Saturday, June 19, 2010

माता-पिता ने सिर पे उठा रखा है आसमान !

मोहनलाल गुप्ता
ज ब से शिक्षा, उच्च निवेश वाला क्षेत्र बना है, समाज के होश उड़े हुए हैं। जो माँ-बाप अपने बच्चों के सबसे बड़े हितैषी माने जाते हैं, उन्होंने अपने बच्चों का ऐसा पीछा घेरा है कि बच्चों का जीना मुश्किल हो गया है। पिछले एक दशक में लगभग हर शहर में बड़ी-बड़ी घोषणायें और दावे करने वाले महंगे स्कूलों और कोचिंग सेंटरों की बाढ़ आ गई है जिनके द्वारा किये जाने वाले बड़े-बड़े दावों, सफलता की अनूठी कहानियों और सफल छात्रों की झूठी-सच्ची तस्वीरों को देखकर माता-पिता के मुंह से लार टपक पड़ती है। उन्हें लगता है कि उनका बच्चा इनमें पढ़कर कलक्टर नहीं तो डॉक्टर या इंजीनियर अवश्य बन जायेगा। आईआईटी या एम्स नहीं मिला तो भी क्या हुआ, ए आई ट्रिपल ई और आर पी ई टी तो कहीं नहीं गया! दूसरों के बच्चों का भी तो सलेक्शन हो रहा है, फिर मेरे बच्चे का क्यों नहीं होगा! इस मानसिकता के साथ माता-पिता हाई रिस्क जोन में चले जाते हैं। भले ही बच्चा इस दैत्याकार पढ़ाई का बोझ उठाने को तैयार न हो और वह बार-बार मना करे किंतु बच्चों के भविष्य को संवारने की धुन में माता-पिता अपने मासूम बच्चे को प्रतियोगी परीक्षाओं की अंधी दुनिया में धकेल कर अपनी जीवन भर की जमा-पूंजी का मुंह खोल देते हैं। स्कूल की मोटी फीस, किताबों-कॉपियों और बस्तों का खर्च, स्कूल बस का मासिक किराया, कोचिंग सेंटर की भारी फीस, कोचिंग सेंटर की बस का किराया। महंगे नोट्स, बोर्ड परीक्षाओं की फीस, विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के लिये एप्लीकेशन फॉर्म, बाप रे बाप! इन सबकी जोड़ निकालें तो आंखें बाहर आ जायें, लेकिन अभी माता-पिता द्वारा किये जाने वाले व्यय का अंत कहाँ ! हर साल कम प्रतिभावान बच्चे अपने से अधिक प्रतिभावान बच्चों पर वरीयता प्राप्त करने के लिये बारहवीं कक्षा के बाद एक साल ड्रॉप करते हैं। पहले तो तीन-चार साल तक करते थे, अब भारत सरकार के नये नियमों के चलते आईआईटी जैसी परीक्षाओं में बच्चा दो साल ही बैठ सकता है इसलिये मैथ्स के बच्चों में ड्रॉप ईयर्स की संख्या घटकर एक रह गई है, बायॉलोजी के बच्चे अब भी दो तीन साल तक ड्रॉप कर रहे हैं। ऐसे बच्चे कोटा भी जाते हैं। माता-पिता को अपनी जमापूंजी का मुंह नये सिरे से खोलना होता है।
इस सब आपा-धापी में माता-पिता का डिब्बा बज चुका होता है। स्कूल और कोचिंग सेंटर उन्हें पूरी तरह चूस चुके होते हैं। समझने वाली बात यह है कि किसी भी कॉलेज या इंस्टीट्यूट में हर वर्ष उतने ही बच्चे चयनित हो सकते हैं, जितनी कि सीटें उपलब्ध हैं जबकि उनमें प्रवेश पाने वाले बच्चों की संख्या 50 से 100 गुना या उससे भी अधिक होती है। हर साल लाखों बच्चों का कहीं भी चयन नहीं होता। सामान्यत: इन बच्चोंं के माता-पिता बच्चोें का जीना हराम कर देते हैं। उन्हें कोसते हैं, अपमानित करते हैं, गाली देते हैं। हर ओर से असफलता प्राप्त बच्चा अपने ही घर में अपने विरोधियों की फौज खड़ी देखकर कुण्ठित हो जाता है। स्कूल के साथी पीछे छूट चुके होते हैं। कोचिंग सेंटर के नाम से उसे मतली आती है। शिक्षकों से घृणा हो जाती है। वह अपने ही दोस्तों और भाई-बहनों का शत्रु हो जाता है। माता-पिता से बदला लेने पर उतारू रहता है किंतु हाय री दुनिया! बरसों से इसी ढर्रे पर चली जा रही है। जाने इसका अंत कहाँ होगा!

Monday, June 7, 2010

एक कागज बनाने में कितने गिलास पानी लगता है!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
राजस्थान में पानी की भयंकर कमी हो गई है। राज्य के 237 में से 198 ब्लॉक डार्क जोन में चले गये हैं, और बचे हुए भी डार्क जोन में जाने को तैयारी हैं। इसलिये इन दिनों कुछ समझदार लोग जल संरक्षण के प्रति जागरूक हो गये हैं। नगर की एक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था के प्रिंसीपल जो कि देश के प्रख्यात शिक्षाविद् भी हैं, ने मुझे इसी संदर्भ में एक जोरदार बात कही। वे बोले कि मैं इन दिनों अपनी स्कूल के बच्चों को पानी व्यर्थ होने से बचाने के नुस्खे समझा रहा हूँ। उन नुस्खों में एक नुस्खा यह भी शामिल था कि जब घर में कोई अतिथि आये तो आप उनसे आदर पूर्वक पूछें कि क्या आप पानी पियेंगे ? यदि वे पानी पीने की इच्छा व्यक्त करें तो उनके लिये आप पानी लायें। बात सही थी, घर में अतिथियों के आगमन पर हम पूरे-पूरे गिलास भर कर उन्हें पानी आॅफर करते हैं। कई अतिथियों को पानी की आवश्यकता नहीं होती, इस कारण कई गिलास पानी प्रतिदिन व्यर्थ चला जाता है। मैंने भी प्रिंसीपल साहब के इस नुस्खे का समर्थन किया। संयोगवश कल मुझे एक स्कूल में जाना पÞडा। मेरी पुत्री विगत कई बरसों से वहां पÞढती है। इस बरस वह दसवीं कक्षा उत्ताीर्ण करके ग्यारहवीं में आई है। यही वह सोपान होता है जहां बच्चे को विज्ञान, वाणिज्य अथवा कला विषय चुनने होते हैं। विषयों के चयन के लिये निर्धारित फार्म, बोर्ड की परीक्षाओं से पहले ही स्कूल मैनेजमेंट ने भरवा लिये थे। जब दसवीं की परीक्षा का रिजल्ट आ गया तो मुझे पता लगा कि एक और फार्म भरना है। मैं उसी फार्म को भरने के लिये स्कूल गया था। मुझे यह देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ कि उस नये फार्म में जो जानकारियां मांगी गई थीं, वे केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा जारी अंक तालिका में दी गई हैं। इतना ही नहीं, स्कूल क्लर्क ने यह भी कहा कि आप इण्टरनेट से डाउनलोड अंकतालिका की एक छाया प्रति भी इस फार्म के साथ लगायें।
मैंने स्कूल काउण्टर पर बैठे क्लर्क से कहा कि आप यह फार्म क्यों भरवा रहे हैं ? इस सम्बन्ध में एक फार्म पहले ही भरा जा चुका है और नये फार्म में केवल वही बातें पूछी गई हैं जो कि बोर्ड द्वारा जारी अंक तालिका में दी हुई हैं। आप बिना मतलब कागज, समय, लोगों की ऊर्जा, उनके स्कूल तक आने जाने का पैट्रोल बर्बाद कर रहे हैं। इतना सुनते ही उन्होंने मुझे हैरानी से देखते हुए कहा- और लोग भी तो भर रहे हैं? आपको क्या परेशानी है? मैंने कहा, भाई! जिन मां-बाप को अपने बच्चे आपके स्कूल में पÞढाने हैं, वे आपकी सब बातें मानेंगे, किंतु आप भी तो सोचिये कि आप देश का कागज, पैट्रोल और बिजली खराब क्यों कर रहे हैं? मेरी बात बाबूजी की समझ में, न तो आनी थी और न आई। वे झल्ला कर बोले, आपको फार्म नहीं भरना है तो मत भरिये, मुझे तंग क्यों कर रहे हैं! देश का आम नागरिक होने के कारण मैं बाबूजी को आगे कुछ कहने की स्थिति में नहीं था, सो कुछ नहीं कह सका किंतु मन में यह सोचता हुआ स्कूल की सीिढयों से उतरा कि एक ओर वे प्रिंसीपल हैं जो एक-एक गिलास पानी के लिये चिंतित हैं और दूसरी तरफ कुछ लोग इतना भी नहीं जानते कि एक कागज बनाने में कितने गिलास पानी लगता है!

Monday, May 24, 2010

हैलो सर ! मैं ढगला राम बोल रहा हूं!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
मोबाइल की घण्टी बजती है। साहब गहरी नींद में हैं। बड़ी मुश्किल से आज नींद लेने का समय मिला है। पिछली दो रातों से जिले भर के गांवों के दौरे पर थे। दिन-दिन भर चलने वाली बैठकें, जन समस्याएं, ढेरों शिकायती पत्र, लम्बे चौड़े विचार-विमर्श और फिर रात में बैठकर सैंकड़ों रिपोर्टें पढ़कर उन पर टिप्पणियां करते-करते हालत पतली हो जाती है। रात को भी देर से ही बिस्तर पर आ पाते हैं। उस पर ये मोबाइल की घण्टी। वे मन में झुंझलाते हैं किंतु हैलो बोलते समय पूरी तरह शांत रहते हैं।
हैलो सर ! मैं ढगला राम बोल रहा हूँ ! दूसरे छोर से आवाज आती है।
कहाँ से ? साहब की नींद अब तक काफी उड़ चुकी है।
सर, मैं सरपंच पति हूँ।
जी बताइये, क्या सेवा कर सकता हूँ ? मन की खीझ को छिपाकर साहब जवाब देते हैं।
हमारे गांव में तीन दिन से पानी नहीं आ रहा और अभी बिजली भी नहीं आ रही।
अच्छा ! आपने अपने क्षेत्र के बिजली और पानी विभागों के जेइएन्स से बात की क्या?
नहीं की।
क्यों?
उनसे बात करने का कोई फायदा नहीं है, पानी वाले जेईएन कहेंगे कि पाइप लाइन फूटी हुई है प्रस्ताव एसई आॅफिस भेज रखा है और बिजली वाले कहेंगे कि पीछे से गई हुई है।
तो अपने क्षेत्र के सहायक अभियंताओं से बात करें।
उनसे भी बात करने का कोई फायदा नहीं है।
क्यों?
वो कहेंगे कि जेइन से बात करो।
तो आप अपने क्षेत्र के अधिशासी अभियंता या अधीक्षण अभियंता से बात करते। जलदाय विभाग और बिजली विभाग के किसी भी अफसर से बात करते। आपने सीधे ही मुझे फोन लगा दिया।
सर मैंने सोचा कि आप जिले के मालिक हैं। सारे विभाग आपके नीचे हैं, इसलिये आपसे ही कह देता हूँ, अब जिसको कहना हो, आप ही कहिये। हमारे यहां तो अभी बिजली चालू होनी चाहिये और कल सुबह पानी आना चाहिये। यदि आप सुनवाई नहीं करते हैं तो मैं मंत्रीजी को फोन लगाता हूँ।
इतनी रात में! कितने बजे हैं अभी?
रात के दो बज रहे हैं।
लोगों को सोने तो दो, दिन निकल जाये तब बात करना।
आप लोग तो वहां एसी में आराम से सो रहे हैं, आपको मालूम है हम कितनी तकलीफ में हैं। कल सुबह पानी आ जायेगा या मैं मंत्रीजी को फोन लगाऊँ ?
अरे यार...... अच्छा सुबह बात करना, सुबह ही कुछ हो सकेगा।
सुबह-वुबह कुछ नहीं। आप जवाब हाँ या ना में दीजिये।
साहब झुंझलाकर फोन काट देते हैं, उनकी इच्छा होती है कि फोन को स्विच आॅफ करके सो जायें किंतु कर नहीं पाते, कौन जाने कब एमरजेंसी कॉल आ जाये। वे फिर से सोने का प्रयास करते हैं किंतु सो नहीं पाते। वैसे भी ब्लड प्रेशर और शुगर के पेशेंट हैं। काफी देर करवटें बदलने के बाद मोबाइल में टाइम देखते हैं। चार बजने वाले हैं। वे उठकर मार्निंग वाक के लिये तैयार होते हैं। अभी वे पैण्ट पहनते ही हैं कि मोबाइल फिर से बजता है। हैलो सर! मैं कोजाराम बोलता हूँ। हमारे यहाँ ........। साहब मोबाइल हाथ में लेकर घर से बाहर निकल लेते हैं। जब से मोबाइल फोन आया है, साहब की रात इसी तरह कटती है।

Monday, May 17, 2010

मुख्यमंत्री का जादू चल गया!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
इसी 12 फरवरी की बात है जब गोकुलभाई भट्ट के 113वें जन्म दिवस पर आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने वक्तव्य दिया था कि शादियों में धन का भौण्डा प्रदर्शन करने वाले बेशर्म हैं। महंगी शादियों में जाकर मैं स्वयं भी शर्मसार हो जाता हूँ। शादियों में 10-10 हजार लोगों का खाना, और एक-एक प्लेट हजार रुपये की! लोग एक-एक कार्ड 500 से 2000 रुपये तक का छपवाते हैं! ऐसे लोग जब शानो शौकत का प्रदर्शन करते हुए महंगी गाड़ियों में विवाह के कार्ड देने आते हैं तो मूड खराब हो जाता है! मुख्यमंत्री के ये शब्द ऐतिहासिक हैं जो शताब्दियों तक स्मरण रखे जाने के योग्य हैं। ये शब्द आज मुझे अचानक ही फिर से याद आ गये।
बात यह हुई कि इस बार अप्रेल-मई माह में मेरे पास विवाह के 10 वैवाहिक निमंत्रण आये हैं, यद्यपि मैंने एक नियम बना रखा है कि जब तक सगे-सम्बन्धी अथवा पारिवारिक मित्र के यहां विवाह न हो, मैं विवाह समारोह में नहीं जाता, इसलिये इस बार भी मैं, एक भी विवाह में नहीं गया किंतु इस बार मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि मेरे पास जो 10 निमंत्रण पत्र आये, उन सभी का आकार अपेक्षाकृत काफी कम था। तो क्या, मुख्यमंत्री का जादू चल गया! कार्डों के आकार छोटे होने लगे!वास्तव में यह देखकर हैरानी होती है और ग्लानि भी होती है कि जब भारत सरकार का योजना आयोग यह कह रहा है कि इस देश में 38 प्रतिशत परिवार गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, उनके घरों में दोनों समय चूल्हा नहीं जलता, तब कुछ लोग दस-दस हजार लोगों को भोजन करवाते हैं! मानो वैवाहिक समारोह नहीं करके शक्ति प्रदर्शन कर रहे हों!
लगे हाथों आजकल करोड़पतियों के विवाहों में चले नये प्रचलन की भी बात कर ली जाये। अमरीका और यूरोपीय देशों में रहने वाले कोट्याधिपति भारतीयों में आजकल नया ट्रेंड चला है। वे अपने बच्चों के विवाह के लिये भारत आते हैं। वैवाहिक समारोह के लिये कल्चरल हैरिटेज घोषित पुराने किलों और हवेलियों को किराये पर लेते हैं। वे पाँच-दस दिन उनमें ठहरते हैं। इस दौरान उस किले या हवेली में केवल वे कोट्याधिपति लोग और उनके निकट रक्त सम्बन्धी अथवा पारिवारिक मित्र ही प्रवेश कर सकते हैं। इस दौरान पूरा वातावरण पारिवारिक होता है। कोई भी दो चेहरे वहाँ ऐसे नहीं होते, जो एक दूसरे के लिये अपरिचित हों। किसी तरह का शक्ति प्रदर्शन, भीड़-भाड़, रेला-ठेला, धक्का-मुक्की और प्लेटों की खींचतान नहीं होती। इस प्रचलन को देखकर मेरे मस्तिष्क में सदैव यह प्रश्न उठता है- जब वे इतने पैसे वाले होकर भी अपने विवाह समारोह को इतने कम लोगों तक सीमित रख सकते हैं तो मध्यम आय वर्ग के लोग क्यों नहीं! पैसे वालों और समाज के ताकतवर लोगों को सोचना चाहिये कि जब राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर जैसे बड़े-बड़े राजकुमार समाज के हित के लिये अपने महलों को छोÞडकर जंगलों और युद्ध के मैदानों में चले गये। उन्होंने सोने के सिंहासन त्यागकर काषाय वस्त्र अथवा वीरवेश धारण कर लिये तब ऐसी कौनसी बाधा है जो हमें उनके आदर्शों को अपनाने से रोकती है! संसार का ऐसा कौनसा धर्म है जिसमें सादा जीवन अपनाने पर जोर नहीं दिया गया हो!

