जायेगा जिससे भारत की पन बिजली उत्पादन की क्षमता में गिरावट आयेगी तथा भारत की बहुत बड़ी आबादी के लिये पेयजल एवं सिंचाई जल का अभाव उत्पन्न हो जायेगा।
वर्तमान में चीन में 83.3 ट्रिलियन क्यूबिक फीट गैस के भण्डार खोजे जा चुके हैं किंतु वह प्रतिवर्ष केवल 1.3 ट्रिलियन क्यूबिक फीट गैस का खनन कर रहा है। चीन संसार का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक एवं कोयले की खपत करने वाला देश है। चीन में 126.2 बिलियन टन कोल रिजर्व्स का पता लग चुका है जिसमें से प्रतिवर्ष केवल 2.1 बिलियन टन कोयला काम में लिया जा रहा है। इस प्रकार चीन अपने कोयला, गैस एवं पैट्रोलियम पदार्थों के संरक्षण्ा की नीति पर आगे बढ़ रहा है।
प्रतिवर्ष विश्व भर के बाजारों में तेल की जो मांग बढ़ती है उसमें 38 प्रतिशत मांग अकेले चीन की होती है। दुनिया भर में मंदी का दौर आने से पहले वैश्विक बाजार में तेल को महंगा करने का पूरा श्रेय चीन को जाता था। यदि दुनिया भर में मंदी न छा जाती तो आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल इतना महंगा होता कि भारतीय अर्थव्यस्था को बहुत करारा झटका झेलना पड़ सकता था। (समाप्त)

Wednesday, August 12, 2009

बिजली के पंख लगाकर उड़ने को तैयार है बौना ड्रेगन ! ( पहली किश्त )

कुछ अर्थशास्त्री यह कहकर प्रसन्न होने का प्रयास कर रहे हैं कि इस साल भारत और चीन में विकास दर लगभग आठ प्रतिशत रहेगी। इस वक्तव्य के माध्यम से वे यह जताने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत चीन से किसी तरह कम नहीं। जिस प्रकार मुद्रा स्फीती की दर एक मिथ्या एवं अव्यवहारिक सूचकांक सिध्द हुआ है उसी प्रकार विकास दर भी अर्थव्यवस्था का एक भ्रामक तापमापी है जिसमें कई किंतु-परंतु लगे हुए हैं और इससे देश की अर्थव्यवस्था का वास्तविक तापक्रम नहीं नापा जा सकता। इस तापमापी से लिये गये तापक्रम से चीन और भारत के आर्थिक स्वास्थ्य के एक जैसे होने की बात करना, स्वयं को को छलने जैसा है।
चीन न केवल भारत से अधिक आबादी वाला देश है अपितु दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश भी है। चीन का सकल घरेलू उत्पाद लगभग सात ट्रिलियन डॉलर है जबकि भारत का सकल घरेलू उत्पाद तीन ट्रिलियन डॉलर से भी कम है। यदि दोनों देशों की जीडीपी में 8 प्रतिशत की वृध्दि होती है तो चीन की अर्थव्यवस्था में आधे ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक की वृध्दि होगी जबकि भारत की जीडीपी में चौथाई ट्रिलियन डॉलर से भी कम की वृध्दि होगी। चीन में प्रति व्यक्ति आय 5300 अमरीकी डॉलर के लगभग है जबकि भारत में यह 650 अमरीकी डॉलर के लगभग है। इस प्रकार भारत और चीन की अर्थव्यवस्था का कहीं कोई मुकाबला ही नहीं है।
कुछ दशक पहले तक चीन दुनिया के अत्यंत पिछड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में गिना जाता था। 1976 में माओत्से तुंग की मृत्यु के बाद उसने औद्योगिकीकरण का जो सिलसिला आरंभ किया उसके बल पर आज चीन न केवल अपनी दयनीय अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर आ गया है अपितु पूरे संसार के सामने आर्थिक चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। चीन ने पूरी दुनिया को यह चुनौती ऊर्जा उत्पादन के बल पर दी है। सन् 2000 से 2004 के बीच चीन ने अपने कुल ऊर्जा उत्पादन में 60 प्रतिशत की वृध्दि की जिसके बल पर उसने अपने देश में वृहत् औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया और उसके उत्पाद दुनिया भर के देशों में छा गये। कुछ वर्ष पहले तक दुनिया के बाजार में अमरीका को जो चुनौती जापान से मिलती थी अब चीन से मिल रही है।
आज अकेला चीन दुनिया की 10 प्रतिशत ऊर्जा की खपत करता है। वर्तमान में चीन की विद्युत उत्पादन क्षमता 531 गीगावाट है जबकि भारत की विद्युत उत्पादन क्षमता 147 गीगावाट है। इस प्रकार भारत की तुलना में चीन में 3.5 गुना से भी अधिक बिजली पैदा होती है। जबकि भारत की तुलना में चीन की आबादी सवा गुनी ही है। चीन में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 2176 यूनिट है जबकि भारत में यह केवल 612 है। इस प्रकार आम चीनी आम भारतीय की तुलना में साढ़े तीन गुना बिजली का उपभोग करता है।
चीन ने बिजली उत्पादन की जो तैयारी की है उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि बौना ड्रेगन बिजली के पंख लगाकर उड़ने को तैयार है। (शेष कल)

Friday, August 7, 2009

हर कोई थानेदार बनना चाहता है, शिक्षक नहीं!

