Sunday, August 23, 2009

धनिये की लीद खाकर गा रहे हैं जय हो! जय हो!

सिनेमा वाले भले ही जय हो! जय हो! गाते हुए ऑस्कर कमाते रहें, अर्थशास्त्री भले ही विश्वव्यापी मंदी में भारत में 8 प्रतिशत की विकास दर रहने की गारंटी देते हुए लोगों को खुश करते रहे किंतु इतिहास गवाह है कि पिसे हुए धनिये में मिली हुई गधे की जितनी लीद हमने अल्लााउद्दीन खिलजी के काल में नहीं खाई, मुहम्मद बिन तुगलक के काल में नहीं खाई, रानी विक्टोरिया के काल में नहीं खाई, उससे कहीं अधिक गधे की लीद हम अपने ही शासनकाल में अथार्त बासठ साल में लोकतंत्र में खा चुके हैं। धनिये में मिली हुई लीद ही क्यों, यूरिया मिला हुआ दूध, वाशिंग पाउडर और घिया पत्थर मिला हुआ मावा, पशुओं की चर्बी मिला हुआ घी, पपीते के बीच मिली हुई काली मिर्च, मोम के पुते हुए सेब, पॉलिशों से चुपड़ी हुई दालें, हरे रंग से रंगी गई किशमिशें भी हम डकार चुके हैं। केवल खाने की चीजें ही नकली नहीं है। क्रिकेट के मैदानों में दिखने वाला देश प्रेम भी नकली है। आभूषणों का सोना भी नकली है। जेब में रखे हुए नोट भी नकली हैं। आज देश में एक लाख सत्तर हजार करोड़ रूपए की नकली मुद्रा से आम आदमी की जेब ठसाठस भरी है किंतु आसमान से पानी की बूंद तक नहीं बरसती। धरती का गर्भ निचुड़ चुका है, नदियां सूख चुकी है, ग्लेशियर गायब हो चुके है। नहरों में पानी नहीं आ रहा। दक्षिण भारत में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, बांधों से बिजली नहीं बन रही। फिर भी इन सारे दुखों से बेपरवाह, दूर कहीं किसी कृत्रिम स्वप् लोक में भारत के निर्धन लोग नैनो कार में बैठकर घूमने का सपना देख रहे हैं। मुहम्मद बिन तुगलक ने चांदी के सिक्कों के स्थान पर ताम्बे के सिक्के चलाये थे। उन दिनों भी नकली सिक्के बनते थे। सो जनता ने अपने घरों में ताम्बे के नकली सिक्के तैयार करके बादशाह के खजाने में जमा करवा दिये और उनके बदले में चांदी के असली सिक्के ले लिये। थोड़े दिनों बाद मुहम्मद बिन तुगलक को ज्ञात हुआ कि सरकारी खजाने में ताम्बे के नकली सिक्कों का ढेर लग गया है और जनता उन सिक्कों को लेने से मना कर रही है। तुगलकी फरमान फिर जारी हुआ । सिपाही घरों में घुस कर सारे असली सिक्के छीन लाये। जनता के हाथ न असली मुद्रा रही न नकली। बासठ साल के परिपक्व लोकतंत्र में तो ऐसा किया नहीं जा सकता। सो बैंकों की एटीएम मशीनें अपने पेट में नकली नोट छिपाये बैठी है और ईंट का चूरा मिली हुई लाल मिर्च और अधिक लाल होकर सौ, सवा सौ रूपये किलो हो गई। हल्दी और भी पीली पड़कर एक सौ दस रूपये किलो हो गई। सब्जियां रसोईघरों तक पहुंचने की बजाय दुकानों में पड़ी पड़ी ही सूख रही हैं। हर शहर में कोचिंग सेंटर खुल गये हैं, जिनकी कृपा से घर-घर में इंजीनियर तैयार हो रहे हैं। सबका स्टैण्डर्ड बढ़ गया है। चारों और जय हो, जय हो हो रही है। यही कारण है कि न्यूयार्क टाइम्स की वरिष्ठ पत्रकार हीदर टिमोन्स ने कहा कि आज का हिन्दुस्तान अमरीका से अलग नहीं है किंतु मेरी समङा में उन्होंने गलत कहा। आज का हिन्दुस्तान तो अमरीका से बहुत आगे निकल चुका है। यहां राखी सांवत टेलीविजन के पर्दे पर स्वयंवर रचा रही है और हम धनिये में मिली गधे की लीद खाकर जय हो! जय हो! गा रहे हैं। अमरीका में ऐसा कहां होता है!