Friday, May 14, 2010

सामाजिक चिंता का विषय होने चाहिए सगोत्रीय विवाह !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
सारी दुनिया मानती है कि परमात्मा ने सबसे पहले एक स्त्री और एक पुरुष को स्वर्ग से धरती पर उतारा। हम उन्हें एडम और ईव, आदम और हव्वा तथा आदिमनु और इला (सतरूपा) के नाम से जानते हैं। उन्हीं की संतानें फलती-फूलती हुई आज धरती पर चारों ओर धमचक मचाये हुए हैं। उन्हीं की संतानों ने अलग-अलग रीति-रिवाज और आचार-विचार बनाये। सभ्यता का रथ आगे बढ़ने के साथ-साथ रक्त सम्बन्धों से बंधे हुए लोग विभिन्न समाजों, संस्कृतियों, धर्मों और देशों में बंध गये। इस बंधने की प्रक्रिया में ही उनके दूर होने की प्रक्रिया भी छिपी थी। यही कारण है कि हर संस्कृति में अलग तरह की मान्यताएं हैं। इन मान्यताओं में अंतर्विरोध भी हैं, परस्पर टकराव भी है और एक दूसरे से सीखने की ललक भी है। भारतीय सनातन संस्कृति में सगोत्र विवाह न करने की परम्परा वैदिक काल से भी पुरानी है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि निकट रक्त सम्बन्धियों में विवाह होने से कमजोर संतान उत्पन्न होती है। सामाजिक स्तर पर भी देखें तो सगोत्रीय विवाह न करने की परम्परा से समाज में व्यभिचार के अवसर कम होते हैं। एक ही कुल और वंश के लोग मर्यादाओं में बंधे होने के कारण सदाचरण का पालन करते हैं जिससे पारिवारिक और सामाजिक जटिलताएं उत्पन्न नहीं होतीं तथा संस्कृति में संतुलन बना रहता है। यही कारण है कि सदियों से चली आ रही परम्पराओं के अनुसार हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में जातीय खांपों की पंचायतें सगोत्रीय विवाह को अस्वीकार करती आई है तथा इस नियम का उल्लंघन करने वालों को कठोर दण्ड देती आई है। कुछ मामलों में तो मृत्युदण्ड तक दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को मृत्युदण्ड अथवा किसी भी तरह का दण्ड देने का अधिकार केवल न्यायिक अदालतों को है। फिर भी परम्परा और सामाजिक भय के चलते लोग, जातीय पंचायतों द्वारा दिये गये मृत्यु दण्ड के निर्णय को छोड़ कर अन्य दण्ड को स्वीकार करते आये हैं। इन दिनों हरियाणा में सगोत्रीय विवाह के विरुद्ध आक्रोश गहराया है तथा कुछ लोग सगोत्रीय विवाह पर कानूनन रोक लगाने की मांग कर रहे हैं। जबकि सगोत्रीय विवाह ऐसा विषय नहीं है जिसके लिये कानून रोक लगाई जाये। हजारों साल पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं के चलते यह विषय वैयक्तिक भी नहीं है कि जब जिसके जी में चाहे, वह इन मान्यताओं और परम्पराओं को अंगूठा दिखा कर सगोत्रीय विवाह कर ले। वस्तुत: यह सामाजिक विषय है और इसे सामाजिक विषय ही रहने दिया जाना चाहिये। इसे न तो कानून से बांधना चाहिये और न व्यक्ति के लिये खुला छोड़ देना चाहिये। सगोत्रीय विवाह का निषेध एक ऐसी परम्परा है जिसके होने से समाज को कोई नुकसान नहीं है, लाभ ही है, इसलिये इस विषय पर समाज को ही पंचायती करनी चाहिये। जातीय खांपों की पंचायतों को भी एक बात समझनी चाहिये कि देश में कानून का शासन है, पंच लोग किसी को किसी भी कृत्य के करने अथवा न करने के लिये बाध्य नहीं कर सकते। उन्हें चाहिये कि वे अपने गांव की चौपाल पर बैठकर सामाजिक विषयों की अच्छाइयों और बुराइयों पर विचार-विमर्श करें तथा नई पीढ़ी को अपनी परम्पराओं, मर्यादाओं और संस्कृति की अच्छाइयों से अवगत कराते रहें। इससे आगे उन्हें और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। जोर-जबर्दस्ती तो बिल्कुल भी नहीं।

Sunday, May 2, 2010

काश माधुरी ने मोहनलाल की जीवनी को पढ़ लिया होता !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
यदि भारतीय राजनयिक माधुरी गुप्ता ने मोहनलाल भास्कर की जीवनी पढ़ ली होती तो आज वह सींखचों के पीछे न बंद होती। मोहनलाल 1965 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान के आणविक केन्द्रों की जानकारी एकत्रित करने के लिये गुप्त रूप से पाकिस्तान गये थे। ये वे दिन थे जब जुल्फिाकर अली भुट्टो ने यू एन ओ में यह वक्तव्य देकर पाकिस्तानियों के मन में भारतीयों के विरुद्ध गहरा विष भर दिया था कि वे दस हजार साल तक भारत से लडेंगे। मोहनलाल पाकिस्तान में इस कार्य के लिये जाने वाले अकेले न थे, उनका पूरा नेटवर्क था। दुर्भाग्य से उनके ही एक साथी ने रुपयों के लालच में पाकिस्तानी अधिकारियों के समक्ष मोहनलाल का भेद खोल दिया और वे पकड़ लिये गये।
मोहनलाल पूरे नौ साल तक लाहौर, कोटलखपत, मियांवाली और मुलतान की जेलों में नर्क भोगते रहे। पाकिस्तान के अधिकारी चाहते थे कि मोहनलाल पाकिस्तानी अधिकारियों को उन लोगों के नाम-पते बता दें जो भारत की तरफ से पाकिस्तान में रह कर कार्य कर रहे हैं। पाकिस्तानी अधिकारियों के लाख अत्याचारों के उपरांत भी मोहनलाल ने उन्हें कोई जानकारी नहीं दी। पाकिस्तान की जेलों में मोहनलाल को डण्डों, बेंतों और कोड़ों से पीटा जाता था। उन्हें नंगा करके उन पर जेल के सफाई कर्मचारी छोड़ दिये जाते थे जो उन पर अप्राकृतिक बलात्कार करते थे। छ:-छ: फौजी इकट्ठे होकर उन्हें जूतों, बैल्टों और रस्सियों से पीटते थे। इस मार से मोहनलाल बेहोश हो जाते थे फिर भी मुंह नहीं खोलते थे।
मोहनलाल को निर्वस्त्र करके उल्टा लटकाया जाता और उनके मलद्वार में मिर्चें ठंूसी जातीं। उन्हें पानी के स्थान पर जेल के सफाई कर्मचारियों और कैदियों का पेशाब पिलाया जाता। जेल के धोबियों से उनके कूल्हों, तलवों और पिण्डलियों पर कपड़े धोने की थापियां बरसवाई जातीं। इतने सारे अत्याचारों के उपरांत भी मोहनलाल मुंह नहीं खोलते थे और यदि कभी खोलते भी थे तो केवल पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों के मुंह पर थूकने के लिये। इस अपराध के बाद तो मोहनलाल की शामत ही आ जाती। उन्हें पीट-पीटकर बेहोश कर दिया जाता और होश में लाकर फिर से पीटा जाता। उनकी चमड़ी उधड़ जाती जिससे रक्त रिसने लगता। उनके घावों पर नमक-मिर्च रगड़े जाते और कई दिन तक भूखा रखा जाता। फिर भी मोहनलाल का यह नियम था कि जब भी पाकिस्तान का कोई बड़ा सैनिक अधिकारी उनके निकट आता, वे उसके मुँह पर थूके बिना नहीं मानते थे।
पैंसठ का युद्ध समाप्त हो गया। उसके बाद इकहत्तर का युद्ध आरंभ हुआ। वह भी समाप्त हो गया किंतु मोहनलाल की रिहाई नहीं हुई। जब हरिवंशराय बच्चन को मोहनलाल के बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने भारत सरकार से सम्पर्क करके उनकी रिहाई करवाई। उसके बाद ही भारत के लोगों को मोहनलाल भास्कर की अद्भुत कथा के बारे में ज्ञात हुआ। काश! माधुरी ने भी मोहनलाल भास्कर की जीवनी पढ़ी होती तो उसे भी अवश्य प्रेरणा मिली होती कि भारतीय लोग अपने देश से अगाध प्रेम करते हैं और किसी भी स्थिति में देश तथा देशवासियों से विश्वासघात नहीं करते।

Thursday, April 29, 2010

उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
पाकिस्तानी दूतावास में द्वितीय सचिव स्तर की महिला राजनयिक को गोपनीय सूचनाएं पाकिस्तान के हाथों बेचने के आरोप में पकड़ा गया। भारतीय एजेंसियों के अनुसार यह तिरेपन वर्षीय महिला राजनयिक, भारतीय गुप्तचर एजेंसी रॉ के इस्लामाबाद प्रमुख से महत्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त करती थी तथा उन्हें पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आई एस आई को बेचती थी। कुछ और अधिकारी भी इस काण्ड में संदेह के घेरे में हैं! इस समाचार को पढ़ कर विश्वास नहीं होता! सारे जहां से अच्छा! मेरा भारत महान! इण्डिया शाइनिंग! हम होंगे कामयाब! माँ तुझे सलाम! इट हैपन्स ओनली इन इण्डिया! जैसे गीतों और नारों को गाते हुए कभी न थकने वाले भारतीय लोग, क्रिकेट के मैदानों में मुंह पर तिरंगा पोत कर बैठने वाले भारतीय लोग और सानिया मिर्जा को कंधों पर बैठा कर चक दे इण्डिया गाने वाले भारतीय लोग क्या अपने देश को इस तरह शत्रुओं के हाथों बेचेंगे! संभवत: ये गीत और नारे अपने आप को धोखा देने के लिये गाये और बोले जाते हैं! आखिर इंसान के नीचे गिरने की कोई तो सीमा होती होगी! पाकिस्तान के लिये गुप्त सूचनायें बेचने और शत्रु के लिये गुप्तचरी करने वाले इन भारतीयों के मन में क्या एक बार भी यह विचार नहीं आया कि जब उनकी सूचनाओं के सहारे पाकिस्तान के आतंकवादी या सैनिक भारत की सीमाओं पर अथवा भारत के भीतर घुसकर हिंसा का ताण्डव करेंगे तब उनके अपने सगे सहोदरे भी मौत के मुख में जा पड़ेंगे! रक्त के सम्बन्धों से बंधे वे माता-पिता, भाई-बहिन, बेटे-बेटी और पोते-पोती भी उन रेलगाड़ियों में यात्रा करते समय या बाजार में सामान खरीदते समय या स्कूलों में पढ़ते समय अचानक ही मांस के लोथड़ों में बदल जायेंगे, जिनके लिये ये भारतीय राजनयिक और गुप्तचर अधिकारी पैसे लेकर सूचनायें बेच रहे थे! कौन नहीं जानता कि हमारी सीमाओं पर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा! पाकिस्तान की सेना और गुप्तचर एजेंसियों ने सीमा पर लगी तारबंदी को एक तरह से निष्फल कर दिया है। तभी तो सितम्बर 2009 में पाकिस्तान की ओर से राजस्थान की सीमा में भेजी गई बारूद और हथियारों की दो बड़ी खेप पकड़ी जा चुकी हैं जिनमें 15 किलो आर डी एक्स, 4 टाइमर डिवाइस, 8 डिटोनेटर, 12 विदेशी पिस्तौलें तथा 1044 कारतूस बरामद किये गये। इस अवधि में जैसलमेर और बाड़मेर से कम से कम एक क्विंटल हेरोइन बरामद की गई है। अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पार से लाये जा रहे हथियार और गोला बारूद का बहुत बड़ा हिस्सा देश के विभिन्न भागों में पहुंचता है। पिछले कुछ सालों में दिल्ली, बंगलौर, पूना, जयपुर और बम्बई सहित कई नगर इस गोला बारूद के दंश झेल चुके हैं। हाल ही में बंगलौर में क्रिकेट के मैदान में आरडीएक्स की भारी मात्रा पहुंच गई और वहां दो बम विस्फोट भी हुए। क्यों भारतीय सपूत अपने देश की सरहदों की निगहबानी नहीं कर पा रहे हैं ? जिस समय मुम्बई में कसाब अपने आतंकवादी साथियों के साथ भारत की सीमा में घुसा और ताज होटल में घुसकर पाकिस्तानी आतंकियों ने जो भीषण रक्तपात किया उस समय भी हमारे देश की सीमाओं पर देश के नौजवान सिपाही तैनात थे फिर भी कसाब और उसके साथी अपने गंदे निश्चयों को कार्य रूप देने में सफल रहे! सीमा की चौकसी की असफलता हमारे बहादुर सिपाहियों की मौत के रूप में हमारे सामने आती है। अभी कुछ दिनों पहले एक आंकड़ा समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था जिसमें कहा गया था कि राजस्थान ने कारगिल के युद्ध में 67 जवान खोये किंतु कारगिल का युद्ध समाप्त होने के बाद राजस्थान के 410 सपूतों ने भारत की सीमाओं पर प्राण गंवाये। इन आंकड़ों को देखकर मस्तिष्क में बार-बार प्रश्न ये प्रश्न उठते हैं- कहाँ गये वो लोग जिनकी आँखें इस मुल्क की सरहद की निगेबान हुआ करती थीं! कहाँ गये वे लोग जिन्होंने ये गीत लिखा था - उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आँखें!

Tuesday, April 27, 2010

मेरी भैंस ने आई पी एल कर दिया रे!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
आजकल ब्लॉग लेखन का भी एक अच्छा खासा धंधा चल पड़ा है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी भाषा में भी कई तरह के रोचक ब्लॉग उपलब्ध हैं। एक ब्लॉग पर मुझे एक मजेदार कार्टून दिखाई पड़ा। इस कार्टून में एक भैंस गोबर कर रही है और पास खड़ा उसका मालिक जोर-जोर से चिल्ला रहा है- मेरी भैंस ने आई पी एल कर दिया रे! इस वाक्य को पढ़कर अचानक ही हंसी आ जाती है किंतु यदि क्षण भर ठहर कर सोचा जाये कि भैंस का मालिक भैंस द्वारा गोबर की जगह आई पी एल करने से सुखी है कि दुखी तो बुद्धि चकरा कर रह जाती है! इस देश में हर आदमी कह रहा है कि आई पी एल जैसी वारदात फिर कभी न हो किंतु वास्तव में तो वह केवल इतना भर चाह रहा है कि आई पी एल जैसी वारदात कोई और न कर ले। करोड़ों लोग हैं जो बाहर से तो आई पी एल को गालियाँ दे रहे हैं किंतु भीतर ही भीतर उनके मन में पहला, दूसरा और तीसरा लड्डू फूट रहा है काश यह सुंदर कन्या मेरे घर में रात्रि भर विश्राम कर ले अर्थात् एक बार ही सही, आई पी एल कर दिखाने का अवसर उसे भी मिल जाये।
कौन नहीं चाहेगा कि देश में भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु पैदा हों और इस देश के लिये कुछ अच्छा करते हुए वे फांसी के फंदे पर झूल जायें। फिर भी अपने बेटे को कोई भगतसिंह, सुखदेव या राजगुरु नहीं बनने देता। अपने घर में तो वे धीरू भाई अम्बानी, ललित मोदी, राखी सावंत, सानिया मिर्जा, शाहरुख खान या महेन्द्रसिंह धोनी जैसी औलाद के जन्म की कामना करेगा ताकि घर में सोने-चांदी और रुपयों के ढेर लग जायें।
कभी-कभी तो लगता है कि देश में बहुत सारे लोग आई पी एल जैसे मोटे शिकार कर रहे हैं। मेडिकल काउंसिल आॅफ इण्डिया के अध्यक्ष केतन देसाई के घर से एक हजार आठ सौ पचास करोड़ रुपये नगद और डेढ़ टन सोना निकला है तथा अभी ढाई हजार करोड़ रुपये और निकलने की आशंका है। यह घटना भी अपने आप में किसी आई पी एल से कम थोड़े ही है! केतन देसाई की गैंग ने करोड़ों रुपये लेकर मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने, थोड़े दिन बाद उसकी कमियां ढूंढ कर मान्यता हटाने और दो करोड़ रुपये लेकर मान्यता वापस बहाल करने का खेल चला रखा था। रिश्वत बटोरने के इस महा आयोजन के लिये केतन देसाई ने भी आई पी एल की तर्ज पर बड़े-बड़े अफसरों और उनके निजी सचिवों की टीमों को बोलियां लगाकर खरीदा था। अभी कुछ दिन पहले मध्य प्रदेश में कुछ आई ए एस अफसरों के घरों से करोड़ों रुपये नगद, सोने चांदी के बर्तन और हीरे जवाहरात बरामद किए गये थे। एक काण्ड में तो मियां-बीवी दोनों ही शामिल थे। दोनों ही प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी थे और उनकी भैंसें जमकर आईपीएल अर्थात् सोने का गोबर करती थीं। अब कोई दो-चार या दस-बीस भैंसें हों तो गिनायें। अब तो स्थान-स्थान पर भैंसें आई पी एल कर रही हैं। सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य किसी-किसी भैंस का आई पी एल ही चौरोहे पर आकर प्रकट होता है!