भले ही हम प्राचीन भारतीय आश्रमों में विकसित हुई शिक्षा पध्दति की यादों को छाती से लगाये घूम रहे हों और उसके गुणों का बखान करते हुए नहीं थकते हों किंतु यह भी सच है कि भारत में पब्लिक स्कूलों का एक लम्बा इतिहास है। इन स्कूलों ने देश को बडे-बडे इंजीनियर, वैज्ञानिक, योध्दा, उद्योगपति और प्रशासक दिये हैं। आज भी साठ-सत्तार साल के वृध्द प्राय: गर्व से छाती चौड़ी करके बताते हैं कि वे किस पब्लिक स्कूल में पढे हैं और उन दिनों के सहपाठी किन-किन उच्च पदों को सुशोभित कर रहे हैं और कौन-कौन से बिजनिस हाउस चला रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली पब्लिक स्कूल के प्रिंसीपल बी. एस. यादव ने जोधपुर में आयोजित एक शैक्षणिक मेले में एक बडी गंभीर बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया। यह इतनी दमदार और धमाकेदार बात थी कि मुझे लगा कि इसे सब लोगों तक पहुँचाया जाना आवश्यक है। उन्होंने एक लेख के हवाले से कहा कि यह कैसी विचित्र बात है कि इस देश में ढेरों संस्थायें ऐसी हैं जिनमें पढा हुआ छात्र इसलिये बेहिचक ऊँची नौकरी और अधिक वेतन पर चुन लिया जाता है क्योंकि उसने भारत के किसी खास प्रतिष्ठित संस्थान से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, तकनीकी, चिकित्सा, व्यवसाय प्रबंधन अथवा होटल प्रबंधन की डिग्री ले रखी है लेकिन इस देश में शिक्षक प्रशिक्षण के लिये एक भी ऐसा संस्थान नहीं है जिसमें प्रशिक्षित अध्यापक को इसलिये बेहिचक चुन लिया जाये कि उसने अमुक प्रतिष्ठित संस्थान से अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया है। बी. एस. यादव की बात यहाँ समाप्त नहीं होती, उनकी बात यहीं से शुरु होती है। उन्होंने जो कुछ कहा उसके कई गंभीर अर्थ हैं। संभवत: वे यह कहना चाहते हैं कि हम यह कहकर शिक्षक का गुणगान करते हुए नहीं थकते कि शिक्षक राष्ट्र का निर्माता है लेकिन उस राष्ट्र निर्माता को तैयार करने में समाज ने कितनी गंभीरता दिखाई है ? विगत बासठ सालों से देश में अधिकतर युवा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, तकनीकी, चिकित्सा, व्यवसाय प्रबंधन, होटल प्रबंधन अथवा प्रशासनिक सेवाओं के क्षेत्र को प्राथमिकता देते रहे हैं। जब कहीं चयन नहीं होता तो वे बीएड करके शिक्षक बनने की सोचते हैं। वास्तव में हमारे यहाँ कितने मेधावी युवा होते हैं जो हृदय से अध्यापक बनने की प्रवृत्तिा रखते हैं ? क्यों भारत में शिक्षण कर्म कम प्रतिभा के युवाओं के लिये छोड़ दिया गया है? बहुत से लोग प्राय: इसका सम्बन्ध शिक्षकों को मिलने वाले वेतन से जोड़ते हैं जबकि कम वेतन पाने वाले शिक्षकों के विद्यार्थी भी मेरिट में स्थान पाते हैं और अधिक वेतन पाने वाले शिक्षकों के विद्यार्थी भी अनुत्ताीर्ण होते हुए देखे जाते हैं। वास्तविकता यह है कि आज शिक्षकों के वेतनमान पहले के शिक्षकों की अपेक्षा काफी अधिक हैं, सुविधायें भी अधिक हैं। उनके समकक्ष वेतन पाने वाले लिपिक, पटवारी, नर्स, ग्रामसेवक आदि उनसे काफी पीछे छूट गये हैं। केवल उच्च वेतन से गुणवत्ताा उत्पन्न नहीं होती, गुणवत्ताा उत्पन्न होती है समुचित प्रशिक्षण, धीर-गंभीर वातावरण एवं मनोबल उन्नयन से। कहीं हमारा समाज शिक्षकों को यही देने में तो कंजूसी नहीं कर रहा है ? नि:संदेह हमारी संस्कृति ने हमें यह सिखाया है कि जीवन में कभी भी, कहीं भी शिक्षक मिल जाये तो उसके पैर छुओ। इसीलिये हर भारतीय, बीच बाजार में अपने शिक्षक के पैर छूकर आनंदित होता है। फिर भी हमारा आज का युवा थानेदार बनना चाहता है, शिक्षक नहीं, जबकि आज शिक्षक को थानेदार से अधिक वेतन मिलता है। और थानेदार के पैर कोई भी नहीं छूता। यह कैसी विडम्बना है !