Thursday, August 13, 2009

चलो सबको पीटें हम !

आजकल एक गीत लिखने की इच्छा बार-बार होती है। कुछ इस तरह का गीत- चलो सबको पीटें हम! चलो सबको पीटें हम! जो करते हैं हमारी सेवा उन्हें घसीटें हम। तोड़ दें, फोड़ दें, हाथ पांव मरोड़ दें। अनुशासनहीनता की खाज में मार-पीट का कोढ़ दें। कैसा रहेगा यह गीत! मैं अपने आप से सवाल करता हूँ। यद्यपि यह सवाल मैंने ख़डा नहीं किया है। यह सवाल तो आज हर चौराहे पर, सरकारी कार्यालयों में, अस्पतालों में, गांवों में और शहरों में मुँह बाये ख़डा है। हम उन डॉक्टरों को पीट रहे हैं जो भरसक उपचार के बाद भी हमारे परिजन को मरने से नहीं रोक सके। हम उन सिपाहियों को पीट रहे हैं जो चौराहे पर ख़डे होकर यातायात व्यवस्था भंग करने वाले को रोकते हैं। हम उन पत्रकारों को पीट रहे हैं जो दिन रात विविध घटनाओं की सूचना हम तक पहुँचाते हैं। हम जलदाय विभाग के उन कर्मचारियों को पीट रहे हैं जो भूगर्भ का जलस्तर नीचे चले जाने के कारण हम तक पेयजल नहीं पहुँचा पा रहे हैं। हम उन बिजली कर्मचारियों को भी पीट रहे हैं जो देश में बरसात में कमी और भीषण गर्मी के कारण बढी हुई बिजली की मांग पूरी नहीं कर पा रहे हैं। कई बार तो मुझे लगता है कि इन दिनों देश के मंदिरों में इतने घण्टे और घड़ियाल नहीं बजाये जा रहे होंगे जितने कि सरकारी कर्मचारी बजाये जा रहे हैं। देश में प्रजातंत्र है, जनता उसकी माई बाप है। जनता जैसे चाहे वैसे अपने देश की व्यवस्था बना सकती है। अच्छी-बुरी परम्परायें डाल सकती है लेकिन जनता का माई बाप कौन है? देश का संविधान ही तो! लेकिन संविधान में तो कहीं नहीं लिखा कि कोई भी किसी को पीटे। आज जब पुलिस थानों में भी चोरों और अपराधियों की पिटाई करने का समय बीत गया तब यह कैसा समय आया कि कुछ अपराधी सारी व्यवस्था को अपने काबू में लेकर पुलिस कर्मियों, पत्रकारों, डॉक्टरों और सरकारी कर्मचारियों को पीट रहे हैं! एक पुरानी कहावत है कि खराब कारीगर अपने औजारों से लडता है। पुलिसकर्मी, पत्रकार, डॉक्टर और सरकारी कर्मचारी जनता के औजार हैं। इन औजारों को अच्छा और तेज बनाया जाना चाहिये या कि उन्हें मार पीट कर और भोथरा बनाया जाना चाहिये! देश में जैसा माहौल हो गया है, उसके लिये क्या केवल ये खराब औजार ही जिम्मेदार हैं! क्या वे लोग जिम्मेदार नहीं हैं जो लाख समझाने पर उस पेड़ को काटने से बाज नहीं आते जिस पर वे बसेरा किये हुए हैं! हम लोग मसालों में गधों की लीद मिलाने से बाज नहीं आते, तेज वाहन चलाकर दुर्घटनायें करने से बाज नहीं आते, नकली मावा बनाने से बाज नहीं आते! हममें से कुछ लोग औरतों को सरे आम नंगा करके पीटते हैं और बाकी के लोग तमाशा देखते हैं। कुछ लोग आतंकवादियों को अपने घरों में शरण देते हैं और बाकी के लोग उसका खामियाजा भुगतते हैं। कुछ लोग विदेशियों द्वारा किये गये नकली नोटों के षडयंत्र में शामिल हो जाते हैं और पूरे देश को महंगाई का अभिषाप झेलना पडता है। क्या इन सारी बुराइयों के लिये हम सब दोषी नहीं हैं! क्या हमने अपने लालच को पूरा करने के लिये आजादी का गलत फायदा नहीं उठाया! क्या हम उन लोगों के अपराधी नहीं हैं जिन्होंने हमें आजाद करवाने के लिये अपना पूरा जीवन जेल की सलाखों के पीछे गुजार दिया। कई बार मुझे सुभाषचंद्र बोस और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्द याद आते हैं जिनका मानना था कि अभी भारतीय समाज आजादी पाने के लायक नहीं हुआ। क्या वे वास्तव में सही थे? क्या वे अंग्रेज भी सही थे जो 1947 में यहाँ से जाते समय हम पर हँसते थे? कितना अच्छा हो कि वे सब गलत सिध्द हों और किसी को मारपीट वाला गीत लिखने की इच्छा नहीं हो।

