Sunday, February 21, 2010

क्या आप अठारह साल से ऊपर हैं !

क्या आप अठारह साल से ऊपर हैं ? जिंदगी की बोरियत दूर करना चाहते हैं ? कुछ ठहाके लगाना चाहते हैं ? अपने दोस्तों को कुछ ऐसा भेजना चाहते हैं जिसे पढ़कर उनके चेहरे पर स्माइल आ जाये तो प्लीज हमें इस नम्बर पर एस एम एस या कॉल कीजिये। चार्जेज एक रुपया प्रति एस एम एस या प्रति कॉल। यह उन ढेर सारे एस एम एस विज्ञापनों में से एक है जो इन दिनों विभिन्न कम्पनियों के मोबाइल धारकों के मोबाईल फोन पर धड़ल्ले से आ रहे हैं। सीमा (20 एफ), राहुल (22 एम), नेहा (21 एफ) संजू (18 एम).... लॉट्स मोर लुकिंग फॉर फ्रैण्ड्स..... फाइण्ड ए फ्रैण्ड नेक्स्ट डोर, एस एम एस चैट टू ....। यह एक दूसरा नमूना है जो मोबाइल धारकों के पास लगातार आ रहा है।
आज बहुत सी मोबाइल कम्पनियां एक मोबाइल कनेक्शन खरीदने पर उसके साथ दो या तीन कनेक्शन निशुल्क दे रही हैं। माता-पिता ने वे फ्री मोबाइल कनैक्शन अपने बच्चों को उपलब्ध करवा दिये हैं ताकि उनके घर से बाहर रहने की स्थिति में भी कनैक्टिविटी बनी रहे। आज भारत में जितने मोबाइल हैं उनमें से लगभग 25 प्रतिशत मोबाइल अवयस्क बच्चों के पास हैं और 25 प्रतिशत मोबाइल कॉलेज जाने वाले व्यस्क विद्यार्थियों के पास हैं। जब इन कच्ची उम्र, कच्चे मन और कच्ची बुद्धि के बच्चों और विद्यार्थियों के पास मोबाइल होंगे और उन पर धड़ल्ले से ऐसे विज्ञापन भेजे जायेंगे तो निश्चित ही हैं कि बड़ी संख्या में बच्चे इन विज्ञापनों के झांसे में फंस जायेंगे और वे जीवन की उन अनजान और खतरनाक राहों पर निकल पडेंगे जिनके बारे में सोच कर भी भय होता है।
मोबाइल का आविष्कार क्या इसलिये हुआ था कि समूची मानव सभ्यता इसकी चपेट में आकर दुर्घटनाग्रस्त हो जाये ? आज जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं, उन्हें बाजार अपने कब्जे में कर लेता है। लालची लोग हर वैज्ञानिक अविष्कार को जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक पैसा कमाने का माध्यम बना लेते हैं। संचार माध्यमों पर बाजार की विशेष दृष्टि रहती है। रेडियो, टेलीविजन, टेलिफोन, इंटरनेट, मोबाइल तो जैसे बाजार के तगडेÞ उपकरण या यूं कहें कि वफादार गुलाम बनकर रह गये हैं। इन उपकरणों ने व्यापार को बाजार से निकाल कर घरों और पलंगों तक पहुंचा दिया है।
वास्तव में तो इलैक्ट्रोनिक संचार माध्यम मानव की सेवा करने के लिये और उसकी जिंदगी आरामदेह बनाने के लिये बने हैं किंतु इन संचार माध्यमों का दुरुपयोग मानव जीवन में अनावश्यक आवश्यकताओं को पैदा करने और उन्हें खरीदने के लिये मजबूर करने में हो रहा है किंतु मैं जो बात कर रहा हूँ, वह केवल बाजारवाद के पसरते हुए पांवों तक ही सीमित नहीं है। मोबाइल फोन के कारण मासूम बच्चे, अल्पवय लड़कियां और आम आदमी अपराध की दुनिया के निशाने पर आ गया है। देश की राजधानी दिल्ली में इस तरह से वेश्यावृत्ति करवाने वाले कई रैकेट्स का भण्डाफोड़ हो चुका है और पूरे देश में अविवाहित लड़कियों तथा किशोरियों में गर्भपात की संख्या तेजी से बढ़ रही है। हमें समझना होगा कि हमने अपने बच्चों को केवल मोबाइल फोन नहीं दिया है, उन्हें बाजार और अपराध की दुनिया के एक खतरनाक उपकरण से दुर्घटनाग्रस्त होने के लिये अकेला छोड़ दिया है।