Thursday, August 6, 2009

होटल में खाना इतना जरूरी है क्या?

होटल मे खाना खाने की मनाही तो है नहीं, होटल बने ही खाना खाने के लिये हैं। वहाँ कोई मुफ्त खाना तो मिलता नहीं है, कोई भी आदमी किसी भी होटल में पैसा देकर तब तक खाना खा सकता है जब तक कि होटल खुला है। फिर इस बात में क्या विवाद हो सकता है! कानून और तर्क दोनों ही दृष्टि से यह ठीक है किंतु जीवन में एक और भी पक्ष होता है, जिसे हम व्यावहारिक पक्ष कह सकते हैं। कानून, तर्क और व्यवहार एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, हमारा एकांगी दृष्टिकोण जब इनमें से किसी एक पक्ष को छोड़कर आधे-अधूरे और गलत निर्णय लेता है तब हमें किसी भी घटना के व्यवारिक पक्ष की बात भी करनी ही पडती है।बुधवार को राखी थी, भाई को राखी बांधने के बाद रात को नौ बजे स्कूटी पर सवार होकर, होटल में खाना खाने जा रहीं दो बहनों से मोटर साइकिल सवार तीन लुटेरों ने उनकी सोने की चेन छीन ली। कानून और तर्क यह कहता है कि रात में कोई भी कितने ही बजे क्यों न निकले, किसी को अधिकार नहीं है कि कोई उसकी चेन छीन ले। कानून और तर्क की दृष्टि से यह भी सही है कि कोई भी लडकी रात में खाना खाने होटल में जा सकती है। कानून और तर्क की दृष्टि से यह भी ठीक है कि लडकियाँ रात में सोने की चेन पहनकर निकल सकती हैं। अत: कानूनी और तार्किक दृष्टि से उन दोनों लडकियों को यह पूरा-पूरा अधिकार था कि वे रात में सोने की चेन पहनकर, स्कूटी पर बैठकर होटल में खाना खाने जायें किंतु यहाँ व्यवहारिकता का पालन नहीं हुआ। व्यवहारिकता कहती है कि ऐसे लोग मानव समाज में हर समय मौजूद रहेंगे जो कानून और तर्क को नहीं मानेंगे। हजारों साल के मानव इतिहास में चोर, डाकू, लुटेरे, उचक्के, उठाईगिरे, वहशी, आतंकी, ठग, बलात्कारी और जाने किस-किस तरह के अपराधी समाज में होंगे ही। कानून या तर्क कभी नहीं कहता कि इन अपराधियों से आदमी को अपना बचाव करने की आवश्यकता नहीं है। यह नैसर्गिक और कानूनी आवश्यकता है कि आदमी अपनी सुरक्षा करे। वह अपने घर के दरवाजे खुले छोड़कर कहीं नहीं जाये। हर आदमी सुरक्षित होकर घर से निकले, किसी भी अपराधी को ऐसा मौका न दे कि वह बेधडक होकर अपराध कर सके। मैं इस बात का पक्षधर कतई नहीं हूँ कि लडकियाँ घरों से बाहर नहीं निकलें या सोने की चेन नहीं पहनें किंतु इस बात की पैरवी कौन करेगा कि वे अपनी सुरक्षा का ध्यान भी नहीं रखें! वे यह भी नहीं सोचें कि रात के अंधेरे में उनकी भेंट ऐसे असामाजिक तत्वों से भी हो सकती है जो उनकी चेन खींच लें। आज हालत यह है कि दिन दहाडे चेनें छीनी जा रही हैं फिर रात में किस के भरोसे वे चेन पहनकर निकली थीं! एक बात और भी है। होटल में खाना खाना! वह भी बिना किसी मजबूरी के! वह भी त्यौहार के दिन! यह तो हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है! हम गीत तो गांधी और गांधीवादी दर्शन के गाते हैं और घर होते हुए भी खाना खाने होटल में जाते हैं! यह कैसा आदर्श है! हमारी संस्कृति तो यह कहती है कि राखी के दिन बहनों को घर पर खीर बनाकर भाई को खिलानी चाहिये थी। आज चारों ओर नकली मावे, नकली घी, नकली दूध, मिलावटी मसाले, जहरीले रंग आदि का हल्ला मच रहा है और हम घर का शुध्द खाना छोड़कर बाजार का महंगा, अशुध्द और मिलावटी खाना खाने के लिये रातों में भी भाग रहे हैं और लुटेरों के हाथ सोने की चेनें लुटवाकर पछता रहे हैं। माफ कीजिये! होटल में खाना, इतना जरूरी है क्या?