धरती के भगवानो! क्या औरत के बिना दुनिया चल सकती है!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
अहमदाबाद में कचरे की पेटी में पडे हुए 15 कन्या भू्रण मिले। कुछ भू्रण कुत्ते खा चुके थे, वास्तव में भू्रणों की संख्या 15 से कहीं अधिक थी। ये तो वे भू्रण थे जो रास्ते पर रखी कचरे की पेटी में फैंक दिये जाने के कारण लोगों की दृष्टि में आ गये। यह कार्य तो पता नहीं चोरी-चोरी कब से चल रहा होगा! टी वी के पर्दे पर इस हृदय विदारक दृश्य को देखकर आत्मा कांप उठी। यह कैसी दुनिया है जिसमें हम रह रहे हैं! ये कौनसा देश है जिसकी दीवारों पर मेरा भारत महान लिखा हुआ रहता है किंतु कचरे के ढेरों में कन्याओं के भू्रण पडे मिलते हैं!
क्या इसमें कोई संदेह है कि ये भ्रूण उन्हीं माताओं के गर्भ में पले हैं जिनकी सूरत में संतान भगवान का चेहरा देखती है! क्या इसमें भी कोई संदेह है कि ये गर्भपात उन्हीं पिताओं की सहमति और इछा से हुए हैं जिन्हें कन्याएं भगवान से भी अधिक सम्मान और प्रेम देती हैं! क्या इसमें भी कोई संदेह है कि ये गर्भपात उन्हीं डॉक्टरों ने करवाये है जिन्हें धरती पर भगवान कहकर आदर दिया जाता है!
देश में हर दिन कचरे के ढेर पर चोरी-चुपके फैंक दिये जाने वाले सैंकÞडों कन्या भू्रण धरती के भगवानों से चीख-चीख कर पूछते हैं कि क्या औरतों के बिना यह दुनिया चल सकती है! इस सृष्टि में जितने भी प्राणी हैं उन्होंने अपनी माता के गर्भ से ही जन्म लिया है। भगवानों के अवतार भी माताओं के गर्भ से हुए हैं। जब माता ही नहीं होगी, तब संतानों के जन्म कैसे होंगे। यदि हर घर में लडके ही लडके जन्म लेंगे तो फिर लÞडकों के विवाह कैसे होंगे। जिस वंश बेल को आगे बढाने के लिये पुत्र की कामना की जाती है, उस पुत्र से वंश बेल कैसे बÞढेगी यदि उससे विवाह करने वाली कोई कन्या ही नहीं मिलेगी!
आज भारत का लिंग अनुपात पूरी तरह गÞडबÞडा गया है। उत्तार भारत में यह कार्य अधिक हुआ है। लाखों लोगों ने अपनी कन्याओं को गर्भ में ही मार डाला। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा देश के सर्वाधिक समृद्ध, शिक्षित और विकसित प्रदेश माने जाते हैं, इन्हीं प्रदेशों में गर्भपात का जघन्य अपराध सर्वाधिक हुआ। मध्य प्रदेश और राजस्थान भी किसी से पीछे नहीं।
जब से लोगों के मन में धर्म का भय समाप्त होकर पैसे का लालच पनपा है और ईश्वरीय कृपा के स्थान पर पूंजी और टैक्नोलोजी पर भरोसा जमा है, तब से औरत चारों तरफ से संकट में आ गई है। पिताओं और पतियों के मन में चलने वाला पैसे का गणित, औरतों के जीवन के लिये नित नये संकट ख़डे कर रहा है।
एक तरफ तो औरतों को पÞढने और कमाने के लिये घर से बाहर धकेला जा रहा है। दूसरी ओर सनातन संस्कारों और संस्कृति से कटा हुआ समाज औरतों को लगातार अपना निशाना बना रहा है। यही कारण है कि न्यूज चैनल और समाचार पत्र महिलाओं के यौन उत्पीÞडन, बलात्कार और कन्या भू्रण हत्याओं के समाचारों से भरे हुए रहते हैं। आरक्षण, क्षेत्रीयता और भाषाई मुद्दों पर मरने मारने के लिये तुले रहने की बजाय हमें अपने समाज को सुरक्षित बनाने पर ध्यान देना चाहिये, इसी में सबका भला है।

Sunday, April 25, 2010

आईपीएल और बीपीएल के बीच हिन्दुस्तान रो रहा है!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
आईपीएल को आज भले ही सैक्स (नंगापन), स्लीज (बेशर्मी) और सिक्सर्स (छक्को) का खेल कहा जा रहा हो किंतु वास्तव में यह स्त्री, शराब और सम्पत्ति का खेल है। जिन लोगों ने आई पी एल खड़ी की, उन लोगों ने स्त्री, शराब और सम्पत्ति जुटाने के लिये मानव गरिमा को नीचा दिखाया तथा भारतीय संस्कृति को गंभीर चुनौतियां दीं। केन्द्रीय खेल मंत्री एम. एस. गिल आरंभ से ही आई पी एल के मैदान में चीयर गर्ल्स के अधनंगे नाच तथा शराब परोसने के विरुद्ध थे। राजस्थान सरकार ने जयपुर में चीयर गर्ल्स को अधनंगे कपड़ों में नाचने की स्वीकृति नहीं दी और न ही खेल के मैदान में शराब परोसने दी।
जिस समय पूरे विश्व को मंदी, बेरोजगारी और निराशा का सामना करना पड़ा, वहीं हिन्दुस्तान में सबकी आंखों के सामने आईपीएल पनप गया। अरबों रुपयों के न्यारे-वारे हुए। सैंकड़ों करोड़ रुपये औरतों और शराब के प्यालों पर लुटाये गये। सैंकड़ों करोड़ रुपये प्रेमिकाओं पर न्यौछावर किये गये। सैंकड़ों करोड़ का सट्टा हुआ। सैंकड़ों करोड़ का हवाला हुआ और सैंकड़ों करोड़ रुपयों में क्रिकेट खिलाड़ियों की टीमें बोली लगकर ऐसे बिकीं जैसे भेड़ों के झुण्ड बिकते हैं। शिल्पा शेट्टी जैसी फिल्मी तारिकायें सिल्वर स्क्रीन से उतर कर खेल के मैदानों में छा गर्इं। विजय माल्या जैसे अरबपतियों के पुत्र और सौतेली पुत्रियां आई पी एल की पार्टियों में ललित मोदी और कैटरीना कैफ जैसे स्त्री-पुरुषों से लिपट-लिपट कर उन्हें चूमने लगे।
जिस समय पूरा विश्व मंदी की चपेट में था, तब भारत में महंगाई का दैत्य गरज रहा था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह कैसे संभव है कि जब पूरी दुनिया मंदी की मार से जूझ रही है, भारत में दालों के भाव सौ रुपये किलो को छू रहे हैं! चीनी आसमान पर जा बैठी। दूध 32 रुपये किलो हो गया। मिठाइयों में जहर घुल गया। रेलवे स्टेशनों पर दीवार रंगने के डिस्टेंपर से बनी हुई चाय बिकने लगी। जाने कब और कैसे जनता की जेबों में एक लाख 70 हजार करोड़ रुपये के नकली नोट आ पहुंचे।
आज हम इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि भारत के धन के तीन टुकड़े हुए। एक लाख 70 हजार करोड़ रुपये तो नकली नोटों के बदले आतंकवादियों और तस्करों की जेबों में पहुंचे। पच्चीस लाख करोड़ रुपये स्विस बैंकों में जमा हुए और हजारों करोड़ रुपये (अभी टोटल लगनी बाकी है) आई पी एल के मैदानों में दिखने वाली औरतों के खातों में पहुंच गये। ये ही वे तीन कारण थे जिनसे भारत में महंगाई का सुनामी आया।
एक तरफ जब देश में आई पी एल का अधनंगा नाच चल रहा था, तब दूसरी तरफ भारत का योजना विभाग यह समझने में व्यस्त था कि भारत में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या कितनी है ताकि राज्यों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज का आवंटन किया जा सके। योजना आयोग की तेंदुलकर समिति ने भारत में बीपीएल परिवारों की संख्या 38 प्रतिशत बताई है किंतु कुछ राज्यों में यह 50 प्रतिशत तक हो सकती है। आई पी एल देखने वालों की जानकारी के लिये बता दूं कि बीपीएल उसे कहते हैं जिसे जीवन निर्वाह के लिये 24 घण्टे में 2100 कैलोरी ऊर्जा भी नहीं मिलती। यही कारण है कि आई पी एल और बीपीएल के बीच हिन्दुस्तान आठ-आठ आँसू रो रहा है।

Friday, April 16, 2010

हे, कृष्णतेरे दर्शन की यह कैसी परीक्षा

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
इस बार फिर ब्रजभूमि जाना हुआ। वही ब्रजभूमि जिसकी धूल का स्पर्श करने के लिये सहस्रों वर्षों से भारत के कौने-कौने से श्रद्धालु आते हैं। वही ब्रजभूमि जिसके स्मरण मात्र से विष्णु भक्तों का रोम-रोम पुलकित हो जाता है। वही ब्रजभूमि जिसकी पावन धरा का स्पर्श करने के लिये स्वयं यमुनाजी हजारों किलोमीटर की यात्रा करके पहुंचती हैं और ब्रज की धूल में लोट-लोट कर स्वयं को धन्य अनुभव करती हैं। वही ब्रजभूमि जिसे काशीवास के बराबर महत्व मिला हुआ है किंतु खेद है मुझे! ऐसी पवित्र ब्रजभूमि में पहुंच कर इस बार मुझे कोई प्रसन्नता नहीं हुई। प्रसन्नता तो दूर मेरे रोम-रोम में कष्ट का संचार हो गया।
कभी चराते होंगे किशन कन्हाई यमुनाजी के कछार में गौऐं! कभी करते होंगे वे जगतजननी राधारानी का शृंगार करील कुंजों में छिपकर! कभी उठाया होगा उन्होंने गिरिराज इन्द्र का मान मर्दन करने के लिये! कभी मारा होगा उन्होंने कंस को मथुरा में! कभी नाची होगी मीरां वृंदावन की कुंज गलियों में! कभी गाये होंगे हरिदास निधि वन में! कभी रोये होंगे सूर और रैदास गौघाट पर बैठकर। कभी किया होगा भगवान वल्लभाचार्य ने वैष्णव धर्म का उद्धार जतिपुरा में! कभी लुटाये होंगे राज तीनों लोकों के रहीम और रसखान ने इस ब्रजभूमि पर! किंतु आज का ब्रज विशेषकर मथुरा और वृंदावन, भीड़ भरी बदबूदार गलियों वाले गंदे नगरों से अधिक कुछ भी नहीं है।
पूरे देश से लाखों लोग प्रतिदिन मथुरा और वृंदावन पहुंचते हैं। उन्हें भी मेरे ही समान निराशा का सामना करना पड़ता है जब वे देखते हैं कि यमुनाजी का श्याम जल अब पूरी तरह कोलतार जैसा काला, गंदा और बदबूदार हो गया है। उसमें आचमन और स्नान करना तो दूर रहा, कोई लाख चाहकर भी यमुनाजी के जल को स्पर्श नहीं कर सकता। देश भर से पहुंचे ये लाखों लोग वृंदावन में गंदगी, भीड़ और शोर पैदा करते हैं। शांति तो जैसे मथुरा और वृंदावन से पूरी तरह से मुंह छिपाकर कोसों दूर भाग गई है।
मथुरा में भगवान की जन्मभूमि तथा द्वारिकाधीश का मंदिर मुख्य हैं। जन्मभूमि के दर्शनों के लिये कड़ी सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ता है। भयभीत कर देने वाले कठोर चेहरों के तीन-तीन सुरक्षाकर्मी एक ही व्यक्ति को तीन-तीन बार टटोलते हैं। पूरे शरीर पर वे अपने मोटे, खुरदुरे हाथ चमड़ी पर गड़ा-गड़ाकर फेरते हैं जिसके कारण शरीर पर झुरझुरी सी दौड़ जाती है। वे पैण्ट-शर्ट की जेबों को तो टटोलते ही हैं, साथ ही आदमी की जांघों के बीच भी छानबीन करते हैं जिससे उनके हाथ आदमी के जननांगों से छूते हैं। जब उन्हें पूरी तसल्ली हो जाती है कि आदमी इस जांच से पूरी तरह तिलमिला गया है, तब कहीं जाकर वे छोड़ते हैं। महिला दर्शनार्थियों की ऐसी ही जांच महिला सुरक्षाकर्मियों द्वारा की जाती है। यह सुरक्षा जांच आदमी की गरिमा को ठेस पहुंचाती है जिसे कुछ तथाकथित वीआईपी को छोड़कर शेष सब को झेलना पड़ता है किंतु कहीं कोई प्रतिरोध नहीं होता। वृंदावन में मंदिरों की संख्या बहुत अधिक है फिर भी वहाँ रंगजी का मंदिर और बांके बिहारी का मंदिर मुख्य है। बांके बिहारी के मंदिर में तिल धरने को भी स्थान नहीं मिलता। अवकाश के दिन तो पूरी दिल्ली जैसे वहां उमड़ पड़ती है। वृंदावन के बंदर आदमी की आँखों पर से चश्मा उतार कर ले भागते हैं और तभी वापस करते है जब उन्हें कुछ खाने को दे। मथुरा और वृंदावन में चारों ओर ब्रजवासी पेड़े वाले के नाम से कई दुकानें खुली हुई हैं जिनमें खराब स्वाद के पेड़े बिकते हैं। दुकानों पर पानी मिला हुआ दूध बिकता है जिसमें पीला रंग मिलाकर उसे गाय का असली दूध जैसा दिखाने का प्रयास किया जाता है। ऐसी ब्रजभूमि अब किसी को आनंद नहीं देती।

Thursday, April 15, 2010

कुली कर लो केवल बीस रुपए में !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
भारतीय रेलवे संसार की चौथे नम्बर की सबसे बड़ी रेलवे है। लाखों यात्री प्रतिदिन भारत भर में फैले रेलवे स्टेशनों पर पहुंचते हैं। परम्परागत रूप से भारतीय लोग घर का बना हुआ खाना और अपने स्वयं के बिस्तरों में सोना पसंद करते हैं। इसलिये स्वाभाविक ही है कि विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा भारतीयों के पास यात्रा के दौरान सामान अधिक होता है किंतु पूरे भारत में बूढ़ों, बीमारों, बच्चों, औरतों और यहाँ तक कि गर्भवती औरतों को भी रेलवे स्टेशनों पर भारी सामान ढोते हुए देखा जा सकता है। बहुत कम लोग हैं जो कुली की सेवाएं प्राप्त करते हैं। अधिकतर यात्री मन ही मन कुलियों के द्वारा मांगे जाने वाले भारी भरकम पारिश्रमिक से डरे हुए होते हैं। विवशता होने तथा अन्य कोई उपाय नहीं होने की स्थिति में ही वे कुली को आवाज लगाने का दुस्साहस करते हैं। धनी लोगों की बात छोÞड दें। उन्हें कुलियों द्वारा मांगे जाने वाले पारिश्रमिक से डर नहीं लगता।
रेलवे ने कुलियों द्वारा एक फेरे में ढोये जाने वाले सामान का भार तथा उसके पारिश्रमिक की दर निर्धारित कर रखी है जो कि समय-समय पर बढ़ती रहती है। शायद ही कोई कुली रेलवे द्वारा निर्धारित दर पर सामान ढोता है। अक्सर वे दो गुने से लेकर पांच गुने तक पैसे मांगते हैं। यात्रियों को कुलियों से मोलभाव करना पड़ता है और प्राय: कुली द्वारा मांगे गये पारिश्रमिक पर ही समझौता करना पड़ता है या फिर मन मार कर बोझ स्वयं उठाना पड़ता है। जो लोग कुली करते हैं, उन्हें कुलियों को भुगतान करते समय उनसे वाक्युद्ध करना पड़ता है। इस दौरान कुलियों का झुण्ड जमा हो जाता है और वे मिलकर यात्री के साथ बुरा व्यवहार करते हैं और यात्री को अपमान का घूंट पीना पड़ता है। यात्री को कुली की ही इच्छा पूरी करनी पड़ती है। बहुत कम कुली ऐसे हैं जो यात्रियों से गरिमामय व्यवहार करते हैं।
कुलियों का काम कैसा है और उसमें कितनी कमाई है, इसका अनुमान लगाने के लिये एक ही उदाहरण पर्याप्त है। दो-तीन साल पहले रेलवे ने कुलियों को प्रस्ताव दिया कि वे चाहें तो रेलवे में गेंगमैन की पक्की नौकरी पर लग जायें। इस प्रस्ताव से कुलियों की बांछें खिल गर्इं। उन्होंने रेलवे स्टेशनों पर भांगड़ा किया और गैंगमैन बन गये। रेलवे की पक्की नौकरी में मोटा वेतन, नि:शुल्क यात्रा पास, नि:शुल्क चिकित्सा और रेलवे क्वार्टर जैसी सुविधाएं मिलती हैं जो प्राय: दूसरे विभागों के कर्मचारियों को उपलब्ध नहीं हैं। इन्हीं सुविधाओं के लिये कुलियों ने गैंगमैन बनना स्वीकार किया था किंतु जब उन्हें गैंगमैन का काम करने को दिया गया तो उनकी आँखों के सामने दिन में ही तारे प्रकट हो गये। दूर-दूर तक बिछे हुए रेलवे ट्रैक पर भरी धूप में गैंती-हथौड़े चलाने का काम वे नहीं कर सके। उन्हें तो रेलवे स्टेशनों पर लगे शेड की छाया, कूलरों का ठण्डा पानी, पंखों की हवा, यात्रियों से वसूले जाने वाले मोटे पारिश्रमिक की याद आने लगी और अब देश भर में हजारों कुली अपने पुराने काम पर लौटना चाहते हैं। इसका अर्थ यह है कि कुली का काम और उसकी कमाई गैंगमैनों की तुलना में अच्छी है। रेलवे को चाहिये कि वह कुलियों की मनमानी को रोकने के लिये कुली के कुर्ते पर तथा रेलवे स्टेशन पर कई स्थानों पर कुलियों की भाड़ा दर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखे क्योंकि कुली अपनी मनमानी केवल इसलिये करते हैं कि लोगों को उनकी वास्तविक भाड़ा दर ज्ञात नहीं होती। रेलवे स्टेशनों पर बार-बार की जाने वाली घोषणाओं में भी कुली की भाड़ा दरों को बताया जाना चाहिये। कुलियों की इस मनमानी के बीच एक अच्छी सूचना भी है। जोधपुर रेलवे स्टेशन पर एक कुली गाड़ियों पर यह आवाज लगाता हुआ घूमता है- कुली कर लो, केवल बीस रुपये में।

