Saturday, November 28, 2009

कोरिया कमा रहा है भारतीय इसबगोल से !

कोरिया में तैयार रेडियो, टीवी. टेपरिकॉर्डर कम्प्यूटर, मोबाइल चिप, कारों और पानी के जहाजों ने एशियाई, अफ्रीकी और यूरोपीय बाजारों में धूम मचा रखी है किंतु जब से चीन ने अपने यहाँ औद्योगिक क्रांति खड़ी की है, उसने सैंकडों कोरियाई कम्पनियों को अपने देश से बाहर निकाल कर खड़ा कर दिया है। जापानी तकनीक ने भी कोरिया को दुनिया भर के बाजारों में टक्कर दी है। ऐसी स्थिति में कोरिया के समक्ष दो ही उपाय बचे हैं, या तो वह अपनी कम्पनियों को दूसरे देशों में ले जाये या फिर वह कम्पनियाँ अपने ही देश में खड़ी करे और कुछ नये उत्पादों के साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उतरे। कोरिया ने ये दोनों ही उपाय किये। उसने अपनी सैंक ड़ों कम्पनियों को वियतनाम में उतार दिया। चीन से निकाली गई कम्पनियों को वियतनाम ने अपनी शर्तों पर प्रवेश दिया। आज कोरिया भारत से क च्च्ो माल के रूप में ईसबगोल, तिल, आयरन और कॉटन यार्न का जबर्दस्त आयात कर रहा है।
आज से लगभग सत्रह साल पहले मैंने लिखा था कि अमरीका में सुबह के नाश्ते की टेबल पर ईसबगोल के व्यंजनों का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि अमरीकियों में मोटापे की समस्या बढ़ रही है जिसके कारण वहाँ हृदय रोग, डायबिटीज आदि बीमारियों में जबर्दस्त वृद्धि हुई है। ईसबगोल में शरीर से वसा कम करने का अद्भुत गुण है। इसके सेवन से न केवल पेट की आंतें ढंग से काम करती हैं अपतिु शरीर से गंदा कॉलेस्ट्रोल बाहर निकलता है, मोटापा रुकता है और हृदय रोग से बचाव होता है। संसार का सर्वाधिक ईसबगोल भारत में होता है। पश्चिमी राजस्थान और उत्तरी गुजरात इसके बड़े केन्द्र हैं। जालोर, भीनमाल तथा रानीवाडा में सबसे अच्छी किस्म का ईसबगोल होता है। ऊँ झा में ईसबगोल की एशिया की सबसे बड़ी मण्डी है। कोरिया ने अमरीका में ईसबगोल की बढ़ती हुई मांग को पहचाना। उसने भारत से बड़ी मात्रा में ईसबगोल और तिल खरीदना आरंभ किया और उनसे कुकीज और बिस्किट बनाकर अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में उतार दिया। आज पूरे अमरीका में कोरियाई कुकीज का डंका बज रहा है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार की इस मांग को भारतीय व्यवसाई आसानी से कैच कर सकते थे किंतु उन्होंने इस अवसर को पहचाना ही नहीं। कोरिया एक ऐसा देश है जहाँ प्राकृतिक संसाधन न के बराबर उपलब्ध हैं। वह भारत से खरीदे गये कॉटन यार्न में सिंथेटिक रेशा मिलाकर कपड़ा तैयार करता है और दुनिया भर के देशों को बेच रहा है। इसी तरह भारत से खरीदे गये आयरन से वह बड़ी मात्रा में पानी के जहाज, मोटर वाहन और विद्युत उपकरण बनाकर दुनिया भर के बाजारों पर कब्जा बनाये हुए हैं।
हाल ही में कोरिया की अग्रणी कम्पनी पोस्को ने भारत के उड़ीसा प्रांत में लोहे का कारखाना डाला है। कुछ और भी कम्पनियाँ आ रही हैं। स्टील किंग लक्ष्मीनिवास मित्तल ने भी झारखण्ड में इस क्षेत्र में बड़ा निवेश किया है। जब चीन अपने यहाँ से कम्पनियों को निकाल रहा है तो हमें अपने कच्चे माल के निर्यात पर रोक लगाकर देश के भीतर ही माल तैयार करवाने और उसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में खपाना चाहिये। पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने वाले जोधपुर के युवा व्यवसाई तरुण जैन बताते हैं कि आज जापान जैसे देश दूसरे देशों में अपनी कम्पनियाँ लगवाने के लिये शून्य ब्याज पर धन उपलब्ध करवा रहे हैं तथा 15 प्रतिशत तक का अनुदान भी दे रहे हैं। सिडबी भी इस कार्य में सहयोग कर रहा है। भारत को इन अवसरों को पहचानना चाहिये और अपने देश के भीतर उपलब्ध श्रम संसाधनों और प्राकृतिक संसाधनों को खपाने के लिये नई औद्योगिक क्रांति को जन्म देने की पहल करनी चाहिये।

Tuesday, November 24, 2009

चीन बेच रहा है भारत के पत्थर !

चीनी बौना पूरी दुनिया को सामरिक मोर्चों पर तो नहीं खींच सका किंतु आर्थिक मोर्चों पर उसने पूरी दुनिया के घुटने टिकाने का निश्चय किया है। विगत एक दशक में उसने अपने देश के भीतर इतनी जबर्दस्त आर्थिक तैयारी की है कि अब उसे दुनिया में किसी की परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। प्रकृति से उसे विशाल भू-क्षेत्र, विशालतर प्राकृतिक संसाधन और विशालतम मानव जनसंख्या मिली है। उसने अपनी जनसंख्या को बोझ नहीं माना, न ही जनसंख्या के दैत्य को अपने ऊपर हावी होने दिया। उसने जनसंख्या को श्रम संख्या समझा और उन्हें देश के विशाल भू भागों में बन रहे बांधों, कारखानों, सड़कों और खानों में खपा दिया। कुछ दशक पहले तक चीन एक निर्धन देश था किंतु आज उसकी समृद्धि की चकाचौंध से सम्मोहित होकर अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन उसके समक्ष लम्बलेट हुए जा रहे हैं। वे ये तक भूल गये हैं कि अमरीका और चीन में सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा है। जोधपुर के युवा व्यवसायी तरुण जैन विगत दो दशकों से चीन, ताइवान, कोरिया, वियतनाम, बैंकाक, हांगकांग, टर्की तथा दुबई आदि देशों से पत्थर और हैण्ड टूल्स के आयात-निर्यात का व्यवसाय करते हैं। व्यापार के सिलसिले में उन्होंने कई बार इन देशों की यात्रा की है। वे बताते हैं कि उनके देखते ही देखते चीन के भीतर इतने जबर्दस्त आर्थिक बदलाव आये हैं कि आँखों से देखे बिना उन बदलावों की कल्पना तक करना कठिन है। एक समय था जब चीन में कोरियाई कम्पनियां काम करती थीं। आज चीन ने उन्हें निकाल बाहर किया है। चीन दुनिया भर के देशों से कच्चा माल खरीद रहा है, उसे अपने यहाँ प्रसंस्करित कर रहा है और दुनिया के दूसरे देशों को निर्यात कर रहा है। चीनियों के काम करने का तरीका इतना जबर्दस्त है कि दुनिया भर के व्यवसायी निर्यात के मोर्चे पर पिछड़ते जा रहे हैं। उदाहरण के लिये चीन के पत्थर व्यवसाय को देखा जा सकता है। भारत में अच्छी गुणवत्ता के ग्रेनाइट, संगमरमर, सैण्डस्टोन आदि कई प्रकार के पत्थर उपलब्ध हैं जिनका राजस्थान से लेकर तमिलनाडु तक बड़े स्तर पर उत्खनन होता है। भारत के द्वारा दशकों से बड़ी मात्रा में ग्रेनाइट एवं संगमरमर के तैयार स्लैब एवं टाइल आदि उत्पादों का दुनिया भर के देशों को निर्यात किया जाता रहा है। चीन भी पहले भारत से यह सामग्री मंगवाता था किंतु जब चीन ने अपनी जनसंख्या का श्रमिकीकरण किया तो उसने भारत से पत्थर के तैयार उत्पाद मंगवाने के स्थान पर भारत से भारी मात्रा में पत्थर के ब्लॉक मंगवाने आरंभ किये। चीन इस पत्थर से टाइल, स्लैब, दरवाजों की चौखटें, फव्वारे, कुण्डियां आदि बनाकर दुनिया के दूसरे देशों को बेच रहा है। जहाँ पहले भारतीय व्यवसायी अपने देश में तैयार माल दूसरे देशों को बेचते थे आज चीन ने आगे आकर भरतीय व्यवसाइयों को पीछे धकेल दिया है। भारतीय व्यवसाई हैरान हैं कि देखते ही देखते यह क्या हुआ? क्यों भारतीय व्यवसाई, भारतीय पत्थर से भारत के भीतर प्रसंस्करित सामग्री को विश्व के बाजार में नहीं बेच पा रहे? क्यों चीन भारत से पत्थर खरीद कर उसे प्रसंस्करित करके दुनिया के हर देश में बेच पा रहा है? भाव, गुणवत्ताा, समय पर डिलीवरी, भुगतान आदि हर मोर्चे पर भारतीय व्यवसायी चीन से मुँह की खा रहे हैं। भारतीय इसी में खुश हैं कि चलो चीन हमसे पत्थर तो खरीद रहा है जिससे वैदेशिक मुद्रा प्राप्त हो रही है। होना तो यह चाहिये था कि भारत अपने देश से पत्थरों के ब्लॉक्स के निर्यात पर रोक लगाता तथा दुनिया को केवल तैयार सामग्री ही बेचता। इससे भारत के भीतर लोगों को रोजगार मिलता, भारतीय आय में वृद्धि होती तथा चीन अंतर्राष्ट्रीय बाजार से भारतीय व्यवसाइयों को हरगिज नहीं धकेल सकता था।

