Friday, August 7, 2009

हर कोई थानेदार बनना चाहता है, शिक्षक नहीं!

भले ही हम प्राचीन भारतीय आश्रमों में विकसित हुई शिक्षा पध्दति की यादों को छाती से लगाये घूम रहे हों और उसके गुणों का बखान करते हुए नहीं थकते हों किंतु यह भी सच है कि भारत में पब्लिक स्कूलों का एक लम्बा इतिहास है। इन स्कूलों ने देश को बडे-बडे इंजीनियर, वैज्ञानिक, योध्दा, उद्योगपति और प्रशासक दिये हैं। आज भी साठ-सत्तार साल के वृध्द प्राय: गर्व से छाती चौड़ी करके बताते हैं कि वे किस पब्लिक स्कूल में पढे हैं और उन दिनों के सहपाठी किन-किन उच्च पदों को सुशोभित कर रहे हैं और कौन-कौन से बिजनिस हाउस चला रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली पब्लिक स्कूल के प्रिंसीपल बी. एस. यादव ने जोधपुर में आयोजित एक शैक्षणिक मेले में एक बडी गंभीर बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया। यह इतनी दमदार और धमाकेदार बात थी कि मुझे लगा कि इसे सब लोगों तक पहुँचाया जाना आवश्यक है। उन्होंने एक लेख के हवाले से कहा कि यह कैसी विचित्र बात है कि इस देश में ढेरों संस्थायें ऐसी हैं जिनमें पढा हुआ छात्र इसलिये बेहिचक ऊँची नौकरी और अधिक वेतन पर चुन लिया जाता है क्योंकि उसने भारत के किसी खास प्रतिष्ठित संस्थान से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, तकनीकी, चिकित्सा, व्यवसाय प्रबंधन अथवा होटल प्रबंधन की डिग्री ले रखी है लेकिन इस देश में शिक्षक प्रशिक्षण के लिये एक भी ऐसा संस्थान नहीं है जिसमें प्रशिक्षित अध्यापक को इसलिये बेहिचक चुन लिया जाये कि उसने अमुक प्रतिष्ठित संस्थान से अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया है। बी. एस. यादव की बात यहाँ समाप्त नहीं होती, उनकी बात यहीं से शुरु होती है। उन्होंने जो कुछ कहा उसके कई गंभीर अर्थ हैं। संभवत: वे यह कहना चाहते हैं कि हम यह कहकर शिक्षक का गुणगान करते हुए नहीं थकते कि शिक्षक राष्ट्र का निर्माता है लेकिन उस राष्ट्र निर्माता को तैयार करने में समाज ने कितनी गंभीरता दिखाई है ? विगत बासठ सालों से देश में अधिकतर युवा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, तकनीकी, चिकित्सा, व्यवसाय प्रबंधन, होटल प्रबंधन अथवा प्रशासनिक सेवाओं के क्षेत्र को प्राथमिकता देते रहे हैं। जब कहीं चयन नहीं होता तो वे बीएड करके शिक्षक बनने की सोचते हैं। वास्तव में हमारे यहाँ कितने मेधावी युवा होते हैं जो हृदय से अध्यापक बनने की प्रवृत्तिा रखते हैं ? क्यों भारत में शिक्षण कर्म कम प्रतिभा के युवाओं के लिये छोड़ दिया गया है? बहुत से लोग प्राय: इसका सम्बन्ध शिक्षकों को मिलने वाले वेतन से जोड़ते हैं जबकि कम वेतन पाने वाले शिक्षकों के विद्यार्थी भी मेरिट में स्थान पाते हैं और अधिक वेतन पाने वाले शिक्षकों के विद्यार्थी भी अनुत्ताीर्ण होते हुए देखे जाते हैं। वास्तविकता यह है कि आज शिक्षकों के वेतनमान पहले के शिक्षकों की अपेक्षा काफी अधिक हैं, सुविधायें भी अधिक हैं। उनके समकक्ष वेतन पाने वाले लिपिक, पटवारी, नर्स, ग्रामसेवक आदि उनसे काफी पीछे छूट गये हैं। केवल उच्च वेतन से गुणवत्ताा उत्पन्न नहीं होती, गुणवत्ताा उत्पन्न होती है समुचित प्रशिक्षण, धीर-गंभीर वातावरण एवं मनोबल उन्नयन से। कहीं हमारा समाज शिक्षकों को यही देने में तो कंजूसी नहीं कर रहा है ? नि:संदेह हमारी संस्कृति ने हमें यह सिखाया है कि जीवन में कभी भी, कहीं भी शिक्षक मिल जाये तो उसके पैर छुओ। इसीलिये हर भारतीय, बीच बाजार में अपने शिक्षक के पैर छूकर आनंदित होता है। फिर भी हमारा आज का युवा थानेदार बनना चाहता है, शिक्षक नहीं, जबकि आज शिक्षक को थानेदार से अधिक वेतन मिलता है। और थानेदार के पैर कोई भी नहीं छूता। यह कैसी विडम्बना है !

2 comments:

  1. थानेदार के कोई पैर नहीं छूता?
    सच में? हम तो सुनते आये थे जब सैंया भये थानेदार (अच्छा कोतवाल) तो फ़िर डर काहे का, ;-)

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  2. it was angrejon ke jamane ka jelar, who could become saiyan.

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