Wednesday, March 31, 2010

हमारी समस्त माताएं संकट में हैं !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
जन्मदात्री माता की तरह धरती, गौ, गंगा, गीता, गायत्री और पराई स्त्री को भी हम माता मानते हैं। यह विशाल धरती प्राणी मात्र की माता है जो हमारे मल-मूत्र और गंदगी को सहन करके, जल और अन्न से हमारा शरीर बनाती है और उसे जीवित रखती है। गौ हमें अपने दूध से पुष्ट करती है। उसके बछÞडे हमारे जीवन का अधिकांश बोझ अपने कंधों पर रख लेते हैं। गंगा हमारे तन और मन को शुद्ध करती है, हमारे पाप धोती है और हमारे पूर्वजों को गति प्रदान करती है। गीता हमें जीवन में कर्मयज्ञ की ओर अग्रसर करती है। गायत्री, मंत्रों के रूप में प्रकट होकर हमें सुखी बनाती है। इन सबके साथ-साथ हमने पराई स्त्री को भी माता का सम्मान दे रखा है ताकि हमारी अपनी माता को हर स्थान पर सम्मान मिले।
इन दिनों एक बात बार-बार अनुभव में आती है कि ये समस्त माताएं संकट में हैं। जितनी तरह की माताएं हैं उतनी ही तरह के संकट हैं। जिस तरह देश में बडेÞ-बड़े सैक्स रैकेट्स पकडेÞ गये हैं, उन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय माताएं कितने बडेÞ खतरे में हैं। बहुत सी माताओं को नारी मुक्ति के नाम पर यह कहकर भड़काया जा रहा है कि वे पुरुष को अपना पुत्र, पिता, भाई या पति न समझकर अपना प्रतिद्वंद्वी समझें। उनकी इस प्रवृत्ति के चलते भारतीय माताएं सशक्त होने के स्थान पर और अधिक कमजोर हो रही हैं।
धरती माता पर कई ओर से संकट गहरा रहा है। वायुमण्डल का तापक्रम बढ़ रहा है। ओजोन परत में छेद हो गये हैं। ग्रीन हाउस प्रभाव वाली गैसों के कारण धरती जलता हुआ अंगारा बनती जा रही है। गंगा माता पर आये संकट से कौन अपरिचित है! वह तेजी से लुप्त हो रही है। उसे जल देने वाले ग्लेशियर सूख रहे हैं और उसकी क्षीण होती जा रही धाराओं पर विद्युत एवं सिंचाई परियोजनाएं खड़ी की जा रही हैं। गाय की हालत तो गंगाजी से भी बुरी है। वह शहरों में ही नहीं गांवों में भी दुख पा रही है। भारतीय गौ को अनार्थिक मानकर, उसकी अच्छी से अच्छी नस्लों को समाप्त किया जा रहा है और वर्णसंकर नस्लें पनपाई जा रही हैं।
अब गीता को शायद ही कोई माता मानता है। वह पूजाघरों में लाल कपÞडे से ढककर रखी गई श्रद्धेय पुस्तक मात्र बनकर रह गई है। उसे कोई नहीं पढ़ता, कोई जीवन में नहीं उतारता। लोगों के मन में धन एकत्रित करने की जो लालसा विस्तृत हुई है उसे देखकर लगता है कि लोग यह भूल गये हैं कि जीव को तो बार-बार धरती पर आते ही रहना है। केवल यही जन्म तो हमें नहीं जीना? तब सारा प्रपंच केवल इसी जीवन को सुखी बनाने के लिये क्यों? क्या हो जायेगा यदि इस जन्म में हमने लाखों करोड़ों रुपये जोड़ लिये तो! यह सब तो इस जीवन के समाप्त होने के साथ ही फिर से पराया हो जायेगा। अगला जन्म जाने किस घर में हो! वहां फिर से नया धन कमाना पडेÞगा। यह चक्र तब तक चलता रहेगा जब तक हम अपने आप को सब तरह की वासनाओं से मुक्त करके परमधाम को प्राप्त नहीं कर लेंगे। गायत्री का अर्थ है जीवन में जो कुछ भी ओजस्वी है, उस सबको नमस्कार किंतु भारतीय समाज अपना तेज खोता जा रहा है। भय, लालच हिंसा और नंगेपन का अंधकार चारों ओर से बÞढा चला आ रहा है किंतु इतना होने पर भी इन संकटों से बचने के मार्ग बंद नहीं हुए हैं। अभी हमारे पास कुछ समय है कि हम अपनी माताओं को संकटों से उबार कर अपनी संस्कृति की रक्षा करें। आप सोचेंगे, एक माता तो रह ही गई किंतु भारत माता के कष्टों की बात फिर कभी।