बिजली के पंख लगाकर उड़ने को तैयार है बौना ड्रेगन ! ( दूसरी किश्त )

सन् 2020 तक चीन अपने विद्युत परिदृश्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन करेगा। उसका लक्ष्य संसार की 20 प्रतिशत बिजली के उत्पादन एवं खपत करने का है। उस समय तक वह 1400 से 1500 गीगावाट बिजली का उत्पादन करने लगेगा। जबकि भारत ने अपने लिये अभी सन् 2012 तक का ही लक्ष्य निर्धारित किया है। इस अवधि में भारत की विद्युत उत्पादन क्षमता में केवल 78 गीगावाट बिजली की वृध्दि होगी।
आज चीन संसार का सबसे बड़ा पवन विद्युत उत्पादक देश है और अगले 12 वर्षों में वह इतनी पवन बिजली उत्पादन क्षमता अर्जित कर लेगा कि दुनिया को कोई भी देश उसका मुकाबला नहीं कर सकेगा। उसका लक्ष्य 30 गीगावाट पवन बिजली उत्पादन क्षमता अर्जित करने का है। सौर ऊर्जा के मामले में चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। वह अपने पश्चिमी हिस्से के ग्रामीण क्षेत्रों में सौर ऊर्जा को तेजी से विकसित कर रहा है। कहा जा रहा है कि चीन की सारी छतें सौर ऊर्जा उत्पादक छतों में बदल जायेंगी।
जल विद्युत पैदा करने के मामले में चीन संसार में दूसरे नम्बर पर आता है। चीन में प्रतिवर्ष 328 बिलियन किलोवाट आवर्स बिजली जल विद्युत के रूप में प्राप्त की जा रही है। वर्तमान में वह 700-700 मेगावाट की कुल 26 जल विद्युत उत्पादक इकाईयों का निर्माण कर रहा है जिनकी कुल क्षमता 18.2 गीगावाट होगी। इनमें से कुछ इकाईयाँ पूरी हो चुकी हैं।
इन परियोजनाओं के पूरा होते ही चीन में संसार के सबसे बड़े बांधों की एक शृंखला का निर्माण होगा जिन पर 15.8 गीगावाट विद्युत उत्पादन क्षमता की 25 इकाइयाँ लगाई जायेंगी। इस प्रकार चीन संसार भर में जल विद्युत उत्पादन करने के मामले में सबसे आगे निकल जायेगा। चीन के इस कदम से भारत में चीन की ओर से बहकर आने वाली अधिकांश नदियों का पानी चीन में ही रोक लिया जायेगा जिससे भारत की पन बिजली उत्पादन की क्षमता में गिरावट आयेगी तथा भारत की बहुत बड़ी आबादी के लिये पेयजल एवं सिंचाई जल का अभाव उत्पन्न हो जायेगा।
वर्तमान में चीन में 83.3 ट्रिलियन क्यूबिक फीट गैस के भण्डार खोजे जा चुके हैं किंतु वह प्रतिवर्ष केवल 1.3 ट्रिलियन क्यूबिक फीट गैस का खनन कर रहा है। चीन संसार का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक एवं कोयले की खपत करने वाला देश है। चीन में 126.2 बिलियन टन कोल रिजर्व्स का पता लग चुका है जिसमें से प्रतिवर्ष केवल 2.1 बिलियन टन कोयला काम में लिया जा रहा है। इस प्रकार चीन अपने कोयला, गैस एवं पैट्रोलियम पदार्थों के संरक्षण्ा की नीति पर आगे बढ़ रहा है।
प्रतिवर्ष विश्व भर के बाजारों में तेल की जो मांग बढ़ती है उसमें 38 प्रतिशत मांग अकेले चीन की होती है। दुनिया भर में मंदी का दौर आने से पहले वैश्विक बाजार में तेल को महंगा करने का पूरा श्रेय चीन को जाता था। यदि दुनिया भर में मंदी न छा जाती तो आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल इतना महंगा होता कि भारतीय अर्थव्यस्था को बहुत करारा झटका झेलना पड़ सकता था। (समाप्त)