Wednesday, April 14, 2010

जिनके पास साइकिलें नहीं थी वे हवाई जहाज में उड़ रहे हैं

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
जब से देश में उदारीकरण और वैश्वीकरण की हवा बहनी आरंभ हुई, देश में पूंजी का तेजी से प्रसार हुआ। इस पूंजी ने देश के आम आदमी को बदल कर रख दिया। हर आदमी पूंजी के पीछे बेतहाशा दौड़ पड़ा। धनार्जन के सम्बन्ध में पवित्र-अपवित्र का भाव लुप्त हो गया। बहुत से लोग जिन्हें साइकिलें भी नसीब नहीं थीं, कारों और हवाई जहाजों में चलने लगे। लोगों के बैंक बैलेंस फूलकर मोटे हो गये। जमीनों के भाव आसमान छूने लगे, कारों के आकार बड़े हो गये। मोटर साइकिलों की गति तेज हो गई। बच्चे आई. आई. एम., आई. आई. टी. और एम्स में पढ़ने लगे। पांच सितारा होटलों में रौनक बढ़ गर्इं। डांस बार, पब और मॉल धरती फोड़ कर कुकुरमुत्ताों की तरह निकल आये। महंगे अस्पतालों की बाढ़ आ गई। कोचिंग सेंटर फल-फूल गये। हर कान पर मोबाइल लग गया। कम्प्यूटर, लैपटॉप, ब्रॉडबैण्ड और साइबर कैफे आम आदमी की पहुंच में आ गये। उदारीकरण के बाद भारतीय समाज में पूंजी के प्रति आकर्षण और लालच इतना अधिक बढ़ा कि स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा पूंजी 25 लाख करोड़ रुपये तक जा पहुँची। देश में 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये की नकली मुद्रा फैल गई। जो दालें 20 रुपये किलो मिलती थीं, 100 रुपये का भाव देख आर्इं। बंदरगाहों पर चीनी सड़ती रही और देश में चीनी के लिये त्राहि-त्राहि मच गई। एफसीआई के गोदामों में गेहूँ पर चमगादडेंÞ मल त्यागती रहीं और गेहूँ का भाव 17-18 रुपये किलो हो गया। दवाओं में लोहे की कीलें निकलने लगीं। रेलवे स्टेशनों पर दीवारें पोतने के रंग से चाय बनने लगी। घी में पशुओं ही नहीं आदमी की हड्डियों की चर्बी मिलाई जाने लगी।
पूंजी को भोगने के लिये एक विशेष प्रकार की मानसिकता चाहिये। इस मानसिकता को पुष्ट करने के लिये देश के नागरिकों को विशेष प्रकार के संवैधानिक अधिकार चाहियें। यही कारण है कि उदारीकरण के दौर में देश में नये-नये कानून बन रहे हैं। लोकतंत्र की नई-नई व्याख्याएं हो रही हैं। स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों को नये सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। देश में समलैंगिक सम्बन्धों को मान्यता दे दी गई है। स्त्री-पुरुषों को विवाह किये बिना ही एक साथ रहने की छूट भी मिली है। अब घर की महिलाओं से कोई यह नहीं पूछ सकता कि तेरे साथ यह जो अजनबी पुरुष आया है, यह कौन है? क्यों आया है? और कब तक घर में रुकेगा? लड़कियां ही नहीं लड़कियों की लड़कियां भी अपने नाना और मामा की सम्पत्ति में हिस्सेदार बना दी गर्इं हैं। अर्थात् कल तक जो अनैतिक था, मर्यादा विहीन था, अकल्पनीय था, आज वह अचानक ही संवैधानिक मान्यता प्राप्त पवित्र कर्म हो गया। टेलीविजन ने स्त्री-पुरुष के अंतरंग प्रसंगों को मनोरंजन का विषय बना दिया। ये दृश्य बच्चों के देखने के लिये भी सुलभ हो गये। रियेलिटी शो, डांस शो तथा लाफ्टर शो फूहड़ता और अश्लीलता के प्रसारक बने। इस कारण भारतीय बच्चे भी तेजी से बदल गये। कई स्थानों पर स्कूली बच्चों ने अपनी अध्यापिकाओं के साथ बलात्कार किये तो अध्यापकों ने भी अपनी शिष्याओं के साथ काला मुंह करने में कसर नहीं छोडी। चलती कारों और ट्रेनों में भी बलात्कार होने लगे। इन सब बातों का हमारे देश की सामाजिक संरचना पर व्यापक असर हुआ है। यदि यह कहा जाये कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद भारतीय समाज इतनी तेजी से बदला, जितनी तेजी से वह अपने विगत एक हजार वर्षों के इतिहास में भी नहीं बदला तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

Friday, April 9, 2010

बहुत कठिन है डगर कोटा की !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
राजस्थान का कोटा शहर! लाखों किशोर-किशोरियों का मन जहां कल्पनाओं की उड़ान भर क र पहुचंता है और कोटा की गलियों में खड़े कोचिंग सेंटरों को देखकर ठहर सा जाता है। कोटा के नाम से ही अभिभावकों के हृदय में गुदगुदी होने लगती है। उन्हें लगता है कि उनका बच्चा यदि एक बार किसी तरह कोटा पहुंच जाये तो फिर जीवन भर का आराम ही आराम। बच्चे के फ्यूचर और कैरियर दोनों के बारे में चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाये। यही कारण है कि देश भर से लगभग 35 हजार छात्र-छात्राऐं हर साल कोटा पहुंच कर अपना डेरा जमाते हैं। एक साल से लेकर तीन-चार साल तक वे मोटी-मोटी किताबों में सिर गाढ़ कर दिन-रात एक करते हैं। इन दो-तीन सालों में माता-पिता अपनी जमा पूंजी का बड़ा हिस्सा झौंकते हैं ताकि किसी तरह उनके बच्चे का भविष्य संवर जाये।
अंतत: वह दिन भी आता है और हर साल बहुत से बच्चों की वह आस पूरी होती है जिसकी लालसा में वे कोटा पहुंचते हैं। कुछ सौ बच्चे पीएमटी और सीपीएमटी परीक्षाओं में और कुछ सौ बच्चे आई आई टी परीक्षा में सफलता पाते हैं। बाकियों की उम्मीदों को करारा झटका लगता है। फिर भी बहुत से बच्चे डेंटल और ए आई ई ई ई जैसी परीक्षाओं में उत्ताीर्ण होकर जान बची तो लाखों पाये वाले भाव से कोटा छोड़ते हैं। हर साल 35 हजार छात्रों में से लगभग 5 हजार छात्र-छात्रा ही ऐसे होते हैं जिन्हें आशाजनक या संतोषजनक सफलता मिलती है। शेष 30 हजार छात्रों और उनके अभिभावकों के साथ बुरी बीतती है। उन्हें ऐसा अनुभव होता है मानो सोने का सूरज प्राप्त करने की आशा में नीले आकाश में उड़ते हुए पंछी के पंख अचानक झुलस गये हों। उनके सपने-उनकी उम्मीदें, भविष्य को लेकर की गई कल्पनायें बिखर जाती हैं। काले दैत्य जैसी क्रूर सच्चाई असफलता के तीखे दंत चुभाने के लिये मुंह फाड़कर सामने आ खड़ी होती है।
तेरह-चौदह साल का मासूम किशोर तब तक सत्रह-अठारह साल का युवक बनने की तैयारी में होता है। वह असफलता का ठप्पा लेकर घर वापस लौटता है। माता-पिता ताने देते हैं। भाई-बहिन हंसते हैं। यार-दोस्त चटखारे ले-लेकर उसे छेड़ते हैं। जी-तोड़ परिश्रम के उपरांत भी असफल रहा युवक तिलमिला कर रह जाता है। उनमें से बहुत से युवक भटक जाते हैं। शराब और सिगरेट का सहारा लेते हैं। सिनेमा देखकर अपने मन की उदासी दूर करने का प्रयास करते हैं। बहुतों को किताबों से एलर्जी ही हो जाती है। ऐसे बहुत कम ही युवक होते हैं जिन्हें परिवार वाले ढांढस बंधाते हैं और फिर से कोई नई कोशिश करने के लिये प्रेरित करते हैं। कुछ माता-पिता ऐसे भी होते हैं जो बच्चे के कोटा रहने का खर्च उठाते-उठाते कंगाली के दरवाजे पर जा खड़े होते हैं। घर पर दो-चार लाख रुपये का कर्ज भी हो जाता है। इस कारण दूसरे बच्चों की सामान्य पढ़ाई में भी बाधा आती है। कई बार तो बच्चे की असफलता और परिवार में आई आर्थिक विपन्नता का पूरे परिवार पर इतना गहरा असर होता है कि माता-पिताओं के बीच विवाद उठ खड़े होते हैं। मामला परिवार के टूटने और तलाक के लिये कोर्ट तक जा पहुंचता है। इतना सब हमारे बीच हर साल घट रहा है किंतु अधिकांश माता-पिता बिना कोई आगा-पीछा सोचे-समझे अपने बच्चों को कोटा की तंग गलियों की ओर धकेल रहे हैं।

Thursday, April 1, 2010

उदास है भारत माता!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
हम भारतीय लोग धरती, गौ, गंगा, गीता, गायत्री और पराई स्त्री को माता मानते हैं। इन सब माताओं से बढ़कर यदि कोई और भी है जिसे हम माता का सम्मान देते हैं तो वह है भारत माता। भारत माता पर उसकी सारी संतानें बलिदान होने का स्वप्न देखती हैं फिर भी यह कैसी विडम्बना है कि हमारी समस्त माताओं की तरह भारत माता भी चारों ओर संकटों से घिरी हुई है और वह बुरी तरह उदास है। उसकी उदासी का कोई एक कारण नहीं है।
भारत में एक तिहाई लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं अर्थात् लगभग 40 करोड़ लोगों को 2100 कैलारी ऊर्जा अर्थात् दो जून की रोटी आसानी से नसीब नहीं होती फिर भी भारत माता के कुछ ताकतवर बेटों ने 25 लाख करोड़ रुपये स्विस बैंकों में ले जाकर छिपा दिये हैं। एक माता कैसे सुखी हो सकती है जब उसके कुछ बेटे तो भूखे मरे और कुछ बेटे अय्याशी भरी जिंदगी बिताने के लिये देश की सम्पत्ति को चुराकर दूसरे देशों में छिपा आयें !
एक अनुमान के अनुसार पाकिस्तानी घुसपैठियों ने 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये के नकली नोट लाकर भारत में खपा दिये हैं। इस कारण हर भारतीय हर समय आशंकित रहता है कि उसकी जेब में पड़े हुए नोट नकली न हों, कहीं कभी पुलिस उसे नकली नोट रखने या चलाने के अपराध में गिरफ्तार न कर ले! सोचिये जिस माता के बेटों को हर समय अपने धन की सुरक्षा करने की चिंता रहती हो, वह माता कैसे सुखी रह सकती है!
भारत के लोग संत-महात्माओं और बाबाओं के प्रवचन सुनने के लिये लालायित रहते हैं। उनके प्रवचनों के माध्यम से अपने लिये मोक्ष का मार्ग खोजते हैं। इसलिये टी वी चैनलों पर इन बाबाओं के प्रवचनों में उमड़ने वाली विशाल भीड़ दिखाई देती है। इतने सारे लोगों को एक साथ एकत्रित देखकर आंखें हैरानी से फटी रह जाती हैं। इन्हें देखकर लगता है कि जब इतने सारे लोग धर्म चर्चा में भाग लेंगे तो देश में सुख-शांति स्वत: ही व्याप्त हो जायेगी किंतु हैरानी होती है यह देखकर कि संत-महात्माओं के भक्त कहलाने वाले ये लोग अचानक ही वहशी हो उठते हैं और चलती हुई ट्रेनों को आधी रात में रोककर उनमें आग लगा देते हैं। स्टेशनों और जंगलों में पÞडे बच्चे भूख से बिलबिलाते हैं। यह कैसी भक्ति? यह कैसा उन्माद? भला ऐसे हिंसक बच्चों को देखकर कौन माता उदास नहीं होगी?
भारत माता की एक उदासी हरियाणा को लेकर भी है। हरियाणा में शिक्षा विभाग ने महिलाओं को एक तिहाई सीटों पर आरक्षण दिया। कुछ दिन बाद उन महिलाओं के बारे में एक सर्वेक्षण किया गया। पता लगा कि उन समस्त महिला शिक्षकों ने अपने ही विभाग में नियुक्त पुरुष शिक्षकों अथवा अन्य सरकारी कर्मचारियों से विवाह कर लिये। इनमें से एक भी महिला ऐसी नहीं थी जिसने किसी बेरोजगार युवक से विवाह किया हो। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने जितने लोगों को नौकरी दी उनमें से 60 प्रतिशत नौकरियां केवल 30 प्रतिशत घरों में ही चूल्हा जला रही हैं। जिन 30 प्रतिशत घरों में और चूल्हे जल सकते थे उन घरों में किसी को रोजगार नहीं पहुंचा और वहां दो वक्त का चूल्हा भी नहीं जल रहा। अब भला भारत माता क्यों उदास न हो!

Wednesday, March 31, 2010

हमारी समस्त माताएं संकट में हैं !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
जन्मदात्री माता की तरह धरती, गौ, गंगा, गीता, गायत्री और पराई स्त्री को भी हम माता मानते हैं। यह विशाल धरती प्राणी मात्र की माता है जो हमारे मल-मूत्र और गंदगी को सहन करके, जल और अन्न से हमारा शरीर बनाती है और उसे जीवित रखती है। गौ हमें अपने दूध से पुष्ट करती है। उसके बछÞडे हमारे जीवन का अधिकांश बोझ अपने कंधों पर रख लेते हैं। गंगा हमारे तन और मन को शुद्ध करती है, हमारे पाप धोती है और हमारे पूर्वजों को गति प्रदान करती है। गीता हमें जीवन में कर्मयज्ञ की ओर अग्रसर करती है। गायत्री, मंत्रों के रूप में प्रकट होकर हमें सुखी बनाती है। इन सबके साथ-साथ हमने पराई स्त्री को भी माता का सम्मान दे रखा है ताकि हमारी अपनी माता को हर स्थान पर सम्मान मिले।
इन दिनों एक बात बार-बार अनुभव में आती है कि ये समस्त माताएं संकट में हैं। जितनी तरह की माताएं हैं उतनी ही तरह के संकट हैं। जिस तरह देश में बडेÞ-बड़े सैक्स रैकेट्स पकडेÞ गये हैं, उन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय माताएं कितने बडेÞ खतरे में हैं। बहुत सी माताओं को नारी मुक्ति के नाम पर यह कहकर भड़काया जा रहा है कि वे पुरुष को अपना पुत्र, पिता, भाई या पति न समझकर अपना प्रतिद्वंद्वी समझें। उनकी इस प्रवृत्ति के चलते भारतीय माताएं सशक्त होने के स्थान पर और अधिक कमजोर हो रही हैं।
धरती माता पर कई ओर से संकट गहरा रहा है। वायुमण्डल का तापक्रम बढ़ रहा है। ओजोन परत में छेद हो गये हैं। ग्रीन हाउस प्रभाव वाली गैसों के कारण धरती जलता हुआ अंगारा बनती जा रही है। गंगा माता पर आये संकट से कौन अपरिचित है! वह तेजी से लुप्त हो रही है। उसे जल देने वाले ग्लेशियर सूख रहे हैं और उसकी क्षीण होती जा रही धाराओं पर विद्युत एवं सिंचाई परियोजनाएं खड़ी की जा रही हैं। गाय की हालत तो गंगाजी से भी बुरी है। वह शहरों में ही नहीं गांवों में भी दुख पा रही है। भारतीय गौ को अनार्थिक मानकर, उसकी अच्छी से अच्छी नस्लों को समाप्त किया जा रहा है और वर्णसंकर नस्लें पनपाई जा रही हैं।
अब गीता को शायद ही कोई माता मानता है। वह पूजाघरों में लाल कपÞडे से ढककर रखी गई श्रद्धेय पुस्तक मात्र बनकर रह गई है। उसे कोई नहीं पढ़ता, कोई जीवन में नहीं उतारता। लोगों के मन में धन एकत्रित करने की जो लालसा विस्तृत हुई है उसे देखकर लगता है कि लोग यह भूल गये हैं कि जीव को तो बार-बार धरती पर आते ही रहना है। केवल यही जन्म तो हमें नहीं जीना? तब सारा प्रपंच केवल इसी जीवन को सुखी बनाने के लिये क्यों? क्या हो जायेगा यदि इस जन्म में हमने लाखों करोड़ों रुपये जोड़ लिये तो! यह सब तो इस जीवन के समाप्त होने के साथ ही फिर से पराया हो जायेगा। अगला जन्म जाने किस घर में हो! वहां फिर से नया धन कमाना पडेÞगा। यह चक्र तब तक चलता रहेगा जब तक हम अपने आप को सब तरह की वासनाओं से मुक्त करके परमधाम को प्राप्त नहीं कर लेंगे। गायत्री का अर्थ है जीवन में जो कुछ भी ओजस्वी है, उस सबको नमस्कार किंतु भारतीय समाज अपना तेज खोता जा रहा है। भय, लालच हिंसा और नंगेपन का अंधकार चारों ओर से बÞढा चला आ रहा है किंतु इतना होने पर भी इन संकटों से बचने के मार्ग बंद नहीं हुए हैं। अभी हमारे पास कुछ समय है कि हम अपनी माताओं को संकटों से उबार कर अपनी संस्कृति की रक्षा करें। आप सोचेंगे, एक माता तो रह ही गई किंतु भारत माता के कष्टों की बात फिर कभी।