Wednesday, March 24, 2010

पहले तो निवास करती थी लक्ष्मी, अब बसती है बदबू !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
भारतीय संस्कृति में दो ऐसी बातें कही गई हैं जो भारतीय संस्कृति की विलक्षणता को उसकी समग्रता में प्रकट करती है। पहली तो यह कि महाराज परीक्षित ने कलियुग को स्वर्ण में निवास करने के आदेश दिये और दूसरी यह कि देवताओं ने लक्ष्मी से गाय के गोबर में निवास करने का वरदान मांगा। ये दोनों बातें संकेत करती हैं कि मानव सभ्यता तभी फलेगी-फूलेगी जब लोग स्वर्ण अर्थात् धन इकट्ठा करने के पीछे नहीं दौडेंगे अपितु श्रम को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर गाय की सहायता से समृद्धि प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। गोबर में लक्ष्मी निवास करने की मान्यता का गहरा अर्थ है। गाय के गोबर से फसलों की वृद्धि के लिये खाद, घरों को लीपने के लिये शुद्ध सात्विक परिमार्जक और चूल्हे में जलाने के लिये र्इंधन प्राप्त होता है। गोबर हमें तभी प्राप्त हो सकता है, जब गाय हमारे पास होगी और जब गाय हमारे पास होगी तो उसके दूध से मानव सभ्यता पुष्ट होगी तथा उसके बछÞडे, बैल बनकर खेत में हल जोतेंगे और बैलगाड़ियों में जुतकर आदमी का बोझा उठाने में हाथ बंटायेंगे। इतना ही नहीं, गायों के मरने के बाद उनके चमड़े से जूते बनेंगे जो मानव के पैरों की रक्षा करेंगे।
कहा भी गया है कि यदि भारतीय गायें केवल गोबर के लिये पाली जायें तो भी वे महंगा सौदा नहीं हैं। कुछ लोगों की तो यहां तक मान्यता रही है कि गायों से कुछ पाने के लिये उन्हें न पाला जाये अपितु उनकी सेवा करने के उद्देश्य से उन्हें पाला जाये। वस्तुत: गाय को माता मानने, गौसेवा करने और गौरक्षा करते हुए प्राण उत्सर्ग करने की भावना रखने का एक ही अर्थ है और वह है मानव सभ्यता को श्रम आधारित बनाये रखना। गाय के गोबर को पंचगव्य माना जाता था। मुख शुद्धि और धार्मिक संस्कारों में गाय का गोबर अनिवार्य रूप से प्रयुक्त होता था। गाय के गोबर की जो महिमा मैंने बताने का प्रयास किया है वह तब की बात है जब गायों को खाने के लिये अच्छी वनस्पति मिलती थी और गायों से पीले-सुनहरे रंग का गोबर मिलता था। जंगल में गिर कर सूखा हुआ गोबर अरिणये अर्थात् अरण्य से प्राप्त कहलाता था। उसे पवित्र मानकर हुक्के में रखा जाता था। यज्ञ करने के लिये भी गाय के गोबर को पवित्र समिधा के रूप में देखा जाता था। अब तो गायें शहर में रहकर कचरा, कागज, पॉलीथीन की थैलियां यहाँ तक कि मैला खा रही हैं जिसके कारण उनका गोबर काला और गहरे हरे रंग का होता है। इस गोबर में से बदबू आती है और वह पानी की तरह बहता है। आज आदमी ने गायों को इस योग्य छोÞडा ही नहीं है कि वे अच्छा गोबर दे सकें किंतु आज के वैज्ञानिक युग में पैसे के पीछे अंधे होकर भाग रहे आदमी को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि गोबर की जितनी आवश्यकता कल थी, उससे अधिक आवश्यकता आज है। वैज्ञानिकों का कहना है कि परमाणु विकीरण से केवल गोबर ही प्राणियों की रक्षा कर सकता है। ईश्वर न करे किसी दिन परमाणु बमों का जखीरा मानव सभ्यता के विरुद्ध प्रयुक्त हो या कोई परमाणु रियेक्टर फट जाये किंतु दुर्भाग्य से यदि कभी भी ऐसा हुआ तो केवल वही लोग स्वयं को विकीरण से बचा सकेंगे जो अपने शरीर पर गाय का गोबर पोत लेंगे किंतु उस दिन हर आदमी के घर में स्वर्ण अर्थात् कलियुग तो होगा किंतु गोबर अर्थात् लक्ष्मी ढूंढे से भी नहीं मिलेगी।