Wednesday, August 12, 2009

बिजली के पंख लगाकर उड़ने को तैयार है बौना ड्रेगन ! ( पहली किश्त )

कुछ अर्थशास्त्री यह कहकर प्रसन्न होने का प्रयास कर रहे हैं कि इस साल भारत और चीन में विकास दर लगभग आठ प्रतिशत रहेगी। इस वक्तव्य के माध्यम से वे यह जताने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत चीन से किसी तरह कम नहीं। जिस प्रकार मुद्रा स्फीती की दर एक मिथ्या एवं अव्यवहारिक सूचकांक सिध्द हुआ है उसी प्रकार विकास दर भी अर्थव्यवस्था का एक भ्रामक तापमापी है जिसमें कई किंतु-परंतु लगे हुए हैं और इससे देश की अर्थव्यवस्था का वास्तविक तापक्रम नहीं नापा जा सकता। इस तापमापी से लिये गये तापक्रम से चीन और भारत के आर्थिक स्वास्थ्य के एक जैसे होने की बात करना, स्वयं को को छलने जैसा है।
चीन न केवल भारत से अधिक आबादी वाला देश है अपितु दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश भी है। चीन का सकल घरेलू उत्पाद लगभग सात ट्रिलियन डॉलर है जबकि भारत का सकल घरेलू उत्पाद तीन ट्रिलियन डॉलर से भी कम है। यदि दोनों देशों की जीडीपी में 8 प्रतिशत की वृध्दि होती है तो चीन की अर्थव्यवस्था में आधे ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक की वृध्दि होगी जबकि भारत की जीडीपी में चौथाई ट्रिलियन डॉलर से भी कम की वृध्दि होगी। चीन में प्रति व्यक्ति आय 5300 अमरीकी डॉलर के लगभग है जबकि भारत में यह 650 अमरीकी डॉलर के लगभग है। इस प्रकार भारत और चीन की अर्थव्यवस्था का कहीं कोई मुकाबला ही नहीं है।
कुछ दशक पहले तक चीन दुनिया के अत्यंत पिछड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में गिना जाता था। 1976 में माओत्से तुंग की मृत्यु के बाद उसने औद्योगिकीकरण का जो सिलसिला आरंभ किया उसके बल पर आज चीन न केवल अपनी दयनीय अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर आ गया है अपितु पूरे संसार के सामने आर्थिक चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। चीन ने पूरी दुनिया को यह चुनौती ऊर्जा उत्पादन के बल पर दी है। सन् 2000 से 2004 के बीच चीन ने अपने कुल ऊर्जा उत्पादन में 60 प्रतिशत की वृध्दि की जिसके बल पर उसने अपने देश में वृहत् औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया और उसके उत्पाद दुनिया भर के देशों में छा गये। कुछ वर्ष पहले तक दुनिया के बाजार में अमरीका को जो चुनौती जापान से मिलती थी अब चीन से मिल रही है।
आज अकेला चीन दुनिया की 10 प्रतिशत ऊर्जा की खपत करता है। वर्तमान में चीन की विद्युत उत्पादन क्षमता 531 गीगावाट है जबकि भारत की विद्युत उत्पादन क्षमता 147 गीगावाट है। इस प्रकार भारत की तुलना में चीन में 3.5 गुना से भी अधिक बिजली पैदा होती है। जबकि भारत की तुलना में चीन की आबादी सवा गुनी ही है। चीन में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 2176 यूनिट है जबकि भारत में यह केवल 612 है। इस प्रकार आम चीनी आम भारतीय की तुलना में साढ़े तीन गुना बिजली का उपभोग करता है।
चीन ने बिजली उत्पादन की जो तैयारी की है उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि बौना ड्रेगन बिजली के पंख लगाकर उड़ने को तैयार है। (शेष कल)