Friday, February 19, 2010

दिनचर्या का वर्केबल मॉडल ढूंढा जाना चाहिए

- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
आजकल हर घर में हर समय सिनेमा चलता है। स्कूली बच्चे, आॅफिस जाने वाले पति-पत्नी, बिजनस में लगे लोग और घर के बडेÞ-बूढेÞ अपनी दिनचर्या का काफी समय बिस्तर या सोफे पर पड़े रह कर टीवी देखने में खर्च करते हैं। महिलाओं ने कुछ खास चैनलों पर आने वाले धारावाहिक पकड़ रखे हैं, पुरुष न्यूज चैनलों को बदल-बदल कर एक ही समाचार को बार-बार देखते हैं। बच्चे कार्टून नेटवर्क पर खोये हुए हैं तो कुछ लोग डिस्कवरी और नेशनल जियोग्राफी जैसे कार्यक्रमों के आदी हैं। अब हर आदमी की दिनचर्या में टी वी देखना उसी प्रकार अनिवार्य हो गया है जिस प्रकार पहले पूजा पाठ करना और लोगों से मिलना-जुलना अनिवार्य था।
टी वी को समय देने के कारण घर के सदस्यों को जीवन के गंभीर विषयों पर एक दूसरे से वार्तालाप करने तथा अपने विचारों का आदान-प्रदान करने का पर्याप्त समय नहीं बचता। रिश्तेदारों, पड़ौसियों, सहकर्मियों और सहपाठियों से सामंजस्य बैठाने के लिये भी समय नहीं मिलता। बहुत से माता-पिता को तो अपने बच्चों से बात करने का समय नहीं है। करोडों घरों में टेलीविजन आदमी की दिनचर्या का केन्द्र बिन्दु बन गया है। घर नौकरों के भरोसे, बच्चे कोचिंग इंस्टीट्यूट्स के भरोसे और बड़े-बुढेÞ वृद्धाश्रमों के भरोसे छोड़ दिये गये हैं।
यह सही है कि समाचारों, विचारों और दुनिया भर की जानकारियों को देने वाले कार्यक्रम टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर आते हैं जिनके कारण हमें दुनिया के कई रहस्यों, सूचनाओं और समाचारों की जानकारी रहती है किंतु यह भी सही है कि जीती जागती दुनिया अचानक ही टी वी के पर्दे पर हिलती हुई रंग-बिरंगी आकृतियां भर रह गई है। यदि लोग आपस में मिलते भी हैं तो केवल शादियों के महाभोज में जहां वे एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराने की औपचारिकता निभाते हैं और डी जे के तेज शोर से तंग आकर अपने घरों को लौट जाते हैं।