Thursday, November 19, 2009

पति पत्नी में से कोई एक घर पर रहे !

लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन ने भारत की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को विशव में सर्वश्रेष्ठ माना है। नि:संदेह उनके द्वारा यह निष्कर्ष भारत के बहुसंख्य परिवारों को देखकर निकाला गया है। भारत के बहुसंख्य परिवार, परम्परागत परिवार हैं जो सनातन सामाजिक व्यवस्था पर आधारित हैं। सनातन भारतीय परम्परा में स्त्री और पुरुष की भूमिकाएं सुस्पष्ट हैं। उसमें किसी तरह का संशय, विवाद, स्पर्धा, तुलना, असुरक्षा जैसी नकारात्मक बातों को स्थान नहीं दिया गया है। परस्पर प्रेम, विश्वास, समर्पण, श्रद्धा और सेवा के संस्कार ही इस सनातन सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्था का ताना-बाना तैयार करते हैं।
इस व्यवस्था में न तो अधकचरी उम्र में प्रेम के पीछे पागल होकर आग से जलने या जहर खाकर मरने की आवश्यकता है, न अपने पालक माता -पिता से छिप कर अंधी गलियों में भाग जाने और दैहिक शोषण का शिकार होने की संभावना है और न दो-तीन साल के लघु वैवाहिक जीवन के बाद तलाक के लिये कचहरियों के चक्कर लगाने की विवशता है। माता-पिता अपने व्यस्क बच्चों के लिये एक परिवार का निर्माण करते हैं। बेटी को हल्दी भरे हाथों से ससुराल के लिये विदा करते हैं। मंगल गीत गाये जाते हैं और बहू को मेहंदी भरे हाथों से घर की देहरी में प्रवेश दिया जाता है। बहू अपने पूर्वजों की संस्कृति को आगे बढ़ाती है, वंश बढ़ता है और परिवार की सनातन व्यवस्था आगे चलती है।
ऐसी सामाजिक व्यवस्था लगभग पूरे एशिया में थी जिसका प्रणयन भारतीय संस्कृति से हुआ था। जापान, चीन, श्रीलंका, बर्मा, बाली, सुमात्रा, जावा, इण्डोनेशिया, श्याम आदि देशों में आज भी मोटे रूप में इसी सनातन भारतीय परम्परा और संस्कृति पर आधारित परिवारिक संरचना विद्यमान है किंतु सुरसा की तरह बढ़ता हुआ पूंजीवाद भारतीय पारिवारिक संरचना और सामाजिक व्यवस्था के लिये खतरा बन गया है। परिवारों को आज अधिक पैसे की आवश्यकता है इसलिये पति-पत्नी दोनों ही कमाने को निकल पÞडे हैं। शिशु क्रेच में छोडेÞ जा रहे हैं, बच्चे डे बोर्डिंग में डाले जा रहे हैं, बूढ़ो को वृद्धाश्रमों में धकेला जा रहा है और बीमारों को पाँच सितारा होटलों जैसे अस्पतालों में भेजा जा रहा है।
क्रेच, डे बोर्डिंग, वृद्धाश्रम और महंगे अस्पतालों में भारी पूंजी लगती है। फिर भी बच्चों, बूÞढों और रोगियों को वैसा प्रेम, समर्पण और सहारा नहीं मिलता, जैसा कि उन्हें मिलना चाहिये। यदि पति-पत्नी में से कोई एक कमाने जाये और दूसरा घर पर रहकर बच्चों, बूढों और बीमारों की देखभाल करे तो घर को सुरक्षा भी मिलती है और परिवार को चलाने के लिये कम पूंजी की आवयकता होती है। जब पति-पत्नी दोनों ही कमाने जाते हैं तो परिवार के दूसरे सदस्यों को कई तरह के मन मारने पड़ते हैं। पारिवारिक और सामाजिक आयोजनों में दोनों ही छुट्टियों के लिये तरसते हैं।
पति-पत्नी दोनों ही कमाने चल देते हैं तो बूढेÞ माता-पिता को शिशुओं और छोटे बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी दे दी जाती है। परिवार उनके लिये बोझ बन जाता है। यदि घर में बड़े बूढेÞ नहीं हैं तो बच्चों नौकरों के पास रहते हैं जहाँ वे पूरी तरह असुरक्षित होते हैं और नौकरों की बदमाशियों के शिकार होते हैं। आरुषि हत्याकाण्ड ऐसी ही बच्ची की दारुण गाथा है। यदि पारिवारिक जीवन का आनंद और सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी चाहिये तो पति-पत्नी में से एक घर पर रहे। इससे पूरे समाज को सुरक्षा मिलेगी, अपराध घटेंगे और बेरोजगारी तो पूरी तरह समाप्त हो जायेगी। प्रत्येक परिवार स्वयं तय कर ले कि कमाने कौन जायेगा और घर पर कौन रहेगा! लेगटम रिपोर्ट से केवल यही सबक मिलता है।

Wednesday, November 18, 2009

अधिक पूंजी मनुष्य की सामाजिकता को नष्ट कर देती है !

लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन ने भारत को उसके पड़ौसी देशों अर्थात् चीन, पाकिस्तान, बर्मा, बांगलादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान और नेपाल की तुलना में अच्छी प्रशासनिक, सामाजिक एवं पारिवारिक स्थिति वाला देश ठहराया है। इससे हमें फूल कर कुप्पा होने की आवश्यकता नहीं है। कई बार अकर्मण्य पुत्र अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित सम्पदा के बल पर धनी कहलवाने का गौरव प्राप्त करते हैं, ठीक वैसी ही स्थिति हमारी भी हो सकती है। भारतीय समाज और परिवार के भीतर सब-कुछ ठीक नहीं चल रहा है। भारतीय समाज और परिवार अब तक तो पूर्वजों द्वारा निर्धारित नैतिक मूल्यों के दायरे में जीवन जीते रहे हैं और सुख भोगते रहे हैं किंतु जब नैतिक मूल्यों का स्थान पूंजी ले लेगी, तब भारतीय समाज और परिवारों के भीतर कष्ट और असंतोष बÞढते चले जायेंगे। कुछ लोग हैरान होकर पूछते हैं कि कम पूंजी में सुखी कैसे रहा जा सकता है? उनके विचार में तो मनुष्य के पास जितनी अधिक पूंजी बढ़ेगी, उतना ही वह सुखी रहेगा। लोगों के चिंतन में आई यह विकृति हमारी शिक्षा पद्धति का दोष है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था और परिवार नामक संस्था के विरुद्ध, राष्ट्र के भीतर और बाहर जो षड़यंत्र रचे गये हैं, उनका ही परिणाम है कि अधिकांश भारतीय परिवार पूंजी के पीछे पागल होकर बेतहाशा दौड़ पडेÞ हैं।संसार में मनुष्य ही एकमात्र प्राणी नहीं है, करोडों तरह के जीव जंतु हैं। उनमें से कोई भी पूंजी का निर्माण नहीं करता, संग्रह भी नहीं करता। फिर भी वे ना-ना प्रकार के श्रम करते हैं और भोजन के रूप में आजीविका प्राप्त करते हैं। बिना पंूजी के वे प्रसन्न कैसे रहते हैं, क्या केवल भोजन प्राप्त कर लेना ही उनके लिये एकमात्र प्रसन्नता है? हमारा सनातन अनुभव और नूतन विज्ञान दोनों ही बताते हैं कि पशु-पक्षियों, कीट पतंगों, सरीसृपों और मछलियों में भी सामाजिक जीवन होता है जिसके आधार पर वे एक दूसरे का सहारा बनते और सुखी रहते हैं। यह सही है कि पूंजी का निर्माण किये बिना मनुष्य का सामाजिक जीवन लगभग असंभव है किंतु यह भी सही है कि अधिक पूंजी का विस्तार मनुष्य की सामजिकता को नष्ट कर देता है।श्रीमती इंदिरा गांधी लगभग 17 साल तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। उन्होंने देश के संविधान की भूमिका में भारत के नाम के साथ समाजवादी शब्द जोÞडा (न कि पूंजीवादी)। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे स्वतंत्र भारत के सामाजिक ढांचे को सुरक्षित रखने के लिये चिंतित थीं और उन्हें ज्ञात था कि दुनिया हमारे समाजिक ढांचे को चोट पहुंचाने के भरपूर प्रयास करेगी। दु:ख की बात यह है कि विगत दशकों में भारत का सामाजिक ढांचा कमजोर हुआ है तथा परिवारों में टूटन बढ़ी है। आम आदमी के नैतिक बल में कमी आने से समाजिक स्तर पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार, विवाहेत्तर सम्बन्ध, सम्पत्तिा हरण, कमीशनखोरी, सÞडक दुर्घटनाएं, बलवे, साम्प्रदायिक उन्माद, फतवे, आतंकवादी हमले, नकली नोटों का प्रचलन, राहजनी, सेंधमारी, चेन स्नैचिंग, नक्सलवाद आदि बुराइयों का प्रसार हुआ है। इसी तरह परिवारों के भीतर घर के सदस्यों की हत्याएँ, उत्पीड़न, तलाक, बच्चों के पलायन, मदिरापान, विषपान, आत्महत्या जैसी बुराइयों का निरंतर प्रसार हुआ है। हम भीतर ही भीतर खोखले हो रहे हैं। यही कारण है कि लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन की रिपोर्ट में भारत को 104 देशों की सूची में से 47वां स्थान मिला है। यह काफी नीचे है और भय है कि आने वाले दशकों में हम 47 से और नीचे न खिसक जायें। यह सोचकर प्रसन्न होने का कोई लाभ नहीं है कि चीन को हमसे काफी नीचे, 75वां स्थान मिला है।

Monday, November 16, 2009

यह आग तो हमारा घर भी फूंक देगी

लंदन से जारी हुई लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की जो उज्जवल सामाजिक और पारिवारिक तस्वीर खींची गई है, उसे बदरंग करने के लिये देश के भीतर विगत कई वर्षों से कला एवं संस्कृति की आड़ में, नारी मुक्ति और स्त्री स्वातंत्र्य के नाम पर घिनौने खेल खेले जा रहे हैं। एक दशक पहले दीपा मेहता ने भारतीय महिलाओं में समलैंगिकता की फायर लगाने का प्रयास किया। लखनऊ में गोमती नदी के किनारे इस फिल्म यूनिट का भारी विरोध हुआ। फिल्म के सैट नदी में फैंक दिये गये किंतु दीपा मेहता फिल्म बनाने पर अडी रहीं। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्ता ने इस यूनिट को पैक एण्ड गो के आदेश दिये। दीपा मेहता यूपी से तो चली गर्इं किंतु यह फिल्म बनकर रही। दीपा मेहता और शबाना आजमी ने इस फिल्म में समलैंगिक गृहणियों की भूमिका निभाई। यह फिल्म कैसा भारत बनाना या दिखाना चाहती थी!
इस तरह की फिल्मों को बनाने वाले, नारी मुक्ति की बात करने वाले, समलैंगिकता का आंदोलन चलाने वाले और देश की नसों में जहर घोलने वाले लोग वही हैं जो हर बात में महात्मा गांधी को ढाल की तरह इस्तेमाल करते हैं। महात्मा गांधी ने तो यह कहा था कि दम्पत्ति संतानोत्पत्ति के लिये ही निकट आयें, अन्यथा ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करें। गांधी की दृष्टि में आनंद प्राप्ति के लिये किया गया सैक्स तो हिंसा थी। फिर ये लोग गांधी के देश में, गांधी की बातें करके समलैंगिकता का इतना बड़ा आंदोलन खड़ा करने में कैसे कामयाब हो जाते हैं कि उन्हें कानूनी मान्यता तक मिल जाये!
कुछ और भी ऐसे कानून खड़े किये जा रहे हैं जिनकी आवश्यकता पाश्चात्य जीवन शैली के अभ्यस्त लोगों के लिये तो ठीक होती होगी किंतु भारतीय संस्कृति और समाज में उनके कारण बिखराव आयेगा। ऐसे कानून भारतीय समाज और परिवारों की शांति किस भयानक तरीके से भंग करेंगे इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। एक कानून ऐसा भी है कि जब किसी औरत के साथ कोई सहकर्मी, मित्र या अपरिचित पुरुष घर में आये तो घर के सदस्य उससे यह तक नहीं पूछ सकते कि यह कौन है और तुम्हारे साथ क्यों आया है? नारी स्वातंत्र्य की रक्षा करने के लिये यह कैसा कानून रचा गया है! यह भारतीय परिवारों को बिखेरने और समाज की शांति भंग करने के लिये रचा गया अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र नहीं तो और क्या है!
जब आग दूर लगती है तो हम इस बात से प्रसन्न होते हैं कि चलो अच्छा हुआ हमारा घर तो नहीं जलेगा किंतु विनाशकारी आग कभी स्वत: नहीं रुकती। उसे प्रयास करके रोकना पड़ता है अन्यथा वह एक न एक दिन हमारे घर तक चली ही आती है। सोचिये वह कैसा भारत होगा जिसमें हमारी बहू बेटियाँ, बड़ी-बूढ़ियों से दूधों नहाओ, पूतों फलो का आशीर्वाद लेने की बजाय समलैंगिक यौनाचरण करेगी और कानून से अनुमति मिली हुई होने के कारण हम उन्हें ऐसा करने से रोक भी नहीं सकेंगे! यदि ऐसा हुआ तो फिर लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन किस भारत की कैसी तस्वीर प्रस्तुत करेंगे!