Friday, August 7, 2009

हर कोई थानेदार बनना चाहता है, शिक्षक नहीं!

भले ही हम प्राचीन भारतीय आश्रमों में विकसित हुई शिक्षा पध्दति की यादों को छाती से लगाये घूम रहे हों और उसके गुणों का बखान करते हुए नहीं थकते हों किंतु यह भी सच है कि भारत में पब्लिक स्कूलों का एक लम्बा इतिहास है। इन स्कूलों ने देश को बडे-बडे इंजीनियर, वैज्ञानिक, योध्दा, उद्योगपति और प्रशासक दिये हैं। आज भी साठ-सत्तार साल के वृध्द प्राय: गर्व से छाती चौड़ी करके बताते हैं कि वे किस पब्लिक स्कूल में पढे हैं और उन दिनों के सहपाठी किन-किन उच्च पदों को सुशोभित कर रहे हैं और कौन-कौन से बिजनिस हाउस चला रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली पब्लिक स्कूल के प्रिंसीपल बी. एस. यादव ने जोधपुर में आयोजित एक शैक्षणिक मेले में एक बडी गंभीर बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया। यह इतनी दमदार और धमाकेदार बात थी कि मुझे लगा कि इसे सब लोगों तक पहुँचाया जाना आवश्यक है। उन्होंने एक लेख के हवाले से कहा कि यह कैसी विचित्र बात है कि इस देश में ढेरों संस्थायें ऐसी हैं जिनमें पढा हुआ छात्र इसलिये बेहिचक ऊँची नौकरी और अधिक वेतन पर चुन लिया जाता है क्योंकि उसने भारत के किसी खास प्रतिष्ठित संस्थान से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, तकनीकी, चिकित्सा, व्यवसाय प्रबंधन अथवा होटल प्रबंधन की डिग्री ले रखी है लेकिन इस देश में शिक्षक प्रशिक्षण के लिये एक भी ऐसा संस्थान नहीं है जिसमें प्रशिक्षित अध्यापक को इसलिये बेहिचक चुन लिया जाये कि उसने अमुक प्रतिष्ठित संस्थान से अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया है। बी. एस. यादव की बात यहाँ समाप्त नहीं होती, उनकी बात यहीं से शुरु होती है। उन्होंने जो कुछ कहा उसके कई गंभीर अर्थ हैं। संभवत: वे यह कहना चाहते हैं कि हम यह कहकर शिक्षक का