Thursday, August 6, 2009

होटल में खाना इतना जरूरी है क्या?

होटल मे खाना खाने की मनाही तो है नहीं, होटल बने ही खाना खाने के लिये हैं। वहाँ कोई मुफ्त खाना तो मिलता नहीं है, कोई भी आदमी किसी भी होटल में पैसा देकर तब तक खाना खा सकता है जब तक कि होटल खुला है। फिर इस बात में क्या विवाद हो सकता है! कानून और तर्क दोनों ही दृष्टि से यह ठीक है किंतु जीवन में एक और भी पक्ष होता है, जिसे हम व्यावहारिक पक्ष कह सकते हैं। कानून, तर्क और व्यवहार एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, हमारा एकांगी दृष्टिकोण जब इनमें से किसी एक पक्ष को छोड़कर आधे-अधूरे और गलत निर्णय लेता है तब हमें किसी भी घटना के व्यवारिक पक्ष की बात भी करनी ही पडती है।बुधवार को राखी थी, भाई को राखी बांधने के बाद रात को नौ बजे स्कूटी पर सवार होकर, होटल में खाना खाने जा रहीं दो बहनों से मोटर साइकिल सवार तीन लुटेरों ने उनकी सोने की चेन छीन ली। कानून और तर्क यह कहता है कि रात में कोई भी कितने ही बजे क्यों न निकले, किसी को अधिकार नहीं है कि कोई उसकी चेन छीन ले। कानून और तर्क की दृष्टि से यह भी सही है कि कोई भी लडकी रात में खाना खाने होटल में जा सकती है। कानून और तर्क की दृष्टि से यह भी ठीक है कि लडकियाँ रात में सोने की चेन पहनकर निकल सकती हैं। अत: कानूनी और तार्किक दृष्टि से उन दोनों लडकियों को यह पूरा-पूरा अधिकार था कि वे रात में सोने की चेन पहनकर, स्कूटी पर बैठकर होटल में खाना खाने जायें किंतु यहाँ व्यवहारिकता का पालन नहीं हुआ। व्यवहारिकता कहती है कि ऐसे लोग मानव समाज में हर समय मौजूद रहेंगे जो कानून और तर्क को नहीं मानेंगे। हजारों साल के मानव इतिहास में चोर, डाकू, लुटेरे, उचक्के, उठाईगिरे, वहशी, आतंकी, ठग, बलात्कारी और जाने किस-किस तरह के अपराधी समाज में होंगे ही। कानून या तर्क कभी नहीं कहता कि इन अपराधियों से आदमी को अपना बचाव करने की आवश्यकता नहीं है। यह नैसर्गिक और कानूनी आवश्यकता है कि आदमी अपनी सुरक्षा करे। वह अपने घर के दरवाजे खुले छोड़कर कहीं नहीं जाये। हर आदमी सुरक्षित होकर घर से निकले, किसी भी अपराधी को ऐसा मौका न दे कि वह बेधडक होकर अपराध कर सके। मैं इस बात का पक्षधर कतई नहीं हूँ कि लडकियाँ घरों से बाहर नहीं निकलें या सोने की चेन नहीं पहनें किंतु इस बात की पैरवी कौन करेगा कि वे अपनी सुरक्षा का ध्यान भी नहीं रखें! वे यह भी नहीं सोचें कि रात के अंधेरे में उनकी भेंट ऐसे असामाजिक तत्वों से भी हो सकती है जो उनकी चेन खींच लें। आज हालत यह है कि दिन दहाडे चेनें छीनी जा रही हैं फिर रात में किस के भरोसे वे चेन पहनकर निकली थीं! एक बात और भी है। होटल में खाना खाना! वह भी बिना किसी मजबूरी के! वह भी त्यौहार के दिन! यह तो हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है! हम गीत तो गांधी और गांधीवादी दर्शन के गाते हैं और घर होते हुए भी खाना खाने होटल में जाते हैं! यह कैसा आदर्श है! हमारी संस्कृति तो यह कहती है कि राखी के दिन बहनों को घर पर खीर बनाकर भाई को खिलानी चाहिये थी। आज चारों ओर नकली मावे, नकली घी, नकली दूध, मिलावटी मसाले, जहरीले रंग आदि का हल्ला मच रहा है और हम घर का शुध्द खाना छोड़कर बाजार का महंगा, अशुध्द और मिलावटी खाना खाने के लिये रातों में भी भाग रहे हैं और लुटेरों के हाथ सोने की चेनें लुटवाकर पछता रहे हैं। माफ कीजिये! होटल में खाना, इतना जरूरी है क्या?

4 comments:

  1. त्यौहार पर तो बिलकुल जरुरी नहीं है ..!!

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  2. जरुरी तो नहीं..जस्ट फॉर ए चेंज और फिर फैशन में हल्का फुल्का झटका तो चलता है. :)

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  3. जीवन के लिये बहुत कुछ जरूरी नहीं फिर भी लोग उसे कर रहे हैं क्यों कि हमारी संस्कृति की जगह अब पश्चिम की संस्कृिति ने ले ली हैौर हम लोग बिना सोचे समझे उसी के पीछ्हे भागे जा रहे हैं आभार

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