Sunday, November 15, 2009

दुनिया की आंखों में कांटे की तरह गड़ती है भारत की पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था!

लंदन से जारी हुई लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की जिस सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को विश्व में सबसे अच्छी बताया गया है, उसे विनष्ट करने के लिये पूरी दुनिया ताल ठोक कर खड़ी हुई है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था अपने आप में कितनी अद्भुत है और शेष विश्व की सभ्यताओं से कितनी भिन्न है। चूंकि दूसरे देश इस प्रकार की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकते जिसमें आदमी को सुखी जीवन जीने के लिये कम पूंजी की आवश्यकता होती हो, इसलिये वे भारत की अथाह सम्पदा को व्यापार के नाम पर लूटना चाहते हैं किंतु परम्परागत भारतीय सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था के चलते वे भारत के लोगों से अरबों खरबों की सम्पत्ति नहीं लूट सकते। यही कारण है कि भारतीय सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था पूरी दुनिया की आँखों में कांटे की तरह गड़ती है।
आज से कुछ साल पहले भारत की दो-तीन लड़कियों को अचानक ही विश्व सुंदरी और ब्रह्माण्ड सुंदरी बनाने का विश्वव्यापी नाटक रचा गया था। इन सुंदरियों ने टीवी के पर्दे से लेकर सिनेमा और प्रिण्ट मीडिया में नारी देह को भड़कीला बनाने वाली सामग्री का अंधाधुंध प्रचार किया और अपनी अधनंगी देह के सम्मोहन को औजार की तरह काम में लिया जिसके कारण पश्चिमी देशों के बड़े-बड़े व्यापारी भारत से अरबों खरबों रुपये कमा कर ले गये और आज भी ले जा रहे हैं। सुंदरियों की अचानक आई बाढ़ के कारण बहुत से भारतीय माता-पिताओं ने अपनी लड़कियों को फैशन परेडों, ब्यूटी कांटेस्टों और रियलिटी शो नामक बेशरम तमाशों की तरफ धकेल दिया। इन चक्करों में पड़ कर न जाने कितनी लड़कियों का दैहिक शोषण हुआ। सामाजिक बदनामी से बचने के लिये लड़कियों ने अपनी अस्मत लुटाकर भी चुप रहना स्वीकार किया। जो कहानियाँ समाज के समक्ष आर्इं वे तो एक प्रतिशत भी नहीं रही होंगी। कुछ स्टिंग आॅपरेशनों ने ऐसे दैहिक शोषणों के मकड़जाल की छोटी सी झलक देश के लोगों को दिखाई थी।
भारतीय पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के लिये टी वी सीरियल पूरी ताकत के साथ आगे आये। इन धारावाहिकों में एक अलग ही तरह का भारत दिखाया गया जहाँ बहुएँ अपनी सास के विरुद्ध और सास बहुओं के विरुद्ध षड़यंत्र करती हैं। सगे भाई एक दूसरे की इण्डस्ट्री पर कब्जा करने की योजनाएं बना रहे हैं। बेटियां अपने पिता को शत्रु समझ रही हैं और ननद-भाभियां एक दूसरे की जान की दुश्मन बनी हुई हैं। पत्नियाँ धड़ल्ले से एक पति को छोÞडकर दूसरे से ब्याह रचा रही हैं। यह कैसा भारत है? कहाँ रहता है यह? मुझे अपने गली, मौहल्ले में ऐसा भारत कहीं दिखाई नहीं देता। फिर भी कुछ कम बुद्धि के लोग इन सीरियलों को रीयल लाइफ मानकर अपने दिमागों में अपने ही परिवार के सदस्यों के प्रति खराब धारणा बना कर बैठ गये हैं। ऐसे परिवारों में आई टूटन साफ देखी जा सकती है। यह टूटन अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक षड़यंत्रों का ही परिणाम है। यदि हमें सुखी रहना है तो इन अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्रों को पहचानकर अपने परिवारों को पूजी से नहीं मानसिक शांति से समृद्ध करने की पुरानी परम्परा पर लौटना होगा। लड़कियों के तन नहीं, मन सुंदर बनाने होंगे।

Saturday, November 14, 2009

भारत की पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था को बचाना होगा !

जोधपुर। लंदन से जारी हुई लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की सामाजिक व्यवस्था को विश्व में सबसे अच्छी बताया गया है। भारतीय समाज और परिवारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये कम खर्चीली जीवन शैली पर विकसित हुए हैं। घर, परिवार और बच्चों के साथ रहना, गली मुहल्ले में ही मिलजुल कर उत्सव मनाना, कीर्तन आदि गतिविधियों में समय बिताना, कम कमाना और कम आवश्यकतायें ख़डी करना, आदि तत्व भारतीय सामाजिक और पारिवारिक जीवन का आधार रहे हैं। इसके विपरीत पश्चिमी देशों की जीवन शैली होटलों में शराब पार्टियां करने, औरतों को बगल में लेकर नाचने, महंगी पोशाकें पहनने और अपने खर्चों को अत्यधिक बढ़ा लेने जैसे खर्चीले शौकों पर आधारित रही है।
आजकल टी. वी. चैनलों और फिल्मों के पर्दे पर एक अलग तरह का भारत दिखाया जा रहा है जो हवाई जहाजों में घूमता है, गर्मी के मौसम में भी महंगे ऊनी सूट और टाई पहनता है तथा चिपचिपाते पसीने को रोकने के लिये चौबीसों घण्टे एयरकण्डीश्नर में रहता है। घर की वृद्धाएं महंगी साड़ियाँ, क्रीम पाउडर और गहनों से लदी हुई बैठी रहती हैं। टीवी और सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाला यह चेहरा वास्तविक भारतीय समाज और परिवार का नहीं है। वह भारत की एक नकली तस्वीर है जो आज के बाजारवाद और उपभोक्तवाद की देन है।
आज भी वास्तविक भारत का बहुत बड़ा हिस्सा दिन भर धूप भरी सड़कों पर फल-सब्जी का ठेला लगाता है, सड़क पर बैठ कर पत्थर तोड़ता है, पेड़ के नीचे पाठशालायें लगाता है और किसी दीवार की ओट में खड़ा होकर पेशाब करता है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इन लोगों का योगदान, ए.सी. में छिपकर बैठे लोगों से किसी प्रकार कम नहीं है। इन्हीं लोगों की बदौलत कम खर्चीले समाज का निर्माण होता है। यदि इन सब लोगों को ए. सी. में बैठने की आवश्यकता पड़ने लगी तो धरती पर न तो एक यूनिट बिजली बचेगी और न बिजली बनाने के लिये कोयले का एक भी टुकड़ा। लेगटम प्रोस्पेरिटी इण्डेक्स में भारतीय समाज की इन विशेषताओं को प्रशंसा की दृष्टि से देखा गया है। भारतीय परिवार के दिन का आरंभ नीम की दातुन से होता था। आज करोड़ों लोग खड़िया घुले हुए चिपचिपे पदार्थ से मंजन करते हैं, इस स्वास्थ्य भंजक चिपचिपे पदार्थ को बेचकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हजारों करोड़ रुपये हर साल भारत से लूट कर ले जाती हैं।
पाश्चात्य संस्कृति की देन यह है कि हर बार पेशाब करने के बाद कम से कम पंद्रह लीटर फ्रैश वाटर गटर में बहा दिया जाता है तथा मल त्याग के बाद कागज से शरीर साफ किया जाता है। जो काम बिना पानी के हो सकता है, उसमें पानी की बर्बादी क्यों? और जो काम पानी से हो सकता है, उसके लिये फैक्ट्री में बना हुआ कागज क्यों? भारतीय समाज सुखी इसीलिये रहा है क्योंकि आज भी करोÞडों लोग पेशाब करने के बाद पंद्रह लीटर पानी गटर में नहीं बहाते और मल त्याग के बाद कागज का उपयोग नहीं करते। इस गंदे कागज के डिस्पोजल में भी काफी बड़ी पूंजी लगती है। जैसे-जैसे भारतीय समाज दातुन, पेशाब और मल त्याग की पश्चिमी नकल करने वालों की संख्या बढ़ेगी भारतीय समाज और परिवार को अधिक पूंजी की आवश्यकता होगी और उसकी शांति भंग होगी।