Monday, March 22, 2010

जिम्मेदारियां निभाने वाली आवारा हैं वे !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
वह लावारिस नहीं है किंतु सारे दिन आवाराओं की तरह रहती है। वह शहर की किसी भी भीड़ भरी सड़क अथवा चौराहे पर खड़ी हुई दिखाई दे जाती है, कभी अकेली तो कभी झुण्ड में। सर्दी, गर्मी और बरसात में भले ही ट्रैफिक का सिपाही थोड़ा हट कर खड़ा हो जाये किंतु वह मानव सभ्यता की प्रहरी की तरह कड़कड़ाती ठण्ड, चिलचिलाती धूप और घनघोर बरसात में भी अपने स्थान से इंच भर नहीं हिलती। जब से उसने मानवों को अपना पुत्र माना, तब से वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करती आ रही है। आदमी ने उसके दूध को अमृत मानकर पिया और उसके पुत्रों को खेतों और बैलगाड़ियों में जोता। एक समय था जब स्वयं ईश्वर उसका प्यार पाने के लिये मानव बनकर आया और गोपाल कहलाया किंतु जैसे ही मानव ने गांव छोड़ कर शहरों में रहना आरंभ किया, हल के बदले ट्रैक्टर अपनाया और बैलगाड़ी के बदले कार चलाने लगा, तब से मानव ने अपनी इस निरीह माता के सुख-दुख से नाता ही तोड़ लिया। अब तो बस वह दूध देने की मशीन भर बन कर रह गई हैं।
आप सही समझे हैं, मैं शहरों में रहने वाली गायों की ही बात कर रहा हूँ। शहर की हवा ही ऐसी है। जिस तरह शहरों में रहने वाले अधिकांश लोग अपनी माताओं के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं करते, वे गौमाता के प्रति भी वैसे ही रूखे और निर्दयी बन गये हैं। यही कारण है कि शहरों में रहने वाली गायों के कंधों पर गांवों, ढाणियों और खेतों में रहने वाली गायों की अपेक्षा तीन गुनी जिम्मेदारियों का भार है। उन्हें सुबह-सायं दूध तो देना ही है, बछडेÞ-बछड़ियां भी पैदा करने ही हैं किंतु साथ ही अपने भोजन का प्रबंध भी उन्हें स्वयं अपने बल बूते पर करना है। नगर के पगलाये हुए ट्रैफिक के बीच खड़े रह कर अपने जीवन की रक्षा भी स्वयं ही करनी है।
शहर के हर चौराहे पर खड़ी हुई इन हजारों गायों को देखकर कौन कह सकता है कि एक दिन भारतीय इस गाय को अपनी माता कहते नहीं अघाते थे! आज भी वे भूले बिसरे गीतों की तरह बच्छ बारस पर उनके बछड़ों की पूजा करते हैं किंतु आज के दौर में मानव सभ्यता की यह माता होटलों से फैंकी गई झूठन पाने के लिये आवार कुत्तों से प्रतिस्पर्धा कर रही है। वह प्लास्टिक की थैलियों को खाने के लिये कचना बीनने वाले बच्चों से सींग लड़ा रही है। वह शहर के भयंकर गति से भाग रहे ट्रैफिक के बीच सहमी हुई सी खड़ी होकर आदमी से अपने प्राणों की भीख मांग रही है। कोई है जिसे इन गायों को देखकर पीड़ा होती है? कोई है जो इन गायों के मालिकों को समझा सके कि भाई तुम इन गायों को शहरों से दूर ले जाओ, सुबह शाम इनका दूध दूहकर इन्हें आवारा की भांति भटकने के लिये सड़कों पर मत छोड़ो? कोई है जो इन गायों को सड़कों से दूर किसी सुरक्षित स्थान पर भेज कर शहर की सड़कों पर फैले मौत के भय से अपने बच्चों को मुक्त कर सके?