टी वी ने दुनिया भर के नितांत मिथ्या विषयों को हमारे लिये अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया है। क्रिकेट और उसके खिलाÞिडयों के बारे में विभिन्न चैनलों पर दिन रात जानकारी दी जाती है, उसका हमारे जीवन में क्या महत्व है? हमें वे जानकारियां क्यों लेनी चाहिये? उनका मानवता के लिये क्या उपयोग है? सिने कलाकारों के बारे में ऐसी बारीक जानकारियां दी जाती हैं जैसे वे अत्यंत श्रद्धास्पद और प्रेरणादायक लोग हैं तथा उनके जीवन चरित्र को जानने से हमें अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष नामक चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो जायेगी। एक समय था जब बच्चों को भारत की सन्नारियों और महापुरुषों की गाथायें सुनाई जाती थीं किंतु आज के बच्चों को सलमान खान, शाहरुख खान और आमिर खान तथा उनकी प्रेमिकाओं के बारे में ढेरों जानकारियां हैं किंतु वे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, महादानी राजा शिबि, सती अनुसुईया और आज्ञाकारी पुत्र श्रवणकुमार के बारे में कुछ नहीं जानते। टी वी चैनलों की भीÞड ने इन प्रेरणास्पद पात्रों को हमसे छीन लिया।
टीवी चैनलों की ही देन है कि आज भारत के नौजवान भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु पर जानकारी एकत्रित करने की बजाय वेलेंटाइन डे पर अपनी प्रेमिका को रिझाने के नुस्खे ढूंढते फिरते हैं जबकि भारतीय संस्कृति में विद्यार्थी के लिये ब्रह्मचर्य पालन करने का निर्देश है। टेलीविजन पर दिन रात प्रसारित होने वाले विज्ञापनों में अनावश्यक वस्तुओं का इतनी चतुराई से प्रचार किया जाता है कि करोड़ों लोग उनके झांसे में आकर अनावश्क सामान खरीद कर अपने घरों में कबाड़ इकट्ठा कर रहे हैं। इस तरह टी वी ने भारतीय आदमी की दिनचर्या में गहरे परिवर्तन किये हैं जिनमें से कुछ बहुत हानिकारक हैं। दिन का काफी हिस्सा टी वी देखने वालों को अपनी जीवन शैली के बारे में नये सिरे से सोचना चाहिये और अपनी दिनचर्या का वर्केबल मॉडल ढूंढना चाहिये।