Wednesday, August 5, 2009

दालें तो सौ रुपये किलो होनी ही थीं

कोई एक कारण नहीं है कि भारत में दालों का भाव देखते ही देखते सौ रुपये किलो हो गया। हम सबने मिल कर इसे इस भाव तक पहुँचाया है। हमारा लालच हमें अधिक से अधिक धन बटोरने के लिये प्रेरित करता है जबकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि कुछ लोग कैसे भी करके अत्यंत अमीर हो जायें और बाकी के लोग उन्हें ऐसा करते हुए देखते रहें। ऐसा कैसे हो सकता था कि केवल भूखण्डों की कीमतें बढ़ती रहतीं और आटा, दाल, सब्जियों और दवाइयों की कीमतें उसी स्तर पर बनी रहतीं!
यह स्वाभाविक ही था कि जब देश में कुछ लोगों के बीच अमीर बनने की होड़ लगी तो चुपके-चुपके हर आदमी उस होड़ में शामिल हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो भूखण्ड सौ रुपये गज मिलता था, वह दस हजार रुपये गज हो गया। देखते ही देखते भूखण्डों की खरीद बेच से जुड़े हुए लोगों की जेबों में एक रुपये के सिक्के का स्थान दस रुपये के नोट ने ले लिया और दस रुपये के नोट का स्थान सौ रुपये के नोट ने ले लिया। एक दिन ऐसा भी आया जब सबकी जेबों में हजार-हजार रुपये के नोट हो गये, लेकिन तभी उन्होंने हैरान होकर यह भी देखा कि दुकान पर जो दाल पहले बीस रुपये किलो मिलती थी वह सौ रुपये किलो हो गई। घी सवा दो सौ रुपये किलो और सूखी हुई सांगरियाँ तीन सौ रुपये किलो हो गईं। जो लोग अमीर बनने की होड़ में शामिल हुए थे उन्हें पता ही नहीं चला कि एक रुपये के सिक्के को सौ रुपये में बदलने की होड़ में केवल भूखण्ड खरीदने बेचने वाले ही नहीं अपितु दाल, गेहूँ, चावल और सब्जियां पैदा करने वाले, उन्हें ट्रांसपोर्ट करने वाले, बेचने वाले और खाने वाले भी शामिल हो चुके थे।
बात यहीं पर आकर खत्म नहीं हो गई। जो अरहर की दाल सौ रुपये किलो हो चुकी थी, उसमें मानव प्रजाति के लिये हानिकारक खेसरी की दाल मिलाकर हजार रुपये के नोट को दो हजार रुपयों में बदलने की होड़ आरंभ हुई। घी, तेल, आटा, मैदा, चावल, हल्दी सब में मिलावट आरंभ हुई। सड़ी हुई मिठाइयों में खुशबू मिलाकर बेचा जाने लगा। पुरानी पड़ चुकी सब्जियों को हरे रंग से रंगा जाने लगा। फलों में जहरीले इंजेक्शन लगाये जाने लगे। इन चीजों को खाकर आम आदमी बीमार होकर बड़ी संख्या में हॉस्पीटल पहुंचने लगा। यहाँ भी जो लोग दवा बनाने या बेचने वाले थे उन्हें भी अपनी जेब में पड़े हजार रुपये के नोट को दो हजार रुपयों में बदलने की जल्दी थी। इसलिये उन्होंने नकली दवाइयाँ बनाईं और बेचीं। इंजैक्शनों में पानी भर दिया और गोलियों में लोहे की कीलें डाल दीं। आजाद भारत में यह एक हैरान कर देने वाली बात थी कि हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले लोग जीवन भर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ ही मुश्किल से करते हुए देखे गये और कामचोरी करने वाले, नकली दवाइयां बेचने वाले, घी में चर्बी मिलाने वाले, शवों से चर्बी निकाल कर बेचने वाले, देखते ही देखते करोड़पति बन गये। इसलिये उन लोगों में भी काम करने के प्रति उत्साह समाप्त हो गया जो मेहनत करके रोटी खाना चाहते थे। चारों ओर कामचोरी का वातावरण बना और आम आदमी एक के दो करने में जुट गया। कर्मचारियों को दिये गये छठे वेतन आयोग के लाभों का इतनी बार और इतना ज्यादा प्रचार हुआ कि दालों को सौ रुपये किलो होने में देर नहीं लगी।