गुणगान करते हुए नहीं थकते कि शिक्षक राष्ट्र का निर्माता है लेकिन उस राष्ट्र निर्माता को तैयार करने में समाज ने कितनी गंभीरता दिखाई है ? विगत बासठ सालों से देश में अधिकतर युवा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, तकनीकी, चिकित्सा, व्यवसाय प्रबंधन, होटल प्रबंधन अथवा प्रशासनिक सेवाओं के क्षेत्र को प्राथमिकता देते रहे हैं। जब कहीं चयन नहीं होता तो वे बीएड करके शिक्षक बनने की सोचते हैं। वास्तव में हमारे यहाँ कितने मेधावी युवा होते हैं जो हृदय से अध्यापक बनने की प्रवृत्तिा रखते हैं ? क्यों भारत में शिक्षण कर्म कम प्रतिभा के युवाओं के लिये छोड़ दिया गया है? बहुत से लोग प्राय: इसका सम्बन्ध शिक्षकों को मिलने वाले वेतन से जोड़ते हैं जबकि कम वेतन पाने वाले शिक्षकों के विद्यार्थी भी मेरिट में स्थान पाते हैं और अधिक वेतन पाने वाले शिक्षकों के विद्यार्थी भी अनुत्ताीर्ण होते हुए देखे जाते हैं। वास्तविकता यह है कि आज शिक्षकों के वेतनमान पहले के शिक्षकों की अपेक्षा काफी अधिक हैं, सुविधायें भी अधिक हैं। उनके समकक्ष वेतन पाने वाले लिपिक, पटवारी, नर्स, ग्रामसेवक आदि उनसे काफी पीछे छूट गये हैं। केवल उच्च वेतन से गुणवत्ताा उत्पन्न नहीं होती, गुणवत्ताा उत्पन्न होती है समुचित प्रशिक्षण, धीर-गंभीर वातावरण एवं मनोबल उन्नयन से। कहीं हमारा समाज शिक्षकों को यही देने में तो कंजूसी नहीं कर रहा है ? नि:संदेह हमारी संस्कृति ने हमें यह सिखाया है कि जीवन में कभी भी, कहीं भी शिक्षक मिल जाये तो उसके पैर छुओ। इसीलिये हर भारतीय, बीच बाजार में अपने शिक्षक के पैर छूकर आनंदित होता है। फिर भी हमारा आज का युवा थानेदार बनना चाहता है, शिक्षक नहीं, जबकि आज शिक्षक को थानेदार से अधिक वेतन मिलता है। और थानेदार के पैर कोई भी नहीं छूता। यह कैसी विडम्बना है !

Thursday, August 6, 2009

होटल में खाना इतना जरूरी है क्या?