Monday, February 15, 2010

मौत का कुआं खुदने में देर नहीं लगती !

- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
मनुष्य के भाग्य का आकलन उसे मिले सुख से होता है। कुछ लोगों के लिये सुख का अर्थ है भौतिक सुख जिसमें शारीरिक स्वास्थ्य, शिक्षा, धन, गृह, प्रसिद्धि एवं लोक-प्रतिष्ठा जैसे तत्व सम्मिलित होते हैं जबकि कुछ लोगों के लिये सुख का अर्थ मानसिक सुख अर्थात् मन की उस अवस्था से होता है जिसमें आदमी संतुष्टि, आनंद और परिपूर्णता का अनुभव करता है। आज भौतिक सुखों के लिये हम मानसिक सुखों का गला घोटने की होÞड में जुट गये हैं और बच्चों को कठिन पढ़ाई की उस भीषण ज्वाला में झौंक रहे हैं जिसमें झुलस कर बहुत से बच्चों निराशा, कुंठा, हीन भावना, अवसाद और अकेलेपन और अपराध बोध से ग्रस्त होकर आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को सीए, बीबीए तथा एमबीए जैसी कठिन पढ़ाई की ओर जबर्दस्ती धकेल रहे हैं। उनके सामने आईआईटी, पीएमटी और आईएएस जैसी कठिन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने का लक्ष्य रख रहे हैं। क्या हर बच्चा इन परीक्षाओं को उत्ताीर्ण कर सकता है? ऐसे उदाहरण भी सामने आये हैं जब बच्चों ने किसी तरह तीन-चार साल खराब करके आईआईटी या मेडिकल में प्रवेश तो ले लिया किंतु वहां उनसे मोटी-मोटी किताबें पढ़ी नहीं गर्इं और उन्होंने घबराकर आत्महत्या कर ली। हाल ही में जोधपुर में बीबीए में पढ़ने वाली एक ऐसी छात्रा ने आत्महत्या की जो बारहवीं कक्षा में तीन बार अनुत्तीर्ण हुई थी। कुछ माह पूर्व जोधपुर के ही एक छात्र ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल मारकर आत्महत्या की थी जो आईआईटी मुम्बई का छात्र था। उसने एक नोट लिखकर छोड़ा था- मरने के बाद किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। बहुत से माता-पिता यह जानकर भी कि उनका बच्चा कठिन पढाई नहीं कर सकता उसे जबर्दस्ती आईआईटी और पीएमटी की तैयारी करने के लिये कोटा भेज देते हैं। कोटा में आये साल बच्चे आत्महत्या करते हैं। वहां नशीली दवाओं का कारोबार फैल रहा है। हाल ही में कोटा में एक ऐसा गिरोह पकड़ा गया था जो चरस, गांजा, अफीम, हशीश और हेरोइन से भी कई गुना अधिक नशीले पदार्थ कोचिंग सेंटर के बच्चों को बेचता था। सोचिये! क्यों वे बच्चे इन नशीली दवाओं के चक्कर में फंसते हैं ? केवल मानिसक तनाव से बचने के लिये। मैं एक ऐसे अभिभावक को जानता हूँ जिसने अपने बच्चे को सात साल तक कोटा में रखा ताकि वे किसी तरह पीएमटी की परीक्षा उत्ताीर्ण कर लें। आज वे बच्चे पूरी तरह बरबाद हो चुके हैं और माता-पिता की जेबें खाली हो चुकी हैं। बच्चों की बरबादी के लिये पति-पत्नी एक दूसरे को दोष देकर आपस में लड़ रहे हैं। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को आईएएस परीक्षा की तैयारी के लिये दिल्ली में रख कर कोचिंग करवाते हैं। नैसर्गिक प्रतिभा सम्पन्न बच्चे तो उस परीक्षा को पास कर लेते हैं किंतु कुछ बच्चे निराश होकर आत्महत्या तक करते हैं। संसार के सारे बच्चे मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़ने के लिये ही पैदा नहीं हुए हैं। हर बच्चे में अलग प्रतिभा होती है। उसकी प्रतिभा को नैसर्गिक रूप से विकसित होने देना चाहिये। माता-पिता जो नहीं कर सके, वही काम उन्हें अपने बच्चों से करवाने की जिद नहीं करनी चाहिये। इसे आर-या पार खेलने का जुआ भी नहीं बनाना चाहिये अन्यथा मौत का कुंआ खुदने में देर नहीं लगती। यूं तो हर साल सब्जी बेचने वाले, सरकारी चपरासी और कुलियों के बच्चे भी बिना किसी कोचिंग के आईएएस की परीक्षा उत्ताीर्ण करते हैं। नैसर्गिक प्रतिभा इसी को कहते हैं। उसी को आगे आने देना चाहिये। अपना बच्चा कोई छोटी नौकरी कर लेगा तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा।

Sunday, February 14, 2010

महंगी शादी का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी !

- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कल आम आदमी के मन की पीड़ा को शब्द दिये। आम भारतीय जिस बात को चीख-चीख कर कहना चाहता है, उसे पारदर्शी शब्दों में व्यक्त करने की कला गहलोत को आती है। उन्होंने शादियों में हो रहे पैसे के वीभत्स प्रदर्शन पर तीखा प्रहार करते हुए कहा कि लोग एक-एक कार्ड पर 500 से लेकर 2000 रुपये तक खर्च करते हैं और जब वे शानो-शौकत का प्रदर्शन करते हुए महंगी गाड़ियों में बैठकर कार्ड बांटने आते हैं तो मूड खराब हो जाता है। एक-एक शादी में दस-दस हजार लोगों को खाना खिलाया जाता है और एक-एक प्लेट के लिये एक-एक हजार रुपये तक भुगतान किया जाता है। ऐसा करने वाले लोग बेशर्म हैं और ऐसी शादियों में जाकर मुझे शर्म का अनुभव होता है।
भारतीय विवाह वस्तुत: अब पारिवारिक आयोजन न रहकर सामाजिक एवं आर्थिक हैसियत और पारिवारिक शक्ति प्रदर्शन का भौण्डा हथियार बन गये हैं। यही कारण है कि वे सार्वजनिक मेलों की तरह आयोजित होते हैं जिनके कारण सड़कों पर जाम लग जाता है। विवाह स्थल पर लोग एक दूसरे को धक्क ा देकर खाना खाते हैं। समारोह स्थल पर थर्माकोल और प्लास्टिक के गिलासों के पहाड़ बन जाते हैं। हर आदमी थाली में बड़ी मात्रा में झूठन छोड़ता है। कीमती पानी की बर्बादी होती है। लोग कॉफी और आइसक्रीम का एक साथ सेवन करते हैं। लाखों रुपये की बिजली साज - सज्जा पर फूंकी जाती है। बडे-बडे जनरेटरों में तेल जलाया जाता है और हजारों रुपये के पटाखों में आग लगाई जाती है जिनसे वायु एवं ध्वनि प्रदूषण होता है। अधिकतर शादियों में नौजवान लड़के शराब पीकर डी जे के तेज शोर में अश्लील भावों वाले गीतों पर अपनी बहिनों, भाभियों, चाचियों और ताइयों के साथ नृत्य करते हैं जिन्हें देख-सुन कर शर्म आती है।
शादियों में सम्मिलित होने के लिये आदमी हजारों रुपये के महंगे सूट बनवाते हैं। औरतें और लड़कियां महंगी पोषाकें और गहने बनवाती है। लाख-लाख रुपये के तो अचकन और लहंगे सिलते हैं। लोग लाखों लीटर पेट्रोल केवल शादियों में दावत खाने के लिये फूंक देते हैं। मैं पिछले पच्चीस वर्ष से इस तरह की शादियों के खिलाफ आवाज उठाता रहा हूँ।
जो व्यक्ति मेरे पास विवाह का निमंत्रण लेकर आता है, मैं उससे आग्रह करता हूं कि शादी में कम से कम लोगों को बुलायें और कम से कम पैसे खर्च करें। लोग मेरी बात से असहमति जताते हुए कहते हैं कि आप कह तो सही रहे हैं किंतु पैसा खर्च किये बिना विवाह का मजा नहीं आता। घर के सदस्यों का भी मन रखना पड़ता है। यदि खर्चा नहीं करें तो लोग कहेंगे कि पूरा मंगतापना दिखा दिया। तब उन लोगों को मैं अपने विवाह के बारे में बताता हूँ। मेरा विवाह 25 साल पहले हुआ था। उस समय मैं बैंक में मैनेजर था। मैंने अपने पिता से अनुरोध किया कि मेरा विवाह दिन में करें। लाइटिंग, सजावट, कपड़े, कैमरा, घोडा, बारात आदि पर खर्चा न करें। मेरे पिता और श्वसुर दोनों ने मेरे प्रस्ताव का स्वागत किया। मुझे, मेरे पिता या मेरे श्वसुर को किसी ने नहीं कहा कि आपने कंजूसी की अथवा मंगतापना दिखाया! मेरे चारों छोटे भाई-बहिनों के विवाह में भी पूरी सादगी रखी गई। मेरे पिता ने कभी किसी से दहेज नहीं मांगा। न मेरे पिता से किसी ने दहेज मांगा। मैं अपना और अपने घर का उदाहरण इसलिये देता हूँ ताकि कोई यह न समझे कि कोरे उपदेश देना बड़ा आसान होता है। वास्तव में तो सादा जीवन शैली को अपनाना बहुत आसान होता है। जटिलता तो जीवन में पैसे को शामिल करने से बढ़ती है। अब भी समय है, हम मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के शब्दों का मर्म समझें। शादियों में पैसे का भौण्डा प्रदर्शन करके प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट न करें।

Saturday, February 13, 2010

बच्चों को विकलांग बना सकता है डीजे!