Wednesday, March 24, 2010

पहले तो निवास करती थी लक्ष्मी, अब बसती है बदबू !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
भारतीय संस्कृति में दो ऐसी बातें कही गई हैं जो भारतीय संस्कृति की विलक्षणता को उसकी समग्रता में प्रकट करती है। पहली तो यह कि महाराज परीक्षित ने कलियुग को स्वर्ण में निवास करने के आदेश दिये और दूसरी यह कि देवताओं ने लक्ष्मी से गाय के गोबर में निवास करने का वरदान मांगा। ये दोनों बातें संकेत करती हैं कि मानव सभ्यता तभी फलेगी-फूलेगी जब लोग स्वर्ण अर्थात् धन इकट्ठा करने के पीछे नहीं दौडेंगे अपितु श्रम को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर गाय की सहायता से समृद्धि प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। गोबर में लक्ष्मी निवास करने की मान्यता का गहरा अर्थ है। गाय के गोबर से फसलों की वृद्धि के लिये खाद, घरों को लीपने के लिये शुद्ध सात्विक परिमार्जक और चूल्हे में जलाने के लिये र्इंधन प्राप्त होता है। गोबर हमें तभी प्राप्त हो सकता है, जब गाय हमारे पास होगी और जब गाय हमारे पास होगी तो उसके दूध से मानव सभ्यता पुष्ट होगी तथा उसके बछÞडे, बैल बनकर खेत में हल जोतेंगे और बैलगाड़ियों में जुतकर आदमी का बोझा उठाने में हाथ बंटायेंगे। इतना ही नहीं, गायों के मरने के बाद उनके चमड़े से जूते बनेंगे जो मानव के पैरों की रक्षा करेंगे।
कहा भी गया है कि यदि भारतीय गायें केवल गोबर के लिये पाली जायें तो भी वे महंगा सौदा नहीं हैं। कुछ लोगों की तो यहां तक मान्यता रही है कि गायों से कुछ पाने के लिये उन्हें न पाला जाये अपितु उनकी सेवा करने के उद्देश्य से उन्हें पाला जाये। वस्तुत: गाय को माता मानने, गौसेवा करने और गौरक्षा करते हुए प्राण उत्सर्ग करने की भावना रखने का एक ही अर्थ है और वह है मानव सभ्यता को श्रम आधारित बनाये रखना। गाय के गोबर को पंचगव्य माना जाता था। मुख शुद्धि और धार्मिक संस्कारों में गाय का गोबर अनिवार्य रूप से प्रयुक्त होता था। गाय के गोबर की जो महिमा मैंने बताने का प्रयास किया है वह तब की बात है जब गायों को खाने के लिये अच्छी वनस्पति मिलती थी और गायों से पीले-सुनहरे रंग का गोबर मिलता था। जंगल में गिर कर सूखा हुआ गोबर अरिणये अर्थात् अरण्य से प्राप्त कहलाता था। उसे पवित्र मानकर हुक्के में रखा जाता था। यज्ञ करने के लिये भी गाय के गोबर को पवित्र समिधा के रूप में देखा जाता था। अब तो गायें शहर में रहकर कचरा, कागज, पॉलीथीन की थैलियां यहाँ तक कि मैला खा रही हैं जिसके कारण उनका गोबर काला और गहरे हरे रंग का होता है। इस गोबर में से बदबू आती है और वह पानी की तरह बहता है। आज आदमी ने गायों को इस योग्य छोÞडा ही नहीं है कि वे अच्छा गोबर दे सकें किंतु आज के वैज्ञानिक युग में पैसे के पीछे अंधे होकर भाग रहे आदमी को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि गोबर की जितनी आवश्यकता कल थी, उससे अधिक आवश्यकता आज है। वैज्ञानिकों का कहना है कि परमाणु विकीरण से केवल गोबर ही प्राणियों की रक्षा कर सकता है। ईश्वर न करे किसी दिन परमाणु बमों का जखीरा मानव सभ्यता के विरुद्ध प्रयुक्त हो या कोई परमाणु रियेक्टर फट जाये किंतु दुर्भाग्य से यदि कभी भी ऐसा हुआ तो केवल वही लोग स्वयं को विकीरण से बचा सकेंगे जो अपने शरीर पर गाय का गोबर पोत लेंगे किंतु उस दिन हर आदमी के घर में स्वर्ण अर्थात् कलियुग तो होगा किंतु गोबर अर्थात् लक्ष्मी ढूंढे से भी नहीं मिलेगी।

Monday, March 22, 2010

जिम्मेदारियां निभाने वाली आवारा हैं वे !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
वह लावारिस नहीं है किंतु सारे दिन आवाराओं की तरह रहती है। वह शहर की किसी भी भीड़ भरी सड़क अथवा चौराहे पर खड़ी हुई दिखाई दे जाती है, कभी अकेली तो कभी झुण्ड में। सर्दी, गर्मी और बरसात में भले ही ट्रैफिक का सिपाही थोड़ा हट कर खड़ा हो जाये किंतु वह मानव सभ्यता की प्रहरी की तरह कड़कड़ाती ठण्ड, चिलचिलाती धूप और घनघोर बरसात में भी अपने स्थान से इंच भर नहीं हिलती। जब से उसने मानवों को अपना पुत्र माना, तब से वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करती आ रही है। आदमी ने उसके दूध को अमृत मानकर पिया और उसके पुत्रों को खेतों और बैलगाड़ियों में जोता। एक समय था जब स्वयं ईश्वर उसका प्यार पाने के लिये मानव बनकर आया और गोपाल कहलाया किंतु जैसे ही मानव ने गांव छोड़ कर शहरों में रहना आरंभ किया, हल के बदले ट्रैक्टर अपनाया और बैलगाड़ी के बदले कार चलाने लगा, तब से मानव ने अपनी इस निरीह माता के सुख-दुख से नाता ही तोड़ लिया। अब तो बस वह दूध देने की मशीन भर बन कर रह गई हैं।
आप सही समझे हैं, मैं शहरों में रहने वाली गायों की ही बात कर रहा हूँ। शहर की हवा ही ऐसी है। जिस तरह शहरों में रहने वाले अधिकांश लोग अपनी माताओं के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं करते, वे गौमाता के प्रति भी वैसे ही रूखे और निर्दयी बन गये हैं। यही कारण है कि शहरों में रहने वाली गायों के कंधों पर गांवों, ढाणियों और खेतों में रहने वाली गायों की अपेक्षा तीन गुनी जिम्मेदारियों का भार है। उन्हें सुबह-सायं दूध तो देना ही है, बछडेÞ-बछड़ियां भी पैदा करने ही हैं किंतु साथ ही अपने भोजन का प्रबंध भी उन्हें स्वयं अपने बल बूते पर करना है। नगर के पगलाये हुए ट्रैफिक के बीच खड़े रह कर अपने जीवन की रक्षा भी स्वयं ही करनी है।
शहर के हर चौराहे पर खड़ी हुई इन हजारों गायों को देखकर कौन कह सकता है कि एक दिन भारतीय इस गाय को अपनी माता कहते नहीं अघाते थे! आज भी वे भूले बिसरे गीतों की तरह बच्छ बारस पर उनके बछड़ों की पूजा करते हैं किंतु आज के दौर में मानव सभ्यता की यह माता होटलों से फैंकी गई झूठन पाने के लिये आवार कुत्तों से प्रतिस्पर्धा कर रही है। वह प्लास्टिक की थैलियों को खाने के लिये कचना बीनने वाले बच्चों से सींग लड़ा रही है। वह शहर के भयंकर गति से भाग रहे ट्रैफिक के बीच सहमी हुई सी खड़ी होकर आदमी से अपने प्राणों की भीख मांग रही है। कोई है जिसे इन गायों को देखकर पीड़ा होती है? कोई है जो इन गायों के मालिकों को समझा सके कि भाई तुम इन गायों को शहरों से दूर ले जाओ, सुबह शाम इनका दूध दूहकर इन्हें आवारा की भांति भटकने के लिये सड़कों पर मत छोड़ो? कोई है जो इन गायों को सड़कों से दूर किसी सुरक्षित स्थान पर भेज कर शहर की सड़कों पर फैले मौत के भय से अपने बच्चों को मुक्त कर सके?

Thursday, March 18, 2010

ऐसे तो हम लड़ाई हार जाएंगे

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
यदि धन खो जाये तो समझिये कि कुछ नहीं खोया, स्वास्थ्य खो जाये तो समझिये कि कुछ खो गया किंतु चरित्र खो जाये तो समझिये कि सर्वस्व खो गया। इस समय भारतीय समाज के भीतर इस कहावत से ठीक उलटा काम हो रहा है। लोग अपने स्वास्थ्य और चरित्र को बेच कर पैसा बटोरने में लगे हैं। विगत कुछ दिनों में हुए सैक्स रैकेट्स के खुलासे इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज अपना स्वास्थ्य और चरित्र दोनों खो रहा है।
एयर होस्टेस, महंगे कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियां और हाई-फाई कहलाने वाले घरों की विवाहिता औरतें सैक्स रैकेट्स में सम्मिलित होकर पैसा कमा रही हैं। अभी तो चारित्रिक पतन का यह कैंसर कुछ स्थानों पर दिखाई दिया है किंतु यदि यह कैंसर भारतीय समाज में और अधिक फैल गया तो भारत अपना सर्वस्व गंवा देगा। हमारा आजादी लेना व्यर्थ चला जायेगा। हमारे सदग्रंथ व्यर्थ हो जायेंगे, भारत की धरती पर गंगा-यमुना का होना निरर्थक हो जायेगा, हमारी संस्कृति को पलीता लग जायेगा और हम संसार में एक पतित चरित्र वाले नागरिकों के रूप में जाने जायेंगे।
हमारी संस्कृति में चरित्र के महत्व को आंकने के लिये बहुत सी बातें कही गई है जिनमें से एक यह भी है कि यदि राजा रामचंद्र रावण से युद्ध हार जाते तो कोई अनर्थ नहीं हो जाता, युद्ध में हार-जीत तो चलती ही रहती है किंतु यदि सीता मैया रावण से हार जातीं तो पूरी वैदिक संस्कृति, आर्य गौरव और सनातन मूल्य परास्त हो जाते। भारतीय स्त्रियों ने अपने शील की रक्षा करने के लिये बड़े-बडेÞ बलिदान दिये हैं। आज भारतीय महिलाओं से कोई बलिदान नहीं मांग रहा। उसकी आवश्यकता भी नहीं है किंतु हाई-फाई कहलाने वाली सोसाइटी की शिक्षित महिलाओं में इतना तेज तो बचना ही चाहिये कि वे पैसा कमाने के लिये अपने शील का सौदा करके वेश्यावृत्ति की तरफ न जायें !
यह सही है कि समाज के चरित्र को बचाने का सारा ठेका महिलाओं ने नहीं ले रखा, पुरुष भी उसके लिये पूरे जिम्मेदार हैं किंतु आज महिला मुक्ति के नाम पर कुछ संस्थाएं संगठित रूप से इस दिशा में काम कर रही है कि पुरुष महिलाओं को सुरक्षा एवं संरक्षण न दें। भारतीय संस्कृति में समाज की व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि महिला विवाह से पहले पिता के संरक्षण में, पिता के न रहने पर भाई के संरक्षण में, विवाह हो जाने पर पति के संरक्षण में और विधवा होने पर पुत्र के संरक्षण में रहती आई है किंतु तथाकथित नारी मुक्ति संगठन इस व्यवस्था को पुरुष प्रधान व्यवस्था बताकर महिलाओं को पुरुषों से तथाकथित तौर पर मुक्त करवाने में लगी हुई हैं।
ऐसी भ्रमित औरतें जो अपने परिवार के प्रति अपने दायित्व बोध को त्यागकर आधुनिक बनने का भौण्डा प्रयास करती हैं, बड़ी सरलता से सैक्स रैकेटों में फंस जाती हैं। अपने पिता, भाई, पति और पुत्र के संरक्षण में रहना अच्छा है कि समाज और धर्म के ठेकेदारों के चंगुल में फंसकर वेश्यावृत्ति के गहरे गड्ढे में जा धंसना अच्छा है?
जब अशोक वाटिका में सीताजी को अपने परिवार का संरक्षण उपलब्ध नहीं था तब वे अपने हृदय में श्रीराम का ध्यान रख कर, तिनके की आड लेकर रावण के दुष्टता और धूर्तता भरे प्रस्तावों का प्रतिकार करती थीं- तृन धरि ओट कहति बैदेही, सुमिरि अवधपति राम सनेही। यह उदाहरण बताता है कि स्त्री के शील तथा समाज के चरित्र की रक्षा तभी हो सकती है जब स्त्रियां अपने पारिवारिक दायित्वों से ध्यान न हटायें। अन्यथा भारतीय संस्कृति, बुराई से अपनी रक्षा नहीं कर पायेगी और अपनी लड़ाई हार जायेगी।

Thursday, March 4, 2010

दीदी नहीं बॉस कहो!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
वे दोनों एक ही गली में रहती हैं। उन दोनों की उम्र में केवल एक साल का अंतर है। दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह जानती हैं। पहली लड़की नगर के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज के द्वितीय वर्ष की छात्रा है। दूसरी लड़की ने उसी कॉलेज के पहले वर्ष में प्रवेश लिया है। दोनों लड़कियां साल के पहले दिन कॉलेज बस पकड़ने के लिये एक ही स्टॉप पर आ खड़ी होती हैं। पहले वर्ष की लड़की, दूसरे वर्ष में पढ़ने वाली लड़की का अभिवादन करती है, नमस्ते दीदी। दूसरी लड़की भड़क कर जवाब देती है, दीदी नहीं, बॉस कहो। पहले वर्ष में प्रवेश लेने वाली लड़की हैरान है ! इसे क्या हुआ ? कल तक तो ऐसी कोई बात नहीं थी। आज दोनों एक कॉलेज में आ गर्इं तो दीदी, बॉस बन गर्इं ! पहले वर्ष की लड़की ने भी तुनक कर कहा, काहे की बॉस। इसके बाद पूरा साल बीत गया, दोनों लड़कियां अब एक दूसरे से बात नहीं करतीं। यह कहानी किसी एक शहर की किसी एक गली की नहीं है, हिन्दुस्तान की गलियां ऐसी कहानियों से भरी पड़ी है। एक समय था जब एक गली, मुहल्ले में रहने वाली लड़कियां बहिनों की तरह बर्ताव करती थीं। वे एक दूसरे को संरक्षण भी देती थीं किंतु बदले हुए युग धर्म में अब वे बहिनें नहीं रही हैं, बॉस और सबॉर्डिनेट बन गई है। वरिष्ठ सहपाठिनें कभी भी बॉस नहीं हुआ करती थीं। पर अब कॉलेजों में यह विचित्र बॉसिज्म आया है। वरिष्ठ छात्र अपने आप को कनिष्ठ छात्रों से बॉस कहलवा कर उनसे आदर प्राप्त करने की भौंडी चेष्टा करते हैं। यही वह मानसिकता है जो कॉलेजों से रैंगिंग के प्रेत को बाहर नहीं जाने देती। इसी मानसिकता ने देश के कई कॉलेजों में पढ़ रहे भावी इंजीनियरों और डॉक्टरों को हमसे छीन लिया। बॉस कहलवाने और उन पर अपनी दादागिरी थोपने की चेष्टा में कई सीनियर छात्रों ने अपने जूनियर छात्रों को नंगा करके कॉलेजों की बॉलकनी से लटका दिया। हमारे देश की बहुत सी शिक्षण संस्थाओं में छात्र-छात्राओं को परस्पर भैया-बहिन कहलवाने की परम्परा रही है। यहां तक कि शिक्षकों को भी भैयाजी अथवा बहिनजी कहा जाता है। मारवाÞड में तो प्राय: हर विद्यालय में महिला अध्यापक को बहिनजी कहा जाता रहा है। पाश्चात्य देशों में नर्सिंग व्यवसाय आरंभ हुआ, उन्होंने नर्स को अनिवार्यत: सिस्टर कहने की परम्परा विकसित की। जो अपनत्व, परस्पर विश्वास और सुरक्षा का भाव जीजी, दीदी, बहिनजी या सिस्टर कहने से प्रकट होता है, वह अपनत्व बॉस शब्द से कैसे मिल सकता है! फिर भी हमारी नई पीढ़ी दीदी और बहिनजी जैसे शब्दों को बॉस शब्द से प्रतिस्थापित करना चाहती है, इसे एक विडम्बना ही कहा जाना चाहिये। बात जब निकलती है तो दूर तक जाती है। यह बात भी केवल शिक्षण संस्थानों तक जाकर समाप्त नहीं होती। पहले बाजार, रेलवे स्टेशन अथवा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अपरिचित महिलाओं से बात करते समय लोग बहिनजी अथवा बीबीजी कहकर सम्बोधित करते थे किंतु अब उन्हें मैडम कहा जाता है। संभवत: इसी कारण सामाजिक सुरक्षा का चक्र टूटकर बिखर गया है।

Sunday, February 21, 2010

क्या आप अठारह साल से ऊपर हैं !