होटल मे खाना खाने की मनाही तो है नहीं, होटल बने ही खाना खाने के लिये हैं। वहाँ कोई मुफ्त खाना तो मिलता नहीं है, कोई भी आदमी किसी भी होटल में पैसा देकर तब तक खाना खा सकता है जब तक कि होटल खुला है। फिर इस बात में क्या विवाद हो सकता है! कानून और तर्क दोनों ही दृष्टि से यह ठीक है किंतु जीवन में एक और भी पक्ष होता है, जिसे हम व्यावहारिक पक्ष कह सकते हैं। कानून, तर्क और व्यवहार एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, हमारा एकांगी दृष्टिकोण जब इनमें से किसी एक पक्ष को छोड़कर आधे-अधूरे और गलत निर्णय लेता है तब हमें किसी भी घटना के व्यवारिक पक्ष की बात भी करनी ही पडती है।बुधवार को राखी थी, भाई को राखी बांधने के बाद रात को नौ बजे स्कूटी पर सवार होकर, होटल में खाना खाने जा रहीं दो बहनों से मोटर साइकिल सवार तीन लुटेरों ने उनकी सोने की चेन छीन ली। कानून और तर्क यह कहता है कि रात में कोई भी कितने ही बजे क्यों न निकले, किसी को अधिकार नहीं है कि कोई उसकी चेन छीन ले। कानून और तर्क की दृष्टि से यह भी सही है कि कोई भी लडकी रात में खाना खाने होटल में जा सकती है। कानून और तर्क की दृष्टि से यह भी ठीक है कि लडकियाँ रात में सोने की चेन पहनकर निकल सकती हैं। अत: कानूनी और तार्किक दृष्टि से उन दोनों लडकियों को यह पूरा-पूरा अधिकार था कि वे रात में सोने की चेन पहनकर, स्कूटी पर बैठकर होटल में खाना खाने जायें किंतु यहाँ व्यवहारिकता का पालन नहीं हुआ। व्यवहारिकता कहती है कि ऐसे लोग मानव समाज में हर समय मौजूद रहेंगे जो कानून और तर्क को नहीं मानेंगे। हजारों साल के मानव इतिहास में चोर, डाकू, लुटेरे, उचक्के, उठाईगिरे, वहशी, आतंकी, ठग, बलात्कारी और जाने किस-किस तरह के अपराधी समाज में होंगे ही। कानून या तर्क कभी नहीं कहता कि इन अपराधियों से आदमी को अपना बचाव करने की आवश्यकता नहीं है। यह नैसर्गिक और कानूनी आवश्यकता है कि आदमी अपनी सुरक्षा करे। वह अपने घर के दरवाजे खुले छोड़कर कहीं नहीं जाये। हर आदमी सुरक्षित होकर घर से निकले, किसी भी अपराधी को ऐसा मौका न दे कि वह बेधडक होकर अपराध कर सके। मैं इस बात का पक्षधर कतई नहीं हूँ कि लडकियाँ घरों से बाहर नहीं निकलें या सोने की चेन नहीं पहनें किंतु इस बात की पैरवी कौन करेगा कि वे अपनी सुरक्षा का ध्यान भी नहीं रखें! वे यह भी नहीं सोचें कि रात के अंधेरे में उनकी भेंट ऐसे असामाजिक तत्वों से भी हो सकती है जो उनकी चेन खींच लें। आज हालत यह है कि दिन दहाडे चेनें छीनी जा रही हैं फिर रात में किस के भरोसे वे चेन पहनकर निकली थीं! एक बात और भी है। होटल में खाना खाना! वह भी बिना किसी मजबूरी के! वह भी त्यौहार के दिन! यह तो हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है! हम गीत तो गांधी और गांधीवादी दर्शन के गाते हैं और घर होते हुए भी खाना खाने होटल में जाते हैं! यह कैसा आदर्श है! हमारी संस्कृति तो यह कहती है कि राखी के दिन बहनों को घर पर खीर बनाकर भाई को खिलानी चाहिये थी। आज चारों ओर नकली मावे, नकली घी, नकली दूध, मिलावटी मसाले, जहरीले रंग आदि का हल्ला मच रहा है और हम घर का शुध्द खाना छोड़कर बाजार का महंगा, अशुध्द और मिलावटी खाना खाने के लिये रातों में भी भाग रहे हैं और लुटेरों के हाथ सोने की चेनें लुटवाकर पछता रहे हैं। माफ कीजिये! होटल में खाना, इतना जरूरी है क्या?