विवाह एक पारिवारिक आयोजन है किंतु आधुनिक जीवन शैली में आम आदमी के व्यक्तिगत सम्पर्कों में हुए कई गुना विस्तार के कारण भारतीय विवाह सार्वजनिक मेले की तरह दिखाई देने लगे हैं जिनमें हजारों नर-नारी सम्मिलित होते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो केवल पारिवारिक विवाह आयोजनों में भाग लेते हैं। अधिकतर लोग सामाजिकता के निर्वहन के लिये बड़ी संख्या में परिचितों, सम्बन्धियों और सहकर्मियों के परिवारों में होने वाले विवाहों में सम्मिलित होते हैं। इन वैवाहिक आयोजनों में सैंकड़ों तरह की असुविधाओं के बीच डी जे सबसे बड़ी मुसीबत के रूप में उभरा है। लगभग सारे विवाह समारोहों में इस आधुनिक कानफोड़ू वाद्ययंत्र को बजाया जाता है।
मनुष्य के लिये 50 डेसीबल्स तक की अधिकतम ध्वनि सहन करने योग्य होती है। मुझे पक्का तो नहीं पता किंतु मेरा अनुमान है कि इस वाद्ययंत्र की ध्वनि तीव्रता 500 डेसीबल तक होती होगी। इस ध्वनि पर आदमी का शरीर ही नहीं, आत्मा तक कांप उठती है जिससे आने वाली पीढ़ियां स्थाई रूप से विकलांग हो सकती हैं। हमारे घर में दिन के समय अधिकतम 30 से 35 डेसीबल तक तथा रात्रि में 25 डेसीबल तक ध्वनि होनी चाहिये। यदि हमारे घर में सड़क पर चलने वाले वाहनों की आवाज आती है या जोर से टेलीविजन चलता है या पास में कोई मशीन चलती है तो ध्वनि का स्तर बढ़ जाता है जिससे हम कई तरह की समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं। मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है, चिड़चिड़ाहट बढ़ती है और घर के सदस्यों में झगड़ा होने लगता है। अधिक समय तक शोर में रहने से आदमी बहरा होने लगता है। उसका रक्तचाप बढ़ जाता है। रक्त में शर्करा बढ़ने लगती है। हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। शरीर से खनिज पदार्थ पसीने के रूप में बाहर निकलने लगते हैं। खाना हजम नहीं होता। कार्य की क्षमता घट जाती है। आदमी की एकाग्रता नष्ट हो जाती है और वह किसी काम पर ध्यान केन्द्रित करने योग्य नहीं रह जाता। उसे कुछ याद नहीं रहता। इन सब बातों का अंतिम परिणाम यह होता है कि आदमी स्थायी तौर पर बीमार हो जाता है। इसीलिये अस्पतालों और विद्यालयों के आस-पास हॉर्न बजाना मना होता है और मंदिरों के आस-पास पेड़ लगाये जाते हैं।
अब तक धरती पर जो भी मशीनें बनी हैं उनमें सुपर सोनिक वायुयानों की ध्वनि सबसे अधिक है। इस शोर में यदि कोई व्यक्ति कुछ दिनों तक लगातार रहे तो वह स्थायी रूप से पागल हो सकता है। अधिक ध्वनि से आदमी की प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। गर्भवती माताओं में गर्भपात की शिकायत बढ़ जाती है तथा मानसिक रूप से विकलांग बच्चे पैदा हो सकते हैं। आजकल अस्पतालों में विकलांग एवं मंद बुद्धि बच्चों के जन्म की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। भारतीय ही नहीं दुनिया भर की संस्कृतियों में शांति को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। शांत वातावरण में रहने से हमारी वैचारिक और आध्यात्मिक शक्ति में वद्धि होती है। भीतर की शक्ति बढ़ाने के लिये मौन रखा जाता है। पूजा पाठ के अंत में शांति पाठ किया जाता है। जीते जी ही नहीं, आदमी के मरने के बाद भी उसकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना की जाती है। कब्रों पर जाकर फूल चढ़ाये जाते हैं तथा उन पर आर. आई. पी. अर्थात् रेस्ट इन पीस लिखा जाता है। यह कैसी विडम्बना है कि इन सब बातों को जानते हुए भी हम डी जे को गले से लगाये हुए हैं !