क्या आप अठारह साल से ऊपर हैं ? जिंदगी की बोरियत दूर करना चाहते हैं ? कुछ ठहाके लगाना चाहते हैं ? अपने दोस्तों को कुछ ऐसा भेजना चाहते हैं जिसे पढ़कर उनके चेहरे पर स्माइल आ जाये तो प्लीज हमें इस नम्बर पर एस एम एस या कॉल कीजिये। चार्जेज एक रुपया प्रति एस एम एस या प्रति कॉल। यह उन ढेर सारे एस एम एस विज्ञापनों में से एक है जो इन दिनों विभिन्न कम्पनियों के मोबाइल धारकों के मोबाईल फोन पर धड़ल्ले से आ रहे हैं। सीमा (20 एफ), राहुल (22 एम), नेहा (21 एफ) संजू (18 एम).... लॉट्स मोर लुकिंग फॉर फ्रैण्ड्स..... फाइण्ड ए फ्रैण्ड नेक्स्ट डोर, एस एम एस चैट टू ....। यह एक दूसरा नमूना है जो मोबाइल धारकों के पास लगातार आ रहा है।
आज बहुत सी मोबाइल कम्पनियां एक मोबाइल कनेक्शन खरीदने पर उसके साथ दो या तीन कनेक्शन निशुल्क दे रही हैं। माता-पिता ने वे फ्री मोबाइल कनैक्शन अपने बच्चों को उपलब्ध करवा दिये हैं ताकि उनके घर से बाहर रहने की स्थिति में भी कनैक्टिविटी बनी रहे। आज भारत में जितने मोबाइल हैं उनमें से लगभग 25 प्रतिशत मोबाइल अवयस्क बच्चों के पास हैं और 25 प्रतिशत मोबाइल कॉलेज जाने वाले व्यस्क विद्यार्थियों के पास हैं। जब इन कच्ची उम्र, कच्चे मन और कच्ची बुद्धि के बच्चों और विद्यार्थियों के पास मोबाइल होंगे और उन पर धड़ल्ले से ऐसे विज्ञापन भेजे जायेंगे तो निश्चित ही हैं कि बड़ी संख्या में बच्चे इन विज्ञापनों के झांसे में फंस जायेंगे और वे जीवन की उन अनजान और खतरनाक राहों पर निकल पडेंगे जिनके बारे में सोच कर भी भय होता है।
मोबाइल का आविष्कार क्या इसलिये हुआ था कि समूची मानव सभ्यता इसकी चपेट में आकर दुर्घटनाग्रस्त हो जाये ? आज जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं, उन्हें बाजार अपने कब्जे में कर लेता है। लालची लोग हर वैज्ञानिक अविष्कार को जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक पैसा कमाने का माध्यम बना लेते हैं। संचार माध्यमों पर बाजार की विशेष दृष्टि रहती है। रेडियो, टेलीविजन, टेलिफोन, इंटरनेट, मोबाइल तो जैसे बाजार के तगडेÞ उपकरण या यूं कहें कि वफादार गुलाम बनकर रह गये हैं। इन उपकरणों ने व्यापार को बाजार से निकाल कर घरों और पलंगों तक पहुंचा दिया है।
वास्तव में तो इलैक्ट्रोनिक संचार माध्यम मानव की सेवा करने के लिये और उसकी जिंदगी आरामदेह बनाने के लिये बने हैं किंतु इन संचार माध्यमों का दुरुपयोग मानव जीवन में अनावश्यक आवश्यकताओं को पैदा करने और उन्हें खरीदने के लिये मजबूर करने में हो रहा है किंतु मैं जो बात कर रहा हूँ, वह केवल बाजारवाद के पसरते हुए पांवों तक ही सीमित नहीं है। मोबाइल फोन के कारण मासूम बच्चे, अल्पवय लड़कियां और आम आदमी अपराध की दुनिया के निशाने पर आ गया है। देश की राजधानी दिल्ली में इस तरह से वेश्यावृत्ति करवाने वाले कई रैकेट्स का भण्डाफोड़ हो चुका है और पूरे देश में अविवाहित लड़कियों तथा किशोरियों में गर्भपात की संख्या तेजी से बढ़ रही है। हमें समझना होगा कि हमने अपने बच्चों को केवल मोबाइल फोन नहीं दिया है, उन्हें बाजार और अपराध की दुनिया के एक खतरनाक उपकरण से दुर्घटनाग्रस्त होने के लिये अकेला छोड़ दिया है।

Friday, February 19, 2010

दिनचर्या का वर्केबल मॉडल ढूंढा जाना चाहिए

- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
आजकल हर घर में हर समय सिनेमा चलता है। स्कूली बच्चे, आॅफिस जाने वाले पति-पत्नी, बिजनस में लगे लोग और घर के बडेÞ-बूढेÞ अपनी दिनचर्या का काफी समय बिस्तर या सोफे पर पड़े रह कर टीवी देखने में खर्च करते हैं। महिलाओं ने कुछ खास चैनलों पर आने वाले धारावाहिक पकड़ रखे हैं, पुरुष न्यूज चैनलों को बदल-बदल कर एक ही समाचार को बार-बार देखते हैं। बच्चे कार्टून नेटवर्क पर खोये हुए हैं तो कुछ लोग डिस्कवरी और नेशनल जियोग्राफी जैसे कार्यक्रमों के आदी हैं। अब हर आदमी की दिनचर्या में टी वी देखना उसी प्रकार अनिवार्य हो गया है जिस प्रकार पहले पूजा पाठ करना और लोगों से मिलना-जुलना अनिवार्य था।
टी वी को समय देने के कारण घर के सदस्यों को जीवन के गंभीर विषयों पर एक दूसरे से वार्तालाप करने तथा अपने विचारों का आदान-प्रदान करने का पर्याप्त समय नहीं बचता। रिश्तेदारों, पड़ौसियों, सहकर्मियों और सहपाठियों से सामंजस्य बैठाने के लिये भी समय नहीं मिलता। बहुत से माता-पिता को तो अपने बच्चों से बात करने का समय नहीं है। करोडों घरों में टेलीविजन आदमी की दिनचर्या का केन्द्र बिन्दु बन गया है। घर नौकरों के भरोसे, बच्चे कोचिंग इंस्टीट्यूट्स के भरोसे और बड़े-बुढेÞ वृद्धाश्रमों के भरोसे छोड़ दिये गये हैं।
यह सही है कि समाचारों, विचारों और दुनिया भर की जानकारियों को देने वाले कार्यक्रम टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर आते हैं जिनके कारण हमें दुनिया के कई रहस्यों, सूचनाओं और समाचारों की जानकारी रहती है किंतु यह भी सही है कि जीती जागती दुनिया अचानक ही टी वी के पर्दे पर हिलती हुई रंग-बिरंगी आकृतियां भर रह गई है। यदि लोग आपस में मिलते भी हैं तो केवल शादियों के महाभोज में जहां वे एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराने की औपचारिकता निभाते हैं और डी जे के तेज शोर से तंग आकर अपने घरों को लौट जाते हैं।
टी वी ने दुनिया भर के नितांत मिथ्या विषयों को हमारे लिये अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया है। क्रिकेट और उसके खिलाÞिडयों के बारे में विभिन्न चैनलों पर दिन रात जानकारी दी जाती है, उसका हमारे जीवन में क्या महत्व है? हमें वे जानकारियां क्यों लेनी चाहिये? उनका मानवता के लिये क्या उपयोग है? सिने कलाकारों के बारे में ऐसी बारीक जानकारियां दी जाती हैं जैसे वे अत्यंत श्रद्धास्पद और प्रेरणादायक लोग हैं तथा उनके जीवन चरित्र को जानने से हमें अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष नामक चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो जायेगी। एक समय था जब बच्चों को भारत की सन्नारियों और महापुरुषों की गाथायें सुनाई जाती थीं किंतु आज के बच्चों को सलमान खान, शाहरुख खान और आमिर खान तथा उनकी प्रेमिकाओं के बारे में ढेरों जानकारियां हैं किंतु वे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, महादानी राजा शिबि, सती अनुसुईया और आज्ञाकारी पुत्र श्रवणकुमार के बारे में कुछ नहीं जानते। टी वी चैनलों की भीÞड ने इन प्रेरणास्पद पात्रों को हमसे छीन लिया।
टीवी चैनलों की ही देन है कि आज भारत के नौजवान भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु पर जानकारी एकत्रित करने की बजाय वेलेंटाइन डे पर अपनी प्रेमिका को रिझाने के नुस्खे ढूंढते फिरते हैं जबकि भारतीय संस्कृति में विद्यार्थी के लिये ब्रह्मचर्य पालन करने का निर्देश है। टेलीविजन पर दिन रात प्रसारित होने वाले विज्ञापनों में अनावश्यक वस्तुओं का इतनी चतुराई से प्रचार किया जाता है कि करोड़ों लोग उनके झांसे में आकर अनावश्क सामान खरीद कर अपने घरों में कबाड़ इकट्ठा कर रहे हैं। इस तरह टी वी ने भारतीय आदमी की दिनचर्या में गहरे परिवर्तन किये हैं जिनमें से कुछ बहुत हानिकारक हैं। दिन का काफी हिस्सा टी वी देखने वालों को अपनी जीवन शैली के बारे में नये सिरे से सोचना चाहिये और अपनी दिनचर्या का वर्केबल मॉडल ढूंढना चाहिये।

Monday, February 15, 2010

मौत का कुआं खुदने में देर नहीं लगती !

- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
मनुष्य के भाग्य का आकलन उसे मिले सुख से होता है। कुछ लोगों के लिये सुख का अर्थ है भौतिक सुख जिसमें शारीरिक स्वास्थ्य, शिक्षा, धन, गृह, प्रसिद्धि एवं लोक-प्रतिष्ठा जैसे तत्व सम्मिलित होते हैं जबकि कुछ लोगों के लिये सुख का अर्थ मानसिक सुख अर्थात् मन की उस अवस्था से होता है जिसमें आदमी संतुष्टि, आनंद और परिपूर्णता का अनुभव करता है। आज भौतिक सुखों के लिये हम मानसिक सुखों का गला घोटने की होÞड में जुट गये हैं और बच्चों को कठिन पढ़ाई की उस भीषण ज्वाला में झौंक रहे हैं जिसमें झुलस कर बहुत से बच्चों निराशा, कुंठा, हीन भावना, अवसाद और अकेलेपन और अपराध बोध से ग्रस्त होकर आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को सीए, बीबीए तथा एमबीए जैसी कठिन पढ़ाई की ओर जबर्दस्ती धकेल रहे हैं। उनके सामने आईआईटी, पीएमटी और आईएएस जैसी कठिन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने का लक्ष्य रख रहे हैं। क्या हर बच्चा इन परीक्षाओं को उत्ताीर्ण कर सकता है? ऐसे उदाहरण भी सामने आये हैं जब बच्चों ने किसी तरह तीन-चार साल खराब करके आईआईटी या मेडिकल में प्रवेश तो ले लिया किंतु वहां उनसे मोटी-मोटी किताबें पढ़ी नहीं गर्इं और उन्होंने घबराकर आत्महत्या कर ली। हाल ही में जोधपुर में बीबीए में पढ़ने वाली एक ऐसी छात्रा ने आत्महत्या की जो बारहवीं कक्षा में तीन बार अनुत्तीर्ण हुई थी। कुछ माह पूर्व जोधपुर के ही एक छात्र ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल मारकर आत्महत्या की थी जो आईआईटी मुम्बई का छात्र था। उसने एक नोट लिखकर छोड़ा था- मरने के बाद किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। बहुत से माता-पिता यह जानकर भी कि उनका बच्चा कठिन पढाई नहीं कर सकता उसे जबर्दस्ती आईआईटी और पीएमटी की तैयारी करने के लिये कोटा भेज देते हैं। कोटा में आये साल बच्चे आत्महत्या करते हैं। वहां नशीली दवाओं का कारोबार फैल रहा है। हाल ही में कोटा में एक ऐसा गिरोह पकड़ा गया था जो चरस, गांजा, अफीम, हशीश और हेरोइन से भी कई गुना अधिक नशीले पदार्थ कोचिंग सेंटर के बच्चों को बेचता था। सोचिये! क्यों वे बच्चे इन नशीली दवाओं के चक्कर में फंसते हैं ? केवल मानिसक तनाव से बचने के लिये। मैं एक ऐसे अभिभावक को जानता हूँ जिसने अपने बच्चे को सात साल तक कोटा में रखा ताकि वे किसी तरह पीएमटी की परीक्षा उत्ताीर्ण कर लें। आज वे बच्चे पूरी तरह बरबाद हो चुके हैं और माता-पिता की जेबें खाली हो चुकी हैं। बच्चों की बरबादी के लिये पति-पत्नी एक दूसरे को दोष देकर आपस में लड़ रहे हैं। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को आईएएस परीक्षा की तैयारी के लिये दिल्ली में रख कर कोचिंग करवाते हैं। नैसर्गिक प्रतिभा सम्पन्न बच्चे तो उस परीक्षा को पास कर लेते हैं किंतु कुछ बच्चे निराश होकर आत्महत्या तक करते हैं। संसार के सारे बच्चे मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़ने के लिये ही पैदा नहीं हुए हैं। हर बच्चे में अलग प्रतिभा होती है। उसकी प्रतिभा को नैसर्गिक रूप से विकसित होने देना चाहिये। माता-पिता जो नहीं कर सके, वही काम उन्हें अपने बच्चों से करवाने की जिद नहीं करनी चाहिये। इसे आर-या पार खेलने का जुआ भी नहीं बनाना चाहिये अन्यथा मौत का कुंआ खुदने में देर नहीं लगती। यूं तो हर साल सब्जी बेचने वाले, सरकारी चपरासी और कुलियों के बच्चे भी बिना किसी कोचिंग के आईएएस की परीक्षा उत्ताीर्ण करते हैं। नैसर्गिक प्रतिभा इसी को कहते हैं। उसी को आगे आने देना चाहिये। अपना बच्चा कोई छोटी नौकरी कर लेगा तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा।

Sunday, February 14, 2010

महंगी शादी का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी !

- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कल आम आदमी के मन की पीड़ा को शब्द दिये। आम भारतीय जिस बात को चीख-चीख कर कहना चाहता है, उसे पारदर्शी शब्दों में व्यक्त करने की कला गहलोत को आती है। उन्होंने शादियों में हो रहे पैसे के वीभत्स प्रदर्शन पर तीखा प्रहार करते हुए कहा कि लोग एक-एक कार्ड पर 500 से लेकर 2000 रुपये तक खर्च करते हैं और जब वे शानो-शौकत का प्रदर्शन करते हुए महंगी गाड़ियों में बैठकर कार्ड बांटने आते हैं तो मूड खराब हो जाता है। एक-एक शादी में दस-दस हजार लोगों को खाना खिलाया जाता है और एक-एक प्लेट के लिये एक-एक हजार रुपये तक भुगतान किया जाता है। ऐसा करने वाले लोग बेशर्म हैं और ऐसी शादियों में जाकर मुझे शर्म का अनुभव होता है।
भारतीय विवाह वस्तुत: अब पारिवारिक आयोजन न रहकर सामाजिक एवं आर्थिक हैसियत और पारिवारिक शक्ति प्रदर्शन का भौण्डा हथियार बन गये हैं। यही कारण है कि वे सार्वजनिक मेलों की तरह आयोजित होते हैं जिनके कारण सड़कों पर जाम लग जाता है। विवाह स्थल पर लोग एक दूसरे को धक्क ा देकर खाना खाते हैं। समारोह स्थल पर थर्माकोल और प्लास्टिक के गिलासों के पहाड़ बन जाते हैं। हर आदमी थाली में बड़ी मात्रा में झूठन छोड़ता है। कीमती पानी की बर्बादी होती है। लोग कॉफी और आइसक्रीम का एक साथ सेवन करते हैं। लाखों रुपये की बिजली साज - सज्जा पर फूंकी जाती है। बडे-बडे जनरेटरों में तेल जलाया जाता है और हजारों रुपये के पटाखों में आग लगाई जाती है जिनसे वायु एवं ध्वनि प्रदूषण होता है। अधिकतर शादियों में नौजवान लड़के शराब पीकर डी जे के तेज शोर में अश्लील भावों वाले गीतों पर अपनी बहिनों, भाभियों, चाचियों और ताइयों के साथ नृत्य करते हैं जिन्हें देख-सुन कर शर्म आती है।
शादियों में सम्मिलित होने के लिये आदमी हजारों रुपये के महंगे सूट बनवाते हैं। औरतें और लड़कियां महंगी पोषाकें और गहने बनवाती है। लाख-लाख रुपये के तो अचकन और लहंगे सिलते हैं। लोग लाखों लीटर पेट्रोल केवल शादियों में दावत खाने के लिये फूंक देते हैं। मैं पिछले पच्चीस वर्ष से इस तरह की शादियों के खिलाफ आवाज उठाता रहा हूँ।
जो व्यक्ति मेरे पास विवाह का निमंत्रण लेकर आता है, मैं उससे आग्रह करता हूं कि शादी में कम से कम लोगों को बुलायें और कम से कम पैसे खर्च करें। लोग मेरी बात से असहमति जताते हुए कहते हैं कि आप कह तो सही रहे हैं किंतु पैसा खर्च किये बिना विवाह का मजा नहीं आता। घर के सदस्यों का भी मन रखना पड़ता है। यदि खर्चा नहीं करें तो लोग कहेंगे कि पूरा मंगतापना दिखा दिया। तब उन लोगों को मैं अपने विवाह के बारे में बताता हूँ। मेरा विवाह 25 साल पहले हुआ था। उस समय मैं बैंक में मैनेजर था। मैंने अपने पिता से अनुरोध किया कि मेरा विवाह दिन में करें। लाइटिंग, सजावट, कपड़े, कैमरा, घोडा, बारात आदि पर खर्चा न करें। मेरे पिता और श्वसुर दोनों ने मेरे प्रस्ताव का स्वागत किया। मुझे, मेरे पिता या मेरे श्वसुर को किसी ने नहीं कहा कि आपने कंजूसी की अथवा मंगतापना दिखाया! मेरे चारों छोटे भाई-बहिनों के विवाह में भी पूरी सादगी रखी गई। मेरे पिता ने कभी किसी से दहेज नहीं मांगा। न मेरे पिता से किसी ने दहेज मांगा। मैं अपना और अपने घर का उदाहरण इसलिये देता हूँ ताकि कोई यह न समझे कि कोरे उपदेश देना बड़ा आसान होता है। वास्तव में तो सादा जीवन शैली को अपनाना बहुत आसान होता है। जटिलता तो जीवन में पैसे को शामिल करने से बढ़ती है। अब भी समय है, हम मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के शब्दों का मर्म समझें। शादियों में पैसे का भौण्डा प्रदर्शन करके प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट न करें।

Saturday, February 13, 2010

बच्चों को विकलांग बना सकता है डीजे!

