Wednesday, August 5, 2009

दालें तो सौ रुपये किलो होनी ही थीं

कोई एक कारण नहीं है कि भारत में दालों का भाव देखते ही देखते सौ रुपये किलो हो गया। हम सबने मिल कर इसे इस भाव तक पहुँचाया है। हमारा लालच हमें अधिक से अधिक धन बटोरने के लिये प्रेरित करता है जबकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि कुछ लोग कैसे भी करके अत्यंत अमीर हो जायें और बाकी के लोग उन्हें ऐसा करते हुए देखते रहें। ऐसा कैसे हो सकता था कि केवल भूखण्डों की कीमतें बढ़ती रहतीं और आटा, दाल, सब्जियों और दवाइयों की कीमतें उसी स्तर पर बनी रहतीं!
यह स्वाभाविक ही था कि जब देश में कुछ लोगों के बीच अमीर बनने की होड़ लगी तो चुपके-चुपके हर आदमी उस होड़ में शामिल हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो भूखण्ड सौ रुपये गज मिलता था, वह दस हजार रुपये गज हो गया। देखते ही देखते भूखण्डों की खरीद बेच से जुड़े हुए लोगों की जेबों में एक रुपये के सिक्के का स्थान दस रुपये के नोट ने ले लिया और दस रुपये के नोट का स्थान सौ रुपये के नोट ने ले लिया। एक दिन ऐसा भी आया जब सबकी जेबों में हजार-हजार रुपये के नोट हो गये, लेकिन तभी उन्होंने हैरान होकर यह भी देखा कि दुकान पर जो दाल पहले बीस रुपये किलो मिलती थी वह सौ रुपये किलो हो गई। घी सवा दो सौ रुपये किलो और सूखी हुई सांगरियाँ तीन सौ रुपये किलो हो गईं। जो लोग अमीर बनने की होड़ में शामिल हुए थे उन्हें पता ही नहीं चला कि एक रुपये के सिक्के को सौ रुपये में बदलने की होड़ में केवल भूखण्ड खरीदने बेचने वाले ही नहीं अपितु दाल, गेहूँ, चावल और सब्जियां पैदा करने वाले, उन्हें ट्रांसपोर्ट करने वाले, बेचने वाले और खाने वाले भी शामिल हो चुके थे।
बात यहीं पर आकर खत्म नहीं हो गई। जो अरहर की दाल सौ रुपये किलो हो चुकी थी, उसमें मानव प्रजाति के लिये हानिकारक खेसरी की दाल मिलाकर हजार रुपये के नोट को दो हजार रुपयों में बदलने की होड़ आरंभ हुई। घी, तेल, आटा, मैदा, चावल, हल्दी सब में मिलावट आरंभ हुई। सड़ी हुई मिठाइयों में खुशबू मिलाकर बेचा जाने लगा। पुरानी पड़ चुकी सब्जियों को हरे रंग से रंगा जाने लगा। फलों में जहरीले इंजेक्शन लगाये जाने लगे। इन चीजों को खाकर आम आदमी बीमार होकर बड़ी संख्या में हॉस्पीटल पहुंचने लगा। यहाँ भी जो लोग दवा बनाने या बेचने वाले थे उन्हें भी अपनी जेब में पड़े हजार रुपये के नोट को दो हजार रुपयों में बदलने की जल्दी थी। इसलिये उन्होंने नकली दवाइयाँ बनाईं और बेचीं। इंजैक्शनों में पानी भर दिया और गोलियों में लोहे की कीलें डाल दीं। आजाद भारत में यह एक हैरान कर देने वाली बात थी कि हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले लोग जीवन भर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ ही मुश्किल से करते हुए देखे गये और कामचोरी करने वाले, नकली दवाइयां बेचने वाले, घी में चर्बी मिलाने वाले, शवों से चर्बी निकाल कर बेचने वाले, देखते ही देखते करोड़पति बन गये। इसलिये उन लोगों में भी काम करने के प्रति उत्साह समाप्त हो गया जो मेहनत करके रोटी खाना चाहते थे। चारों ओर कामचोरी का वातावरण बना और आम आदमी एक के दो करने में जुट गया। कर्मचारियों को दिये गये छठे वेतन आयोग के लाभों का इतनी बार और इतना ज्यादा प्रचार हुआ कि दालों को सौ रुपये किलो होने में देर नहीं लगी।

9 comments:

  1. good article. i am your regular reader.

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  2. this is true. what tell us what is solution of this situation

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  3. बिलकुल सही लिखा। पर यह व्यवस्था बदलेगी कैसे यह भी तो बताओ।

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  4. बिल्कुल सही कहा आपने.....
    धन्यवाद्!!

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  5. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  6. Thank you Sangitaji. Mohanlal Gupta

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