Friday, February 5, 2010

कविता के बिना रोबोट बन जाएगा मनुष्य !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
प्रख्यात शिक्षाविद् यशपाल ने भारत के वर्तमान परिदृश्य पर करारी टिप्पणी की है। हाल ही में रिलीज हुई एक पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है- तकनीकी शिक्षा पर जोर देने से परिस्थितियां बिगड़ी हैं, यदि व्यक्ति साहित्य, संगीत और दर्शन से दूर रहेगा तो दुनिया शीघ्र ही ऐसे रोबोट्स से भर जायेगी जिनका केवल चेहरा ही मनुष्य जैसा होगा। अधिकांश लोगों का यह दृÞढ विश्वास है कि कविता, संगीत और पेंटिग जैसी सृजनात्मक गतिविधियों से जुÞडेÞ छात्रों के रैगिंग जैसे अपराधों से जुÞड़ने की संभावना कम होती है।
हमारे बच्चे क्यों संवदेनहीन, दु:साहसी और आत्मघाती होते जा रहे हैं, इस प्रश्न का इससे सही उत्तर और कुछ नहीं हो सकता कि हमने उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, प्रशासनिक अधिकारी और व्यवसाय प्रबंधक बनाने के लिये कविता से दूर कर दिया। जैसे जीवन का बसंत यौवन है, वैसे बुद्धि का वसंत कविता है। एक युग वह भी था जब बड़े-बड़े राजा-महाराजा कविता पढन्Þो वालों की पालकियाँ कंधे पर उठाया करते थे और एक समय यह है कि साहित्य, कला, इतिहास और भूगोल जैसे सरस विषय कम अंक लाने वाले छात्र के उपयुक्त समझे जाते हैं। परीक्षा में रट-रटा कर दूसरों से अधिक अंक लाने वाले छात्रों को मेधावी माना जा रहा है। विज्ञान और अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को सुयोग्य तथा साहित्य और कविता पढ़ने वालों को अयोग्य अर्थात् कम बुद्धि वाला छात्र माना जा रहा है। इतिहास गवाह है कि तुलसी, सूर, कबीर, मैथिलीशरण गुप्त जैसे व्यक्ति कविता से जुÞड़ाव के कारण ही दीर्घायु हुए, उन्हें इतना यश मिला कि देश और काल की सीमाओं को लांघ गया। दूसरी ओर भारतेंंदु हरिश्चंद्र जैसे कवि भी हुए जिन्होंने कविता को पाने के लिये अपने पुरखों द्वारा संचित कुबेर का कोष खाली कर दिया। यह सही है कि विज्ञान और अर्थशास्त्र के अध्ययन के बिना संसार का काम नहीं चल सकता किंतु यह भी सही है कि कविता के बिना भी संसार का काम नहीं चल सकता। वह मनुष्य किस काम का जिसके हृदय में कविता नहीं बसती हो। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है- जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
कविता मन, वाणी और बुद्धि का उल्लास है। इसीलिये कहा जाता है- जहाँ न पहुंचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। संस्कृत का एक श्लोक आज भी छोटी कक्षाओं में पढ़ाया जाता है- काव्यशास्त्र विनोदेन, कालो गच्छति धीमताम्। व्यसनेन मूर्खाणां, निंद्रिया कलहेन वा। अर्थात् बुद्धिमान व्यक्तियों का समय कविता से विनोद करने में व्यतीत होता है जबकि मूर्ख व्यक्ति या तो सोते हैं, या कलह अर्थात् झगड़ा पैदा करते हैं। अर्थात् यशपाल ने सत्य ही कहा है कि जो बा स्वर्ग है। हमें अपने बच्चों को इस स्वर्ग से दूर नहीं करना चाहिये। उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर या आईएएस बनायें किंतु कविता गुनगुनाने वाला, न कि कविता से झिझकने वाला। मैं भाग्यशाली हूँ कि पिताजी ने हमें कविता से जोडे रखा, रोबोट नहीं बनने दिया। खेद है कि अब बच्चे कविता याद करने की जगह फिल्मी गीतों की अंतराक्षी खेलते हैं।