विवाह एक पारिवारिक आयोजन है किंतु आधुनिक जीवन शैली में आम आदमी के व्यक्तिगत सम्पर्कों में हुए कई गुना विस्तार के कारण भारतीय विवाह सार्वजनिक मेले की तरह दिखाई देने लगे हैं जिनमें हजारों नर-नारी सम्मिलित होते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो केवल पारिवारिक विवाह आयोजनों में भाग लेते हैं। अधिकतर लोग सामाजिकता के निर्वहन के लिये बड़ी संख्या में परिचितों, सम्बन्धियों और सहकर्मियों के परिवारों में होने वाले विवाहों में सम्मिलित होते हैं। इन वैवाहिक आयोजनों में सैंकड़ों तरह की असुविधाओं के बीच डी जे सबसे बड़ी मुसीबत के रूप में उभरा है। लगभग सारे विवाह समारोहों में इस आधुनिक कानफोड़ू वाद्ययंत्र को बजाया जाता है।
मनुष्य के लिये 50 डेसीबल्स तक की अधिकतम ध्वनि सहन करने योग्य होती है। मुझे पक्का तो नहीं पता किंतु मेरा अनुमान है कि इस वाद्ययंत्र की ध्वनि तीव्रता 500 डेसीबल तक होती होगी। इस ध्वनि पर आदमी का शरीर ही नहीं, आत्मा तक कांप उठती है जिससे आने वाली पीढ़ियां स्थाई रूप से विकलांग हो सकती हैं। हमारे घर में दिन के समय अधिकतम 30 से 35 डेसीबल तक तथा रात्रि में 25 डेसीबल तक ध्वनि होनी चाहिये। यदि हमारे घर में सड़क पर चलने वाले वाहनों की आवाज आती है या जोर से टेलीविजन चलता है या पास में कोई मशीन चलती है तो ध्वनि का स्तर बढ़ जाता है जिससे हम कई तरह की समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं। मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है, चिड़चिड़ाहट बढ़ती है और घर के सदस्यों में झगड़ा होने लगता है। अधिक समय तक शोर में रहने से आदमी बहरा होने लगता है। उसका रक्तचाप बढ़ जाता है। रक्त में शर्करा बढ़ने लगती है। हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। शरीर से खनिज पदार्थ पसीने के रूप में बाहर निकलने लगते हैं। खाना हजम नहीं होता। कार्य की क्षमता घट जाती है। आदमी की एकाग्रता नष्ट हो जाती है और वह किसी काम पर ध्यान केन्द्रित करने योग्य नहीं रह जाता। उसे कुछ याद नहीं रहता। इन सब बातों का अंतिम परिणाम यह होता है कि आदमी स्थायी तौर पर बीमार हो जाता है। इसीलिये अस्पतालों और विद्यालयों के आस-पास हॉर्न बजाना मना होता है और मंदिरों के आस-पास पेड़ लगाये जाते हैं।
अब तक धरती पर जो भी मशीनें बनी हैं उनमें सुपर सोनिक वायुयानों की ध्वनि सबसे अधिक है। इस शोर में यदि कोई व्यक्ति कुछ दिनों तक लगातार रहे तो वह स्थायी रूप से पागल हो सकता है। अधिक ध्वनि से आदमी की प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। गर्भवती माताओं में गर्भपात की शिकायत बढ़ जाती है तथा मानसिक रूप से विकलांग बच्चे पैदा हो सकते हैं। आजकल अस्पतालों में विकलांग एवं मंद बुद्धि बच्चों के जन्म की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। भारतीय ही नहीं दुनिया भर की संस्कृतियों में शांति को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। शांत वातावरण में रहने से हमारी वैचारिक और आध्यात्मिक शक्ति में वद्धि होती है। भीतर की शक्ति बढ़ाने के लिये मौन रखा जाता है। पूजा पाठ के अंत में शांति पाठ किया जाता है। जीते जी ही नहीं, आदमी के मरने के बाद भी उसकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना की जाती है। कब्रों पर जाकर फूल चढ़ाये जाते हैं तथा उन पर आर. आई. पी. अर्थात् रेस्ट इन पीस लिखा जाता है। यह कैसी विडम्बना है कि इन सब बातों को जानते हुए भी हम डी जे को गले से लगाये हुए हैं !

Friday, February 5, 2010

कविता के बिना रोबोट बन जाएगा मनुष्य !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
प्रख्यात शिक्षाविद् यशपाल ने भारत के वर्तमान परिदृश्य पर करारी टिप्पणी की है। हाल ही में रिलीज हुई एक पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है- तकनीकी शिक्षा पर जोर देने से परिस्थितियां बिगड़ी हैं, यदि व्यक्ति साहित्य, संगीत और दर्शन से दूर रहेगा तो दुनिया शीघ्र ही ऐसे रोबोट्स से भर जायेगी जिनका केवल चेहरा ही मनुष्य जैसा होगा। अधिकांश लोगों का यह दृÞढ विश्वास है कि कविता, संगीत और पेंटिग जैसी सृजनात्मक गतिविधियों से जुÞडेÞ छात्रों के रैगिंग जैसे अपराधों से जुÞड़ने की संभावना कम होती है।
हमारे बच्चे क्यों संवदेनहीन, दु:साहसी और आत्मघाती होते जा रहे हैं, इस प्रश्न का इससे सही उत्तर और कुछ नहीं हो सकता कि हमने उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, प्रशासनिक अधिकारी और व्यवसाय प्रबंधक बनाने के लिये कविता से दूर कर दिया। जैसे जीवन का बसंत यौवन है, वैसे बुद्धि का वसंत कविता है। एक युग वह भी था जब बड़े-बड़े राजा-महाराजा कविता पढन्Þो वालों की पालकियाँ कंधे पर उठाया करते थे और एक समय यह है कि साहित्य, कला, इतिहास और भूगोल जैसे सरस विषय कम अंक लाने वाले छात्र के उपयुक्त समझे जाते हैं। परीक्षा में रट-रटा कर दूसरों से अधिक अंक लाने वाले छात्रों को मेधावी माना जा रहा है। विज्ञान और अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को सुयोग्य तथा साहित्य और कविता पढ़ने वालों को अयोग्य अर्थात् कम बुद्धि वाला छात्र माना जा रहा है। इतिहास गवाह है कि तुलसी, सूर, कबीर, मैथिलीशरण गुप्त जैसे व्यक्ति कविता से जुÞड़ाव के कारण ही दीर्घायु हुए, उन्हें इतना यश मिला कि देश और काल की सीमाओं को लांघ गया। दूसरी ओर भारतेंंदु हरिश्चंद्र जैसे कवि भी हुए जिन्होंने कविता को पाने के लिये अपने पुरखों द्वारा संचित कुबेर का कोष खाली कर दिया। यह सही है कि विज्ञान और अर्थशास्त्र के अध्ययन के बिना संसार का काम नहीं चल सकता किंतु यह भी सही है कि कविता के बिना भी संसार का काम नहीं चल सकता। वह मनुष्य किस काम का जिसके हृदय में कविता नहीं बसती हो। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है- जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
कविता मन, वाणी और बुद्धि का उल्लास है। इसीलिये कहा जाता है- जहाँ न पहुंचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। संस्कृत का एक श्लोक आज भी छोटी कक्षाओं में पढ़ाया जाता है- काव्यशास्त्र विनोदेन, कालो गच्छति धीमताम्। व्यसनेन मूर्खाणां, निंद्रिया कलहेन वा। अर्थात् बुद्धिमान व्यक्तियों का समय कविता से विनोद करने में व्यतीत होता है जबकि मूर्ख व्यक्ति या तो सोते हैं, या कलह अर्थात् झगड़ा पैदा करते हैं। अर्थात् यशपाल ने सत्य ही कहा है कि जो बा स्वर्ग है। हमें अपने बच्चों को इस स्वर्ग से दूर नहीं करना चाहिये। उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर या आईएएस बनायें किंतु कविता गुनगुनाने वाला, न कि कविता से झिझकने वाला। मैं भाग्यशाली हूँ कि पिताजी ने हमें कविता से जोडे रखा, रोबोट नहीं बनने दिया। खेद है कि अब बच्चे कविता याद करने की जगह फिल्मी गीतों की अंतराक्षी खेलते हैं।

Thursday, January 28, 2010

इट हैपन्स ओनली इन इंडिया!

मोहनलाल गुप्ता
गणतंत्र दिवस पर भी अब बधाई के एस एम एस करने का फैशन चल निकला है। मेरे मोबाइल फोन पर जो ढेर सारे एस एम एस आये, उनमें से एक एस एम एस के शब्द अब तक मेरे मस्तिष्क में चक्कर काट रहे हैं। यह एस. एम. एस. मुझे जोधपुर से ही किसी साथी ने भेजा है जिसमें लिखा है कि हम एक ऐसे मजाकिया देश में रहते हैं जिसमें पुलिस या एम्बुलेंस से पहले पिज्जा घर पहुंचता है और जहाँ बैंकों द्वारा एज्यूकेशन लोन पर 12 प्रतिशत किंतु कार लोन पर 8 प्रतिशत ब्याज दर ली जाती है। वस्तुत: पिछले कुछ सालों से मैं इस बात को बार-बार दोहराता रहा हूँ कि हमारे देश का बाजारीकरण हो रहा है। बाजार हम सबको खाये जा रहा है। सारे रिश्ते, सारी संवेदनायें, मानवीय मूल्य, सामाजिक पर्व, रीति-रिवाज, हमारी गौरवशाली परम्परायें, सब पर बाजार हावी हो रहा है। गणतंत्र दिवस पर मिला यह एस. एम. एस., देश पर हावी होते जा रहे बाजारीकरण को ही व्यक्त करता है। बीड़ी के बण्डल पर गणेशजी तो पिछले कई दशकों से छपते रहे हैं, चोली के पीछे क्या है जैसे भद्दे गीत भी इस देश में डेढ़ दशक पहले करोडों रुपयों का व्यवसाय कर चुके हैं। अब तो परिस्थितियां उनसे भी अधिक खराब हो गई है। देश में पिछले कुछ सालों में हुए स्टिंग आॅपरेशन हमारे देश में बढ़ते लालच की कहानी कहते हैं। पहले इस देश में जनसंख्या का विस्फोट हुआ, फिर लालच का भूकम्प आया और उसके तत्काल बाद बाजार में महंगाई का ज्वालामुखी फूट पड़ा। आज तक जितनी भी वैज्ञानिक प्रगति हुई है, उसे अचानक बाजार ने अपनी चपेट में ले लिया है। रेडियो, टी. वी. और पत्र-पत्रिकाओं का आविष्कार मानो बाजारू वस्तुओं के विज्ञापन दिखाने के लिये ही हुआ है ! मोबाइल फोन पर सारे दिन इस प्रकार के एसएमएस आते रहते हैं- जानिये अपने लव गुरु के बारे में। यदि आप अठारह साल या उससे अधिक उम्र के हैं, तो वयस्क चुटकले पाने के लिये हमें एसएमएम कीजिये। तीन रुपये प्रति मिनट में अपना भविष्य जानिये। अर्थात् धर्म, विज्ञान, अध्यात्म, ज्योतिष सब कुछ बाजार ने निगल लिये हैं। इस देश का राष्ट्रीय खेल हॉकी है, किंतु लोग क्रिकेट के पीछे पागल हैं। शेर इस देश का राष्ट्रीय पशु है किंतु वह जंगलों से गायब हो रहा है। साड़ी इस देश की औरतों की मुख्य पोशाक है किंतु अब वह टीवी के ढेर सारे चैनलों से लेकर सिनेमा के पर्दों और सड़कों के किनारे लगे होर्डिंगों पर निक्कर-बनियान पहने ख़डी है। वह जननी से जनानी बनाई जा रही है और यह सब नारी मुक्ति, नारी स्वातंत्र्य और नारी सशक्तीकरण के नाम पर हो रहा है। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के भार से अधिक उनकी पीठ पर लदे बस्ते का भार है जिसके बोझ के तले दबकर बचपन ही नहीं बड़े भी आत्महत्या कर रहे हैं।

Thursday, January 21, 2010

अब बॉस देर शाम तक रुकने को नहीं कहते !

इंग्लैण्ड में श्रमिकों, कर्मचारियों एवं अधिकारियों से लेकर प्रबंधकीय वर्ग तक में काम करने की एक आदर्श आचार संहिता है। इस आचार संहिता का अधिकांश हिस्सा अलिखित है जो परम्परा, मर्यादा और कॉमनसेंस से संचालित होता है। कुछ अडियल मालिकों और प्रबंधकों को नियंत्रित करने के लिये श्रम कानून भी बने हुए हैं। इंगलैण्ड में हर व्यक्ति निर्धारित समय पर अपने कार्य स्थल पर पहुंचता है। काम के समय में वह लगातार काम करता है। गप्पों, बहसों, चाय की चुस्कियों और हथाइयों के लिये उस दौरान कोई गुंजाइश नहीं रहती। कार्यालय कर्मचारियों से भरा रहता है किंतु वहां शोर नहीं होता। लंच के समय लंच होता है और छुट्टी के समय छुट्टी होती है। काम समाप्त करने का समय उसी तरह निश्चित है जिस तरह काम आरंभ करने का। काम का समय पूरा होने के बाद कोई भी बॉस अपने अधीनस्थ को कार्य स्थल पर एक मिनट के लिये भी नहीं रोक सकता अन्यथा उसे श्रम कानूनों का सामना करना पड़ सकता है। अवकाश के दिन कोई कर्मचारी काम पर नहीं बुलाया जाता, उस दिन केवल अवकाश ही रहता है।
देखने-सुनने में यह व्यवस्था कुछ रूखी और यांत्रिक प्रतीत होती है किंतु इस व्यवस्था को बनाये रखने में काम के समय काम वाला फण्डा सहायता करता है। भारत में इस परम्परा का निर्वहन केवल उन कारखानों में लागू है जहां श्रमिक समय पर अपना कार्ड पंच करवाते हैं और शाम को भौंपू बजते ही काम छोड़ देते हैं। जबकि अधिकांश कार्यालयों में श्रमिक वर्ग और कर्मचारियों से लेकर अधिकारी और प्रबंधक, काम पर पंद्रह बीस मिनट से लेकर एक घण्टे तक की देरी से पहुंचते हैं, दिन में गप्पें लगाते हैं, एक दूसरे को चाय पिलाकर आपसी सम्बन्धों को आगे बढ़ाते हैं। लंच में भी आधे घण्टे की जगह एक घण्टा लेते हैं और शाम को कार्यालय बंद होने से कुछ पहले ही अपना कार्य छोड़ देते हैं। एक ओर कर्मचारी कम होने का रोना रोया जाता है दूसरी ओर कार्यालय कर्मचारियों के शोर-शराबे से भरे हुए रहते हैं। इस कार्यशैली की भरपाई के लिये बहुत से कर्मचारी और अधिकारी देर शाम तक अपने कार्यालय में रुक कर काम निबटाते हैं और अवकाश के दिन भी कार्यालय खोलकर बैठते हैं।
मेरे एक मित्र की पुत्री लंदन की एक प्रतिष्ठित कम्पनी में अधिकारी हैं। वहां उनके बॉस एक भारतीय व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी अधीनस्थ भारतीय अधिकारी को निर्देश दिये कि शाम को कार्यालय छोÞडने से पहले वे दिन भर के काम की रिपोर्ट देकर ही घर जायेगी। शाम के समय जब यह अधिकारी अपने बॉस के कमरे में जाती तो, वे किसी अन्य कार्य में उलझे हुए होते। इस चक्कर में इस महिला अधिकारी को नित्य ही काफी देर तक कार्यालय में रुकना पÞडता। एक दिन भारतीय बॉस के अंग्रेज बॉस ने उस महिला अधिकारी को देर शाम को कार्यालय में देख लिया तो उससे कार्यालय में रुके रहने का कारण पूछा। लड़की ने अपने बॉस के निर्देश उन्हें बता दिये। इस पर बॉस के बॉस ने निर्देश दिये कि आप स्वयं रुककर कोई कार्य करना चाहें तो भले ही रुकें अन्यथा आपको रुकने की आवश्यकता नहीं है। यदि आपके बॉस को आपसे कार्य की रिपोर्ट लेनी है तो वे ऐसी व्यवस्था करें जिससे यह कार्य भी निर्धारित समय में पूरा हो। उस दिन के बाद से भारतीय बॉस ने उस अधिकारी को कभी कार्यालय समय के पश्चात् कार्यालय में नहीं रोका।