Friday, November 13, 2009

पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था ही हमारी पूंजी है!

इसी माह जारी लंदन की लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की पारिवारिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा गया है। वस्तुत: भारत की परिवार व्यवस्था संसार की सबसे अच्छी परिवार व्यवस्था रही है। भारतीय पति-पत्नी का दायित्व बोध से भरा जीवन पूरे परिवार के लिये समर्पित रहता है। इसी समर्पण से भारतीय परिवारों को समृद्ध और सुखी रहने के लिये आवश्यक ऊर्जा मिलती है। जबकि आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में पति-पत्नी एक बैरक में रहने वाले दो सिपाहियों की तरह रहते हैं, जो दिन में तो अपने-अपने काम पर चले जाते हैं, रात को दाम्पत्य जीवन जीते हैं और उनके छोटे बच्चे क्रैश में तथा बड़े बच्चे डे बोर्डिंग में पलते हैं। यह ठीक ऐसा ही है जैसे मेंढक अपने अण्डे पानी में छोड़कर आगे बढ़ जाता है, वे जानें और उनका भाग्य जाने।
पश्चिमी देशों की औरतें अपने लिये अलग बैंक बैलेंस रखती हैं। उनके आभूषणों पर केवल उन्हीं का अधिकार होता है। आर्थिक रूप से पूरी तरह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने के कारण उनमें अहमन्यता का भाव होता है और वे अपने पहले, दूसरे या तीसरे पति को तलाक देकर अगला पुरुष ढूंढने में अधिक सोच विचार नहीं करतीं। यही कारण है कि आज बराक हुसैन ओबामा का कोई भाई यदि केन्या में मिलता है तो कोई भाई चीन में। जब से ओबामा अमरीका के राष्ट्रपति बने हैं, तब से दुनिया के कई कौनों में बैठे उनके भाई बहिनों की लिखी कई किताबें बाजार में आ चुकी हैं। यही राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के मामले में भी यही हुआ था।
जापानी पत्नियां संसार भर में अपनी वफादारी के लिये प्रसिद्ध है। फिर भी जापान में एक कहावत कही जाती है कि पत्नी और ततभी (चटाई) नई ही अच्छी लगती है। यही कारण है कि जापानी परिवारों में बूढ़ी औरतों को वह सम्मान नहीं मिलता जो भारतीय परिवारों में मिलता है। भारत में स्त्री की आयु जैसे जैसे बढ़ती जाती है, परिवार में उसका सम्मान भी बढ़ता जाता है, उसके अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। भारत में स्त्रियां धन-सम्पत्ति और अधिकारों के लिये किसी से स्पर्धा नहीं करती हैं, जो पूरे परिवार का है, वही उसका है। पारम्परिक रूप से भारतीय औरत अपने लिये अलग बैंक खाते नहीं रखती है, उसके आभूषण उसके पास न रहकर पूरे परिवार के पास रहते हैं। वह जो खाना बनाती है, उसे परिवार के सारे सदस्य चाव से खाते हैं, बीमार को छोड़कर किसी के लिये अलग से कुछ नहीं बनता। जब वह बीमार हो जाती है तो घर की बहुएं उसके मल मूत्र साफ करने से लेकर उसकी पूरी तीमारदारी करती हैं। बेटे भी माता-पिता की उसी भाव से सेवा करते हैं जैसे मंदिरों में भगवान की पूजा की जाती है। पाठक कह सकते हैं कि मैं किस युग की बात कर रहा हूँ। मैं पाठकों से कहना चाहता हूँ कि भारत के 116 करोड़ लोगों में से केवल 43 करोड़ शहरी नागरिकों को देखकर अपनी राय नहीं बनायें, गांवों में आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है। शहरों में भी 80 प्रतिशत से अधिक घरों में आज भी परम्परागत भारतीय परिवार रहते हैं जहाँ औरतें आज भी संध्या के समय सिर पर पल्ला रखकर तुलसी के नीचे घी का दिया जलाती हैं और घर की बड़ी-बूढियों से अपने लम्बे सुहाग का आशीर्वाद मांगती हैं। ऐसी स्थिति में यदि लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट ने सामाजिक मूल्यों के मामले में भारत को संसार का पहले नम्बर का देश बताया है तो इसमें कौनसे आश्चर्य की बात है!

Thursday, November 12, 2009

लालसिंह कहां रहता है !