Thursday, March 18, 2010

ऐसे तो हम लड़ाई हार जाएंगे

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
यदि धन खो जाये तो समझिये कि कुछ नहीं खोया, स्वास्थ्य खो जाये तो समझिये कि कुछ खो गया किंतु चरित्र खो जाये तो समझिये कि सर्वस्व खो गया। इस समय भारतीय समाज के भीतर इस कहावत से ठीक उलटा काम हो रहा है। लोग अपने स्वास्थ्य और चरित्र को बेच कर पैसा बटोरने में लगे हैं। विगत कुछ दिनों में हुए सैक्स रैकेट्स के खुलासे इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज अपना स्वास्थ्य और चरित्र दोनों खो रहा है।
एयर होस्टेस, महंगे कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियां और हाई-फाई कहलाने वाले घरों की विवाहिता औरतें सैक्स रैकेट्स में सम्मिलित होकर पैसा कमा रही हैं। अभी तो चारित्रिक पतन का यह कैंसर कुछ स्थानों पर दिखाई दिया है किंतु यदि यह कैंसर भारतीय समाज में और अधिक फैल गया तो भारत अपना सर्वस्व गंवा देगा। हमारा आजादी लेना व्यर्थ चला जायेगा। हमारे सदग्रंथ व्यर्थ हो जायेंगे, भारत की धरती पर गंगा-यमुना का होना निरर्थक हो जायेगा, हमारी संस्कृति को पलीता लग जायेगा और हम संसार में एक पतित चरित्र वाले नागरिकों के रूप में जाने जायेंगे।
हमारी संस्कृति में चरित्र के महत्व को आंकने के लिये बहुत सी बातें कही गई है जिनमें से एक यह भी है कि यदि राजा रामचंद्र रावण से युद्ध हार जाते तो कोई अनर्थ नहीं हो जाता, युद्ध में हार-जीत तो चलती ही रहती है किंतु यदि सीता मैया रावण से हार जातीं तो पूरी वैदिक संस्कृति, आर्य गौरव और सनातन मूल्य परास्त हो जाते। भारतीय स्त्रियों ने अपने शील की रक्षा करने के लिये बड़े-बडेÞ बलिदान दिये हैं। आज भारतीय महिलाओं से कोई बलिदान नहीं मांग रहा। उसकी आवश्यकता भी नहीं है किंतु हाई-फाई कहलाने वाली सोसाइटी की शिक्षित महिलाओं में इतना तेज तो बचना ही चाहिये कि वे पैसा कमाने के लिये अपने शील का सौदा करके वेश्यावृत्ति की तरफ न जायें !
यह सही है कि समाज के चरित्र को बचाने का सारा ठेका महिलाओं ने नहीं ले रखा, पुरुष भी उसके लिये पूरे जिम्मेदार हैं किंतु आज महिला मुक्ति के नाम पर कुछ संस्थाएं संगठित रूप से इस दिशा में काम कर रही है कि पुरुष महिलाओं को सुरक्षा एवं संरक्षण न दें। भारतीय संस्कृति में समाज की व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि महिला विवाह से पहले पिता के संरक्षण में, पिता के न रहने पर भाई के संरक्षण में, विवाह हो जाने पर पति के संरक्षण में और विधवा होने पर पुत्र के संरक्षण में रहती आई है किंतु तथाकथित नारी मुक्ति संगठन इस व्यवस्था को पुरुष प्रधान व्यवस्था बताकर महिलाओं को पुरुषों से तथाकथित तौर पर मुक्त करवाने में लगी हुई हैं।
ऐसी भ्रमित औरतें जो अपने परिवार के प्रति अपने दायित्व बोध को त्यागकर आधुनिक बनने का भौण्डा प्रयास करती हैं, बड़ी सरलता से सैक्स रैकेटों में फंस जाती हैं। अपने पिता, भाई, पति और पुत्र के संरक्षण में रहना अच्छा है कि समाज और धर्म के ठेकेदारों के चंगुल में फंसकर वेश्यावृत्ति के गहरे गड्ढे में जा धंसना अच्छा है?
जब अशोक वाटिका में सीताजी को अपने परिवार का संरक्षण उपलब्ध नहीं था तब वे अपने हृदय में श्रीराम का ध्यान रख कर, तिनके की आड लेकर रावण के दुष्टता और धूर्तता भरे प्रस्तावों का प्रतिकार करती थीं- तृन धरि ओट कहति बैदेही, सुमिरि अवधपति राम सनेही। यह उदाहरण बताता है कि स्त्री के शील तथा समाज के चरित्र की रक्षा तभी हो सकती है जब स्त्रियां अपने पारिवारिक दायित्वों से ध्यान न हटायें। अन्यथा भारतीय संस्कृति, बुराई से अपनी रक्षा नहीं कर पायेगी और अपनी लड़ाई हार जायेगी।

Thursday, March 4, 2010

दीदी नहीं बॉस कहो!