इंगलैण्ड में कोई नहीं पूछता कि आप कहाँ जा रहे हैं !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
श्री द्वारकादास माथुर ने मुझे एक रोचक किस्सा सुनाया। उनकी पुत्री लंदन की एक टेलिकॉम कम्पनी में अधिकारी है। उसे अपने कार्य के विषय में कोई जानकारी चाहिये थी। उसे ज्ञात हुआ कि कार्यालय की एक इंगलिश लड़की इस सम्बन्ध में सबसे अच्छी जानकारी रखती है। भारतीय लड़की ने उस इंगलिश लÞडकी से सम्पर्क किया और अनुरोध किया कि वह उसे इस विषय की जानकारी दे। इंगलिश लड़की ने भारतीय लड़की से कहा कि वह उसे जानकारी तो दे देगी किंतु वह भारतीय लोगों को कम ही पसंद करती है क्योंकि वे बहुत जल्दी पर्सनलाईज होने का प्रयास करते हैं। भारतीय लड़की को बुरा लगा। इसलिये अगले कुछ दिन तक उसने इंगलिश लड़की से सम्पर्क नहीं किया। तीसरे-चौथे दिन वह इंगलिश लड़की स्वयं चलकर भारतीय लड़की के पास आई और उसे वांछित जानकारी प्रदान कर दी। भारतीय लड़की को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि इंगलिश लड़की को उस विषय की बहुत अच्छी जानकारी थी और उसने वह जानकारी बहुत ही अच्छे तरीके से भारतीय लड़की को दी। काम पूरा होने के बाद इंगलिश लड़की खेद व्यक्त करते हुए बोली, मुझे ज्ञात है कि आपको मेरी उस दिन वाली बात बुरी लगी है किंतु भारतीय लोगों के साथ कठिनाई यह है कि एकाध दिन की भेंट के बाद ही वे अत्यंत व्यक्तिगत सवाल पूछने लगते हैं। कभी पूछेंगे, आपकी शादी हो गई, या आपके बच्चे कितने हैं, या आपके हसबैण्ड क्या करते हैं ? मुझे यह समझ नहीं आता कि भारतीय लोग एक दूसरे के बारे में इतनी व्यक्तिगत जानकारी क्यों लेना चाहते हैं ! यहाँ कोई भी व्यक्ति एक दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं करता। कौन कहां आता है, कहां जाता है, किसका किससे क्या सम्बन्ध है, किसका किसी से क्या झगड़ा है इस बारे में किसी अन्य व्यक्ति को तब तक नहीं जानना चाहिये जब तक कि ऐसा करना आवश्यक न हो। हो सकता है कि कुछ लोगों के पास उस इंगलिश लड़की के विरुद्ध कुछ तर्क हों किंतु काफी सीमा तक वह अपनी बात सही कह रही है। आम भारतीय एक दूसरे के जीवन में आवश्यकता से अधिक तांका-झांकी करता है। यद्यपि यह भी सही है कि आम भारतीय सुख-दुख में एक दूसरे का अधिक साथ देता है किंतु यूरोपीय संस्कृति में सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि किसी व्यक्ति को सुख-दुख में सहायता उस व्यवस्था से ही प्राप्त हो जाती है। यही कारण है कि इंगलैण्ड के लोग एक दूसरे से मिलने पर मौसम के बारे में तो बात करते हैं किंतु कोई किसी से यह नहीं पूछता कि आप कहाँ जा रहे हैं। जबकि भारत में तो घर से बाहर निकलते ही हर व्यक्ति को इसी सवाल का सामना करना पड़ता है। हैरानी होती है यह देखकर कि कभी-कभी तो दो-चार किलोमीटर की दूरी में ही हमारा सामना इस सवाल से आठ-दस बार तक हो जाता है। उस इंगलिश लड़की की तरह मैं भी यह सोचकर हैरान होता हूँ कि लोग आखिर क्यों जानना चाहते हैं कि कोई कहाँ जा रहा है!

Monday, January 18, 2010

वे मुस्कुराकर बूढ़ों को रास्ता देते हैं!

मोहनलाल गुप्ता
गांधी के नाम पर दे दे बाबा ! शीर्षक वाले कल के लेख की भाँति यह लेख भी मेरे मित्र द्वारकादास माथुर की इंगलैण्ड यात्रा के अनुभव पर आधारित है। हम भारतीय अपने आप को दुनिया का सबसे तमीजदार और सभ्य आदमी मानते हैं जबकि दुनिया देखने पर पता लगता है कि वास्तविकता कुछ और ही है। भारत में सड़कों पर जो आपा-धापी मची हुई है और साल भर में सड़क दुर्घटनाओं में जितने लोग मरते हैं उनका आंकÞडा देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से बता सकता है कि हमारा देश तमीज, सभ्यता और मानवता के मामले में पिछड़ता जा रहा है। हम अपने से बड़ों का सम्मान करना छोड़ रहे हैं और किसी भी तरह दूसरों से आगे निकल जाने की अंधी होड में लगे हुए हैं। इंग्लैण्ड में सड़क, फुटपाथ, गली या सार्वजनिक स्थानों पर चलने का एक सामान्य नियम है कि जब दो व्यक्ति चलते हुए एक दूसरे के सामने आ जायें तो कम आयु के लोग अपने से बड़ी आयु के लोगों की तरफ देखकर मुस्कुराते हैं और उनके लिये पर्याप्त स्थान छोड़ देते हैं। जिस व्यक्ति के लिये मार्ग छोड़ा जाता है, वह भी मुस्कुराता है और धन्यवाद ज्ञापित करता हुआ आगे निकल जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में एकाध सैकेण्ड लगता है किंतु इससे आम आदमी के जीवन में जो मिठास और विश्वास घुलता है, उसकी कीमत कई घंटों में की गई समाज सेवा से भी अधिक होती है। इंगलैण्ड में बड़ी आयु के लोगों को मुस्कुराकर रास्ता देने का कोई लिखित कानून नहीं है। वहाँ तो संविधान तक अलिखित है। इसके विपरीत हमारे देश में बÞडा भारी लिखित संविधान मौजूद है किंतु हमारे सामाजिक जीवन की जटिलतायें दूसरे देशों से कहीं अधिक हैं। हमारा आपसी व्यवहार लगभग स्तरहीन है। वह मिथ्या प्रदर्शन, ढोंग और पाखण्ड से भरा हुआ है। हम दूसरों की सहायता करने में सबसे पीछे हैं जबकि इंग्लैण्ड में किसी से सहायता मांगने पर हमारा सामना जिस सद् व्यवहार से होता है, वह अनुकरणीय है। नि:संदेह उनके पास हमारे जैसी गीता, रामायण, महाभारत और उपनिषद नहीं हैं किंतु बहुत सारी उन अच्छी किताबों के होने का क्या लाभ है जब तक उन्हें पढा न जाये और अपने जीवन में उतारा न जाये। हमारी सड़कों पर युवकों के प्रदर्शन को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि उन्हें नैतिकता और सदाचरण की शिक्षा नहीं दी जा रही है। वे मोटर साइकिल पर हवा की गति से चलते हैं, किसी नियम और किसी की मानसिक परेशानी की परवाह न करके दांये, बांये होते हुए सबसे आगे निकलने का प्रयास करते रहते हैं। कार चलाने वाले, चौराहों पर भी अपनी कार धीमी नहीं करते, उनके कानों पर हर समय मोबाइल फोन लगा हुआ रहता है। लड़कियां अपनी स्कूटी को फुर्र से उÞडाने के चक्कर में बड़े वाहनों के सामने आकर दुर्घटनाग्रस्त होती है। ट्रक और ट्रैक्टर वाले तो ब्रेक पर पैर रखना ही नहीं चाहते। साइकिल वाले अपने जीवन की जिम्मेदारी पूरी तरह से दूसरों के माथे डाल कर चलते हैं। पैदल चलने वाले एक दूसरे से कंधे छीलते हुए चलते हैं। बसों में बैठे हुए यात्री सÞडकों पर केले के छिलके और थूक फैंकने में संकोच नहीं करते। यूरोप में ऐसे स्तरहीन समाजिक व्यवहार वाले दृश्य दिखाई नहीं देते।

Saturday, January 16, 2010

गांधी के नाम पर दे दे बाबा!

गांधी के नाम पर दे दे बाबा। रुपया नहीं पौण्ड चलेगा, गांधी के नाम पर ढोंग चलेगा। ये वे डेढ पंक्तियां हैं जो उस समय से मेरे मस्तिष्क में घूम रही है जब से मेरे मित्र द्वारका दास माथुर ने मुझे अपनी इंगलैण्ड यात्रा के कुछ संस्मरण सुनाये। गांधी हमारे राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नेताओं में सबसे बड़ा कद रखते हैं, उन्हें हम राष्ट्रपिता कहकर सम्मान देते हैं तथा किसी को अपनी बात मनवानी हो तो उस बात को गांधी के हवाले से कहने का प्रयास करते हैं। गांधी के नाम की तुरप ठोकते ही सामने वाला अपने हाथ खड़े कर देता है। यह अलग बात है कि आज हम गांधी के बारे में बहुत ही कम जानते हैं!
भारत से बाहर गांधी को किसी और दृष्टि से देखा जाता रहा है। आजादी की लड़ाई के दिनों में वे लंदन के आंख की सबसे बड़ी किरकिरी थे। आजादी के बाद भारत से अलग हुए पाकिस्तान में वे खलनायक के रूप में देखे गये। नि:संदेह उस पाकिस्तान में आज का बांगलादेश भी पूर्वी पाकिस्तान के नाम से सम्मिलित था किंतु आज बांगलादेशी लोग गांधी के नाम को यूरोप के बाजार में किसी खूबी के साथ बेच रहे हैं, वह देखने और समझने वाली बात है। लंदन सहित यूरोप के कई शहरों में आज बांगलादेशियों ने बड़े-बड़े रेस्टोरेंट्स खोल रखे हैं जिनके बाहर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा रहता है- गांधी रेस्टोरेंट।
जिस ब्रिटिश राजशाही से गांधी लगभग चार दशक तक लड़ते रहे। लंदन उन्हें भयभीत आंखों से देखा करता था। आज उसी लंदन में गांधी के नाम के रेस्त्रां खुले हुए हैं और धड़ल्ले से चल रहे हैं। एक बार को ऐसा लग सकता है कि यह बात लंदनवासियों के बड़े दिल का परिचायक है किंतु इसके पीछे कुछ और भी गहरी बात छिपी हुई है। आज तो गांधी की मृत्यु को तिरेसठ साल हो गये किंतु जब गांधी जीवित थे और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिये लंदन गये थे तो गांधी को सड़क पर चलते देखकर लंदन के अभिजात्य वर्ग की औरतें और पुरुष श्रद्धा मिश्रित कौतूहल से उनके पीछे चलने लगते थे। कैसे एक नंगे-बदन आदमी यूरोप की सर्दी को खादी की धोती से जीत लेता है! कैसे कोई आदमी बिना व्हिस्की और मांस के पेट भर लेता है! कैसे एक अधनंगी और मरियल सी देह के भीतर ऐसी मजबूत आत्मा निवास करती है जो संसार की सबसे बड़ी ताकत को चुनौती देती हुई लंदन तक चली आती है! आज भी बहुत से यूरोप वासियों के लिये गांधी एक कौतूहल हैं, एक विस्मयकारी जीवन शैली के प्रतिनिधि हैं। यही कारण है कि लंदन के लोग गांधी के नाम से चल रहे रेस्टोरेंट्स में बड़े चाव से जानते हैं किंतु जैसे हम भारत में दूसरों को सम्मोहित और निरुत्तर करने के लिये गांधी के नाम का मिथ्या इस्तेमाल करते हैं, ठीक वैसे ही बांग्लादेशी भी गांधी के नाम पर लंदन वासियों को मूर्ख बनाते हैं। उन रेस्टोरेंट्स में मछली से लेकर गाय का मांस बिकता है, शराब परोसी जाती है और सूअर के मांस के पकोडे और सैण्डविच परोसे जाते हैं। इसीलिये मैंने लिखा है- रुपया नहीं पौण्ड चलेगा, गांधी के नाम पर ढोंग चलेगा।

Monday, January 4, 2010

डॉन की पार्टी क्यों नाची खाकी!

बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह समंदर का नियम है। बÞडा सांप छोटे सांप को जिंदा निगल जाता है, यह जंगल का रिवाज है। बÞडा गुण्डा छोटे गुण्डे को पाल लेता है, यह आदमियों की रवायत है। यह है उस सवाल का जवाब जो पूरे देश के सामने है कि पच्चीस दिसम्बर की रात को बम्बई में एक डॉन की पार्टी में खाकी वाले क्यों नाचे! पिछले कुछ सालों से देश में नाचने का जो सिलसिला बढा है, उसका चरम यह है कि दिल्ली की सडकों पर एक नौजवान खुलेआम अपने पडौसी का खून करके वहशी दरिंदों की तरह हाथ लहरा कर नाचता है और बम्बई में पुलिस के बडे अधिकारी डॉन के घर में आयोजित पार्टी में शराब पीकर ठुमकते हैं। उन सारे नाच गानों और ठुमकों का तो हिसाब ही क्या रखना जो बम्बई के होटलों और डांस बारों में, या सुनसान इलाकों में चोरी छिपे आयोजित हो रही रेवा पार्टियों में समाज के प्रभावशाली परिवारों के नौजवान और युवतियां ड्रग्स पीकर नाचते हैं।
देश में वहशी दरिंदों के नंगे नाच का सिलसिला लम्बा हो गया है। मेरठ के मेडिकल कॉलेज में कुछ लोग आदमियों के शवों की हड्डियों में से चर्बी निकालकर घी में मिलाते हैं। मेरठ और कानपुर में रेलवे स्टेशनों पर दीवार रंगने के जहरीले पेण्ट से चाय बनाकर बेची जाती है। गाजियाबाद में कुछ वहशी दरिंदे बच्चों को मारकर उनके शव खा जाते हैं और उनकी हड्डियां नालों में फैंक देते हैं। आर. एस. शर्मा जैसे बÞडे पुलिस अधिकारी महिला पत्रकार की हत्या करते हैं, अमर मणि त्रिपाठी जैसे लोग कवयित्रियों से दोस्ती करके उनकी हत्या कर देते हैं। एस. पी. सिंह राठौÞड जैसे उच्च पुलिस अधिकारी रुचिका की हत्या करके पुलिस विभाग का सर्वोच्च पद पा जाते हैं।
पैसे का लालच चारों ओर इतना बढ गया है कि एक सहायक अभियंता फर्जी मेडिकल बिलों से ढाई करोड रुपये का भुगतान उठाता है। आखिर क्यों चाहिये एक आदमी को इतना पैसा? क्यों आज एक आम आदमी अपने बच्चे के विवाह में हजारों आदमियों की दावत करता है ? क्यों आज हर आदमी को रहने के लिये करोडों का मकान चाहिये!
उस पर भी हमारा ढोंग यह कि हम बात-बात में महात्मा गांधी की दुहाई देते हैं। विश्व गुरु होने का दंभ भरते हैं। सत्य, अहिंसा और न्याय का ढिंढोरा पीटता हैं। गंगा, गाय और गीता की सौगंध खाते हैं। कई बार मुझे लगता है कि जिस अनुपात में हमारा लालच बÞढा है, उसी अनुपात में स्कूलों और सार्वजनिक मंचों पर ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोसितां हमारा’’ गाया जाने लगा है। क्या वास्तव में हम इस देश की बुलबुलें बन गये हैं जो दाना चुगकर फुर्र हो जाने में विश्वास करते हैं? जैसे ही हमारे बच्चे के कुछ नम्बर ज्यादा आये, हमने अपने बच्चे को पÞढने के लिये अमरीका, लंदन या आॅस्ट्रेलिया भेजने का पासपोर्ट बनवाया। जैसे ही हमारा मौका लगा, हमने बेइमानी आरंभ की, इसी को तो कहते हैं बुलबुलें। एक ओर तो हम बुलबुलें बनकर नाच और गा रहे हैं और दूसरी ओर हमारा प्यारा भारत.... खैर जाने दो वह तो बिग बॉस के घर में बंद है।