राज्य के सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशक डॉ. अमरसिंह राठौड़ बहुपठित व्यक्ति हैं। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन पत्रकारों के बीच व्यतीत किया है जिसका अर्थ होता है मानव जीवन और सभ्यता के हर कालखण्ड के अधिक से अधिक निकट रहना। भूतकाल को जान लेना, वर्तमान को हर कोण से परख लेना और समाज के भीतर भविष्य में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगा लेना। इतने सारे गहन अनुभव के साथ रविवार को सूचना केन्द्र में डॉ. राठौड़ ने जोधपुर के गणमान्य नागरिकों, समाज सेवियों, उद्योग प्रतिनिधियों एवं मीडिया प्रतिनिधियों के बीच एक चुटुकला सुनाया- एक दिन शराब के नशे में धुत्त एक व्यक्ति ने देर रात में एक घर का दरवाजा खटखटाया। एक वृद्धा के द्वारा दरवाजा खोलने पर उसने पूछा- माताजी! क्या आप जानती हैं कि लालसिंह कहाँ रहता है? वृद्धा ने कहा कि हाँ मैं जानती हूँ किंतु तुम क्यों पूछ रहे हो! तुम तो स्वयं ही लालसिंह हो? इस पर वह व्यक्ति बोला कि हाँ यह तो मैं भी जानता हूँ कि मैं ही लालसिंह हूँ किंतु मुझे अपना घर नहीं मिल रहा। अब मैं किसी का दरवाजा खटखटाकर उससे यह तो नहीं पूछ सकता कि बताईये मेरा घर कहाँ है!
सुनने में यह चुटुकला नितांत अगंभीर लग सकता है किंतु इस चुटुकले में आज के भारतीय समाज की बहुत बड़ी त्रासदी छिपी हुई है। आज हमारे बीच लाखों लालसिंह रहते हैं जो देर रात को नशे में धुत्त होकर घर पहुँचते हैं। घर के लोग उन्हें लेकर चिंतित तो रहते हैं किंतु घर में किसी को उनकी प्रतीक्षा नहीं होती। चिंतित इसलिये कि कहीं वे मार्ग में दुर्घटना के शिकार नहीं हो जायें। प्रतीक्षा इसलिये नहीं क्योंकि वे घर पहुंचते ही अपनी औरत और बच्चों के साथ मारपीट करते हैं। गंदी गालियां देते हैं और घर का पूरा वातावरण खराब कर देते हैं। पत्नी को समझ में नहीं आता कि वह ईश्वर से इस आदमी की लम्बी उम्र की कामना करे या उससे शीघ्र छुटकारा मिलने की। बच्चे जब तक छोटे होते हैं, सहमे हुए रहते हैं, उनकी पढ़ाई बरबाद हो जाती है और व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाता है। जब वे बड़े हो जाते हैं तो वे दूसरों के प्रति असहिष्णु और अनुदार हो जाते हैं जो आतंक उनके जीवन में उनके पिता ने मचाया होता है, उस आतंक का प्रतिकार वे दूसरों के जीवन में कष्ट घोलकर करते हैं। अधिकांश बच्चे तो केवल इसलिये शराब पीते हैं क्योंकि उनका पिता भी शराब पीता था। फिर उनके परिवार में भी वही सब कुछ घटित होता है जो उन्होंने अपने पिता के परिवार में देखा और भोगा था। इस प्रकार यह सिलसिला चलता रहता है। नशे में धुत्त सैंकड़ों लालसिंहों को हमने अक्सर सड़क के किनारे अर्द्धबेहोशी की अवस्था में गिरे हुए देखा होगा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे एक परिचित परिवार में दसवीं कक्षा के एक बच्चे ने केवल इसलिये जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसके पिता ने शराब पीकर उसकी माता को इतना पीटा था कि बच्चे से सहन नहीं हुआ। इस अपराध के लिये वह अपने पिता को किसी भी तरह दण्डित नहीं कर सकता था। इसलिये उसने अपने पिता को दण्डित करने का यह बेहद तकलीफदेह तरीका निकाला। बहुत से हंसते खेलते परिवार इस नर्क की भेंट चढ़ चुके हैं। ठीक ही है कि पहले आदमी शराब पीता है, फिर शराब शराब को पीती है और अंत में शराब आदमी को पी जाती है। डॉ. अमरसिंह राठौड़ की चिंता वाजिब है, हम किसी और को तो लालसिंह बनने से नहीं रोक सकते, कम से कम स्वयं को तो रोकें।

उनका क्या जो तपती भट्टी में कोयला झौंक रहे है

जोधपुर। कल हमने उल्लेख किया था कि सड़कों अथवा रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते हुए, रेलगाड़ियों में अपनी शर्ट से सफाई करते हुए, चाय की थड़ियों और रेस्टोरेंटों पर कप प्लेट धोते हुए, हलवाई की कढ़ाई मांजते हुए, कारखानों की भट्टियों में कोयला झौंकते हुए, लेथ मशीन पर लोहा घिसते हुए, वैल्डिंग करते हुए, कमठे पर पत्थर या रेत ढोते हुए, कचरे के ढेर से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए बच्चों की प्रतिभा कैसे कुंद हो जाती है। ऐसे बच्चे धनवान तो खैर हो ही नहीं सकते। केवल स्लमडॉग मिलेनियर में ही ऐसे बच्चे डॉलर और पौण्ड पर छपे राजा की तस्वीर पहचानते हैं और क्विज कंटेस्ट जीत कर मिलेनियर भी बन सकते हैं किंतु वास्तविक जीवन में यह लगभग नामुमकिन है कि वे करोड़पति हो जायें। यह अलग बात हंै कि अपराध की दुनिया में प्रवेश करके ये वह सब कुछ हासिल कर लें जो भारतीय हिंदी सिनेमा में दिखाया जाता रहा है। फिर भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे बच्चों को सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी पूंजी की आवश्यकता नहीं होती किंतु ये बच्चे अपना काम छोड़कर स्कूल नहीं जा सकते। यदि स्कूल जायेंगे तो खायेंगे क्या? यदि स्कूल में एक समय का पौषाहार मिल भी गया तो भी इन बच्चों के ऊपर अपने परिवार के दूसरे सदस्यों का पेट भरने की जिम्मेदारी भी होती है।इनमें से बहुत से बच्चे तो सालों तक नहाते भी नहीं। बरसात में प्राकृतिक स्रान हो जाये तो बात अलग है। उनके शरीर में से दुर्गंध आती है। उनके तन पर कपड़े या तो होते ही नहीं, यदि होते भी हैं तो मैले-कुचैले और फटे हुए। ऐसे बच्चों को कौन विद्यार्थी अपनी कक्षा में बैठने देगा! पहली बात तो अध्यापक भी ऐसे बच्चों को स्कूल में शायद ही प्रवेश दें। कौन जाने उस मैले-कुचैले और गंदे बच्चे से कौन सा इंफैक्शन दूसरे बच्चे को हो जाये! इनमें से बहुत से बच्चों को उनकी जातियों के आधार पर आरक्षण की सुविधा उपलब्ध होती है किंतु आरक्षण शब्द से वे जीवन भर परिचित नहीं होते। क्या होता है यह! किस काम आता है! कहा मिलता है! कैसे मिलता है! संविधान में उनके लिए आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है किंतु ये बच्चे उससे कोसों दूर है। यही वह भारत है जिसे समस्त संवैधानिक अधिकारों, न्यायिक उपचारों, विकास योजनाओं और विशाल शैक्षिक तंत्र के उपलब्ध होते हुए भी शिक्षा के समान तो क्या, असमान अवसर भी उपलब्ध नहीं हैं। भारत सरकार के अनुसार भारत में 5 से 14 करोड़ की आयु के 39 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से 2 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं जबकि अन्य एजेंसियां भारत में बाल श्रमिकों की संख्या 5 करोड़ बताती हैं। भारत सरकार के आंकड़ें को ही स्वीकार करें तो भारत में बाल श्रमिकों की कुल जनसंख्या आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर है और भारत की कुल जनसंख्या का पचासवां हिस्सा है। ये दो करोड़ बच्चे कभी स्कूल का मुंह नहीं देखते।