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
वे दोनों एक ही गली में रहती हैं। उन दोनों की उम्र में केवल एक साल का अंतर है। दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह जानती हैं। पहली लड़की नगर के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज के द्वितीय वर्ष की छात्रा है। दूसरी लड़की ने उसी कॉलेज के पहले वर्ष में प्रवेश लिया है। दोनों लड़कियां साल के पहले दिन कॉलेज बस पकड़ने के लिये एक ही स्टॉप पर आ खड़ी होती हैं। पहले वर्ष की लड़की, दूसरे वर्ष में पढ़ने वाली लड़की का अभिवादन करती है, नमस्ते दीदी। दूसरी लड़की भड़क कर जवाब देती है, दीदी नहीं, बॉस कहो। पहले वर्ष में प्रवेश लेने वाली लड़की हैरान है ! इसे क्या हुआ ? कल तक तो ऐसी कोई बात नहीं थी। आज दोनों एक कॉलेज में आ गर्इं तो दीदी, बॉस बन गर्इं ! पहले वर्ष की लड़की ने भी तुनक कर कहा, काहे की बॉस। इसके बाद पूरा साल बीत गया, दोनों लड़कियां अब एक दूसरे से बात नहीं करतीं। यह कहानी किसी एक शहर की किसी एक गली की नहीं है, हिन्दुस्तान की गलियां ऐसी कहानियों से भरी पड़ी है। एक समय था जब एक गली, मुहल्ले में रहने वाली लड़कियां बहिनों की तरह बर्ताव करती थीं। वे एक दूसरे को संरक्षण भी देती थीं किंतु बदले हुए युग धर्म में अब वे बहिनें नहीं रही हैं, बॉस और सबॉर्डिनेट बन गई है। वरिष्ठ सहपाठिनें कभी भी बॉस नहीं हुआ करती थीं। पर अब कॉलेजों में यह विचित्र बॉसिज्म आया है। वरिष्ठ छात्र अपने आप को कनिष्ठ छात्रों से बॉस कहलवा कर उनसे आदर प्राप्त करने की भौंडी चेष्टा करते हैं। यही वह मानसिकता है जो कॉलेजों से रैंगिंग के प्रेत को बाहर नहीं जाने देती। इसी मानसिकता ने देश के कई कॉलेजों में पढ़ रहे भावी इंजीनियरों और डॉक्टरों को हमसे छीन लिया। बॉस कहलवाने और उन पर अपनी दादागिरी थोपने की चेष्टा में कई सीनियर छात्रों ने अपने जूनियर छात्रों को नंगा करके कॉलेजों की बॉलकनी से लटका दिया। हमारे देश की बहुत सी शिक्षण संस्थाओं में छात्र-छात्राओं को परस्पर भैया-बहिन कहलवाने की परम्परा रही है। यहां तक कि शिक्षकों को भी भैयाजी अथवा बहिनजी कहा जाता है। मारवाÞड में तो प्राय: हर विद्यालय में महिला अध्यापक को बहिनजी कहा जाता रहा है। पाश्चात्य देशों में नर्सिंग व्यवसाय आरंभ हुआ, उन्होंने नर्स को अनिवार्यत: सिस्टर कहने की परम्परा विकसित की। जो अपनत्व, परस्पर विश्वास और सुरक्षा का भाव जीजी, दीदी, बहिनजी या सिस्टर कहने से प्रकट होता है, वह अपनत्व बॉस शब्द से कैसे मिल सकता है! फिर भी हमारी नई पीढ़ी दीदी और बहिनजी जैसे शब्दों को बॉस शब्द से प्रतिस्थापित करना चाहती है, इसे एक विडम्बना ही कहा जाना चाहिये। बात जब निकलती है तो दूर तक जाती है। यह बात भी केवल शिक्षण संस्थानों तक जाकर समाप्त नहीं होती। पहले बाजार, रेलवे स्टेशन अथवा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अपरिचित महिलाओं से बात करते समय लोग बहिनजी अथवा बीबीजी कहकर सम्बोधित करते थे किंतु अब उन्हें मैडम कहा जाता है। संभवत: इसी कारण सामाजिक सुरक्षा का चक्र टूटकर बिखर गया है।