Wednesday, August 5, 2009

दालें तो सौ रुपये किलो होनी ही थीं

कोई एक कारण नहीं है कि भारत में दालों का भाव देखते ही देखते सौ रुपये किलो हो गया। हम सबने मिल कर इसे इस भाव तक पहुँचाया है। हमारा लालच हमें अधिक से अधिक धन बटोरने के लिये प्रेरित करता है जबकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि कुछ लोग कैसे भी करके अत्यंत अमीर हो जायें और बाकी के लोग उन्हें ऐसा करते हुए देखते रहें। ऐसा कैसे हो सकता था कि केवल भूखण्डों की कीमतें बढ़ती रहतीं और आटा, दाल, सब्जियों और दवाइयों की कीमतें उसी स्तर पर बनी रहतीं!
यह स्वाभाविक ही था कि जब देश में कुछ लोगों के बीच अमीर बनने की होड़ लगी तो चुपके-चुपके हर आदमी उस होड़ में शामिल हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो भूखण्ड सौ रुपये गज मिलता था, वह दस हजार रुपये गज हो गया। देखते ही देखते भूखण्डों की खरीद बेच से जुड़े हुए लोगों की जेबों में एक रुपये के सिक्के का स्थान दस रुपये के नोट ने ले लिया और दस रुपये के नोट का स्थान सौ रुपये के नोट ने ले लिया। एक दिन ऐसा भी आया जब सबकी जेबों में हजार-हजार रुपये के नोट हो गये, लेकिन तभी उन्होंने हैरान होकर यह भी देखा कि दुकान पर जो दाल पहले बीस रुपये किलो मिलती थी वह सौ रुपये किलो हो गई। घी सवा दो सौ रुपये किलो और सूखी हुई सांगरियाँ तीन सौ रुपये किलो हो गईं। जो लोग अमीर बनने की होड़ में शामिल हुए थे उन्हें पता ही नहीं चला कि एक रुपये के सिक्के को सौ रुपये में बदलने की होड़ में केवल भूखण्ड खरीदने बेचने वाले ही नहीं अपितु दाल, गेहूँ, चावल और सब्जियां पैदा करने वाले, उन्हें ट्रांसपोर्ट करने वाले, बेचने वाले और खाने वाले भी शामिल हो चुके थे।
बात यहीं पर आकर खत्म नहीं हो गई। जो अरहर की दाल सौ रुपये किलो हो चुकी थी, उसमें मानव प्रजाति के लिये हानिकारक खेसरी की दाल मिलाकर हजार रुपये के नोट को दो हजार रुपयों में बदलने की होड़ आरंभ हुई। घी, तेल, आटा, मैदा, चावल, हल्दी सब में मिलावट आरंभ हुई। सड़ी हुई मिठाइयों में खुशबू मिलाकर बेचा जाने लगा। पुरानी पड़ चुकी सब्जियों को हरे रंग से रंगा जाने लगा। फलों में जहरीले इंजेक्शन लगाये जाने लगे। इन चीजों को खाकर आम आदमी बीमार होकर बड़ी संख्या में हॉस्पीटल पहुंचने लगा। यहाँ भी जो लोग दवा बनाने या बेचने वाले थे उन्हें भी अपनी जेब में पड़े हजार रुपये के नोट को दो हजार रुपयों में बदलने की जल्दी थी। इसलिये उन्होंने नकली दवाइयाँ बनाईं और बेचीं। इंजैक्शनों में पानी भर दिया और गोलियों में लोहे की कीलें डाल दीं। आजाद भारत में यह एक हैरान कर देने वाली बात थी कि हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले लोग जीवन भर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ ही मुश्किल से करते हुए देखे गये और कामचोरी करने वाले, नकली दवाइयां बेचने वाले, घी में चर्बी मिलाने वाले, शवों से चर्बी निकाल कर बेचने वाले, देखते ही देखते करोड़पति बन गये। इसलिये उन लोगों में भी काम करने के प्रति उत्साह समाप्त हो गया जो मेहनत करके रोटी खाना चाहते थे। चारों ओर कामचोरी का वातावरण बना और आम आदमी एक के दो करने में जुट गया। कर्मचारियों को दिये गये छठे वेतन आयोग के लाभों का इतनी बार और इतना ज्यादा प्रचार हुआ कि दालों को सौ रुपये किलो होने में देर नहीं लगी।