देश को राखी और संभावना की चिंता

जोधपुर। राज्य के सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशक डॉ. अमरसिंह राठौड़ गत सोमवार को एक बार फिर नगर के प्रबुद्ध नागरिकों, बुद्धिजीवियों, मीडिया प्रतिनिधियों और उद्योगपतियों को सम्बोधित कर रहे थे। अपने उद्बोधन में उन्होंने एक बड़ी जोरदार बात कही कि आज हमारे देश को सर्वाधिक चिंता संभावना सेठ और राखी सावंत की है। उन्होंने लोगों से सवाल पूछा कि संभावना सेठ और राखी सावंत का सामाजिक सरोकार क्या है? आखिर उन पर अखबारों और मैगजीनों के लाखों पृष्ठ खर्च किये जा चुके हैं। इस देश के करोड़ों नागरिकों ने उन्हें टी वी के विभिन्न चैनलों पर देखते हुए न जाने कितने घण्टे खराब कर दिये हैं। ऐसा है क्या उन दोनों में जो देश की इतनी सम्पत्ति, संसाधन और समय उनकी अधनंगी तस्वीरों, उनके फूहड़ कारनामों और उनके अरुचिकर संवादों पर न्यौछावर कर दिये गये! उन्होने यह भी पूछा कि आज हमारा सरोकार समाज की दो चार उन औरतों से ही क्यों रह गया है जो कपड़े पहनना नहीं चाहतीं, उस बड़े समाज से क्यों नहीं है जिसमें औरतों के पास पहनने के लिये कपड़े ही नहीं हैं। ऐसा लगता है जैसे हमारा सरोकार सिने तारिकाओं की अधनंगी तस्वीर, क्रिकेट के मैच और भ्रष्टाचार की चटखारे भरी खबर के अतिरिक्त और किसी चीज से नहीं रह गया है। माना कि देश में भ्रष्टाचार और अपराध भी हैं जिन्हें नहीं होना चाहिये किंतु हर समय उन्हीं की बातें करने से लोगों में हताशा फैलती है। देश में ईमानदार, मेहनतकश और देशभक्त लोग भी तो हैं, वे भी हमारी चर्चाओं में सम्मिलित होने चाहिये। देश में सामाजिक समस्याएं भी तो हैं। सिनेमा, क्रिकेट, भ्रष्टाचार और अपराध के साथ उन पर भी बात होनी चाहिये।
डॉ. राठौड़ की बातों को पारदर्शी करके देखना हो तो दीपक महान का वक्तव्य भी जान लेना चाहिये। दीपक सामाजिक विषयों की डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के सुप्रसिद्ध निर्माता निर्देशक हैं। उन्होंने जयपुर में हुए देश के सबसे बड़े अग्निकांड पर टिप्पणी की है कि जब तक समाज अपने दायित्व को भूलकर आईपीएल, बिग बॉस और शादियों में सीमित होकर रहेगा, इस तरह के हादसे होते रहेंगे। उनके उद्बोधन में जो व्यग्रता है उसे इस अग्निकाण्ड के परिप्रेक्ष्य में भलीभांति समझा जा सकता है। संभावना सेठ और राखी सावंत समाज के जिस वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं, उस वर्ग की औरतों को मुँह अंधेरे उठकर नगर की सड़कों पर कचरा नहीं बीनना पड़ता। यदि उन्हें यह काम दे दिया जाये तो वे कर भी नहीं सकेंगी किंतु जो औरतें आज मुँह अंधेरे कचरा बीन रही हैं, उन्हें यदि क्रीम पाउडर से पोतकर संभावना सेठ और राखी सावंत का काम दे दिया जाये तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दो-चार दिन के प्रशिक्षण के बाद उनके लिये वह कोई बड़ा काम नहीं होगा।
डॉ. राठौड़ के भाषण को मैं अपनी दृष्टि से देखता हूँ तो मुझे लगता है कि संभावना सेठ और राखी सावंत इस युग की ऐसी व्यावसायिक मजबूरियां हैं जो लिज हर्ले और दीपा मेहता की तरह समाज को अपने शरीर के अधनंगेपन और व्यर्थ के लटके-झटके में उलझाये रखने में माहिर हैं। वे मीडिया में सुर्खियां बनकर छायी रहती हैं, जिनके बल पर वे भारतीय संस्कृति को ताल ठोक कर चुनौती देती हैं और अधनंगेपन के सम्मोहन में बंधा भारतीय समाज उनके लिये बड़े बाजार का कार्य करता है। इस सम्मोहन का परिणाम यह होता है कि कुछ ही दिनों में वे सैंकड़ों करोड़ रुपयों की स्वामिनी बन जाती हैं और टी. वी. के पर्दे के सामने बैठा आम भारतीय छोटे पर्दे की चकाचौंध और अधनंगी देह के सम्मोहन में खोया रहता है।

क्यों है भारत विश्व में पैंतालीसवें नम्बर पर ?

लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा 79 मानकों को आधार मान कर विश्व के 104 देशों का रिपोर्ट कार्ड तैयार करवाया है उसमें भारत के लिये एक शुभ सूचना है। इन 104 देशों में विश्व की 90 प्रतिशत आबादी रहती है और इस सूची में भारत को पैंतालीसवां स्थान मिला है। सामाजिक मूल्यों के मामले में भारत को विश्व में पहले स्थान पर रखा गया है।
यदि 104 देशों की सूची में से विकसित समझे जाने देशों को निकाल दें और केवल विकासशील देशों की सूची देखें तो समृद्धि के मामले में भारत को प्रथम 10 शीर्ष देशों में स्थान मिला है। विश्व समृद्धि की सूची में भारत को 45वां स्थान मिला, यह शुभ सूचना नहीं है, शुभ सूचना यह है कि सकल विश्व को आर्थिक मोर्चे पर कडी चुनौती दे रहे चीन को 75वां स्थान मिला है। आगे बढ़ने से पहले बात उन मानकों की जिनके आधार पर यह रिपोर्ट कार्ड तैयार करवाया गया है। देश का सामाजिक ढांचा, परिवार व्यवस्था, मैत्री भावना, सरकार के आर्थिक सिद्धांत, उद्यमों के लिये अनुकूल वातावरण, विभिन्न संस्थाओं में लोकतंत्र, देश की शासन व्यवस्था, आम आदमी का स्वास्थ्य, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामाजिक मूल्य और सुरक्षा आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मानक हैं जिनकी कसौटी पर भारत संसार में 45वें स्थान पर ठहराया गया है और चीन 75वें स्थान पर।
भारत के अन्य पÞडौसी देशों- पाकिस्तान, बांगलादेश, अफगानिस्तान, बर्मा, श्रीलंका, नेपाल और भूटान आदि की स्थिति तो और भी खराब है। ऐसा कैसे हुआ? इस प्रश्न का उत्तार पाने के लिये एक ही उदाहरण देखना काफी होगा। पिछले दिनों जब चीन ने अपना 60वां स्थापना दिवस मनाया था तब राष्ट्रीय फौजी परेड में भाग ले रहे सैनिकों की कॉलर पर नुकीली आलपिनें लगा दी थीं ताकि परेड के दौरान सैनिकों की गर्दन बिल्कुल सीधी रहे। किसी भी नागरिक को इस फौजी परेड को देखने के लिये अनुमति नहीं दी गई थी।
लोगों को घरों से निकलने से मना कर दिया गया था, बीजिंग में कर्फ्यू जैसी स्थिति थी। लोग यह परेड केवल अपने टी.वी. चैनलों पर ही देख सकते थे। इसके विपरीत हर साल 26 जनवरी को नई दिल्ली में आयोजित होने वाली गणतंत्र दिवस परेड में भारत के सिपाही गर्व से सीना फुलाकर और गर्दन सीधी करके चलते हैं, हजारों नागरिक हाथ में तिरंगी झण्डियां लेकर इन सिपाहियों का स्वागत करते हैं और करतल ध्वनि से उनका हौंसला बढ़ाते हैं।
यही कारण है कि कारगिल, शियाचिन और लद्दाख के बर्फीले पहाड़ों से लेकर बाड़मेर और जैसलमेर के धोरों, बांगला देश के कटे फटे नदी मुहानों और अरब सागर से लेकर बंगाल की खाÞडी तक के समूचे तटवर्ती क्षेत्र में भारत के सिपाही अपने प्राणों पर खेलकर भारत माता की सीमाओं की रक्षा करते हैं। हमारी सरकार सैनिकों के कॉलर पर तीखी पिनें चुभोकर उनके कॉलर खड़े नहीं करती, देश प्रेम का भाव ही सिपाही की गर्दन को सीधा रखता है। भारत और चीन का यही अंतर हमें 45वें और चीन को 75वें स्थान पर रखा है।

Friday, November 6, 2009

धूप ही जिन्हें नसीब नहीं शिक्षा कहां से उपलब्ध हो

जोधपुर। शिक्षा के समान अवसर की वास्तविकता जाननी हो तो दिल्ली में चल रही इकाइयों में झांक कर देखना होगा। इन इकाइयों में 8 से 14 साल तक के बच्चे को काम दिया जाता है। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को यहाँ केवल दो-तीन सौ रूपयों में बेच जाते हैं। ये बच्चे दिन रात छोटी, बंद अंधेरी कोठरियों में रहकर कार्य करते हैं। वे दिन में काम करते हैं और रात को उन्हीं कोठरियों में सो जाते हैं। उन्हें कोठरियों से बाहर जाने की अनुमति नहीं होती। इन कोठरियों में बेहद गर्मी और गंदगी तो होती ही है, प्रकाश तथा आॅक्सीजन की भी कमी होती है। धूप न मिलने से इन बच्चोें की हड्डियों के समुचित विकास हेतु विटामिन डी तो बन ही नहीं पाता। जिन बच्चों के शरीर में स्थित हड्डियों के लिए धूप तक नहीं मिलती, उन शरीरों के मस्तिष्क के लिए शिक्षा कहाँ से उपलब्ध होगी। यदि ये बच्चे इन कोठरियों से निकलकर भागने का प्रयास करते हुए पकड़े जाते हैं तो उन्हें बेरहमी से पीटा जाता है। इतनी बेरहमी से कि अगली बार वे यहाँ से भागने के बारे में सोचें तक नहीं। इन बच्चों को यहाँ रोटी पानी मिलता है और वेतन के नाम पर 1 0 रूपये। सुनकर आत्मा सिहर जाती है। सुसभ्य और सुसम्पन्न कही जाने वाली स्त्रियाँ जब जरी के काम वाली साड़ियों को पहन कर शादी विवाह की रंग-बिरंगी रोशनियों में दम-दम दमकती होती है, फिल्मी गीतों की धुन पर ठुमके लगा रही होती हैं तब सुसभ्य और सुसम्पन्न समाज के किसी आदमी को उन बच्चों के बारे में कल्पना तक नहीं होती कि कितने मासूम बच्चों ने कितनी गंदी, तंग, अंधेरी कोठरी में बैठकर अपने छोटे-छोटे हाथों से इन जरी को तैयार किया है। जरी इकाइयाँ तो एक उदाहरण हैं। पॉटरी उद्योग और हैण्डीक्राफ्ट से लेकर जीवन के हर क्षैत्र में बालक शिक्षा से वंचित रहकर कार्य कर रहे हैं।
यहाँ एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि ये दो करोड़ बाल श्रमिक जो कभी स्कूलों का मुहँ नहीं देखते राष्टÑीय अर्थव्यवस्था पर भार नहीं हैं अपितु राष्टीय आय में उनका भारी योगदान है। ये केवल अपनी रोटी कमाते हैं अपितु अपने धनी मालिकों की जेबों में इतना रूपया भर देते हैं कि उस रूपये के बल पर धनी मालिक और नये कारखाने, उद्योग और व्यापारिक संस्थान राष्ट को आगे बढाने का कार्य करता है।
हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जब ये अशिक्षित, असंरक्षित और असुरक्षित मासूम बच्चे समाज की समपन्नता को इतना बढ़ा सकते हैं तो पढ लिख लेने पर और कार्य का समुचित प्रशिक्षण मिलने पर इनका समाज को जो योगदान होगा, वह कई गुना अधिक होगा।

Monday, November 2, 2009

कुंद होती बच्चों की प्रतिभा

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
जोधपुर। कल हमने उल्लेख किया था कि सड़कों अथवा रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते हुए, रेलगाड़ियों में अपनी शर्ट से सफाई करते हुए, चाय की थड़ियों और रेस्टोरेंटों पर कप प्लेट धोते हुए, हलवाई की कढ़ाई मांजते हुए, कारखानों की भट्टियों में कोयला झौंकते हुए, लेथ मशीन पर लोहा घिसते हुए, वैल्डिंग करते हुए, कमठे पर पत्थर या रेत ढोते हुए, कचरे के ढेर से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए बच्चों की प्रतिभा कैसे कुंद हो जाती है। ऐसे बच्चे धनवान तो खैर हो ही नहीं सकते। केवल स्लमडॉग मिलेनियर में ही ऐसे बच्चे डॉलर और पौण्ड पर छपे राजा की तस्वीर पहचानते हैं और क्विज कंटेस्ट जीत कर मिलेनियर भी बन सकते हैं किंतु वास्तविक जीवन में यह लगभग नामुमकिन है कि वे करोड़पति हो जायें। यह अलग बात हंै कि अपराध की दुनिया में प्रवेश करके ये वह सब कुछ हासिल कर लें जो भारतीय हिंदी सिनेमा में दिखाया जाता रहा है। फिर भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे बच्चों को सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी पूंजी की आवश्यकता नहीं होती किंतु ये बच्चे अपना काम छोड़कर स्कूल नहीं जा सकते। यदि स्कूल जायेंगे तो खायेंगे क्या? यदि स्कूल में एक समय का पौषाहार मिल भी गया तो भी इन बच्चों के ऊपर अपने परिवार के दूसरे सदस्यों का पेट भरने की जिम्मेदारी भी होती है।इनमें से बहुत से बच्चे तो सालों तक नहाते भी नहीं। बरसात में प्राकृतिक स्रान हो जाये तो बात अलग है। उनके शरीर में से दुर्गंध आती है। उनके तन पर कपड़े या तो होते ही नहीं, यदि होते भी हैं तो मैले-कुचैले और फटे हुए। ऐसे बच्चों को कौन विद्यार्थी अपनी कक्षा में बैठने देगा! पहली बात तो अध्यापक भी ऐसे बच्चों को स्कूल में शायद ही प्रवेश दें। कौन जाने उस मैले-कुचैले और गंदे बच्चे से कौन सा इंफैक्शन दूसरे बच्चे को हो जाये! इनमें से बहुत से बच्चों को उनकी जातियों के आधार पर आरक्षण की सुविधा उपलब्ध होती है किंतु आरक्षण शब्द से वे जीवन भर परिचित नहीं होते। क्या होता है यह! किस काम आता है! कहा मिलता है! कैसे मिलता है! संविधान में उनके लिए आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है किंतु ये बच्चे उससे कोसों दूर है। यही वह भारत है जिसे समस्त संवैधानिक अधिकारों, न्यायिक उपचारों, विकास योजनाओं और विशाल शैक्षिक तंत्र के उपलब्ध होते हुए भी शिक्षा के समान तो क्या, असमान अवसर भी उपलब्ध नहीं हैं। भारत सरकार के अनुसार भारत में 5 से 14 करोड़ की आयु के 39 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से 2 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं जबकि अन्य एजेंसियां भारत में बाल श्रमिकों की संख्या 5 करोड़ बताती हैं। भारत सरकार के आंकड़ें को ही स्वीकार करें तो भारत में बाल श्रमिकों की कुल जनसंख्या आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर है और भारत की कुल जनसंख्या का पचासवां हिस्सा है। ये दो करोड़ बच्चे कभी स्कूल का मुंह नहीं देखते।