Monday, January 18, 2010

वे मुस्कुराकर बूढ़ों को रास्ता देते हैं!

मोहनलाल गुप्ता
गांधी के नाम पर दे दे बाबा ! शीर्षक वाले कल के लेख की भाँति यह लेख भी मेरे मित्र द्वारकादास माथुर की इंगलैण्ड यात्रा के अनुभव पर आधारित है। हम भारतीय अपने आप को दुनिया का सबसे तमीजदार और सभ्य आदमी मानते हैं जबकि दुनिया देखने पर पता लगता है कि वास्तविकता कुछ और ही है। भारत में सड़कों पर जो आपा-धापी मची हुई है और साल भर में सड़क दुर्घटनाओं में जितने लोग मरते हैं उनका आंकÞडा देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से बता सकता है कि हमारा देश तमीज, सभ्यता और मानवता के मामले में पिछड़ता जा रहा है। हम अपने से बड़ों का सम्मान करना छोड़ रहे हैं और किसी भी तरह दूसरों से आगे निकल जाने की अंधी होड में लगे हुए हैं। इंग्लैण्ड में सड़क, फुटपाथ, गली या सार्वजनिक स्थानों पर चलने का एक सामान्य नियम है कि जब दो व्यक्ति चलते हुए एक दूसरे के सामने आ जायें तो कम आयु के लोग अपने से बड़ी आयु के लोगों की तरफ देखकर मुस्कुराते हैं और उनके लिये पर्याप्त स्थान छोड़ देते हैं। जिस व्यक्ति के लिये मार्ग छोड़ा जाता है, वह भी मुस्कुराता है और धन्यवाद ज्ञापित करता हुआ आगे निकल जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में एकाध सैकेण्ड लगता है किंतु इससे आम आदमी के जीवन में जो मिठास और विश्वास घुलता है, उसकी कीमत कई घंटों में की गई समाज सेवा से भी अधिक होती है। इंगलैण्ड में बड़ी आयु के लोगों को मुस्कुराकर रास्ता देने का कोई लिखित कानून नहीं है। वहाँ तो संविधान तक अलिखित है। इसके विपरीत हमारे देश में बÞडा भारी लिखित संविधान मौजूद है किंतु हमारे सामाजिक जीवन की जटिलतायें दूसरे देशों से कहीं अधिक हैं। हमारा आपसी व्यवहार लगभग स्तरहीन है। वह मिथ्या प्रदर्शन, ढोंग और पाखण्ड से भरा हुआ है। हम दूसरों की सहायता करने में सबसे पीछे हैं जबकि इंग्लैण्ड में किसी से सहायता मांगने पर हमारा सामना जिस सद् व्यवहार से होता है, वह अनुकरणीय है। नि:संदेह उनके पास हमारे जैसी गीता, रामायण, महाभारत और उपनिषद नहीं हैं किंतु बहुत सारी उन अच्छी किताबों के होने का क्या लाभ है जब तक उन्हें पढा न जाये और अपने जीवन में उतारा न जाये। हमारी सड़कों पर युवकों के प्रदर्शन को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि उन्हें नैतिकता और सदाचरण की शिक्षा नहीं दी जा रही है। वे मोटर साइकिल पर हवा की गति से चलते हैं, किसी नियम और किसी की मानसिक परेशानी की परवाह न करके दांये, बांये होते हुए सबसे आगे निकलने का प्रयास करते रहते हैं। कार चलाने वाले, चौराहों पर भी अपनी कार धीमी नहीं करते, उनके कानों पर हर समय मोबाइल फोन लगा हुआ रहता है। लड़कियां अपनी स्कूटी को फुर्र से उÞडाने के चक्कर में बड़े वाहनों के सामने आकर दुर्घटनाग्रस्त होती है। ट्रक और ट्रैक्टर वाले तो ब्रेक पर पैर रखना ही नहीं चाहते। साइकिल वाले अपने जीवन की जिम्मेदारी पूरी तरह से दूसरों के माथे डाल कर चलते हैं। पैदल चलने वाले एक दूसरे से कंधे छीलते हुए चलते हैं। बसों में बैठे हुए यात्री सÞडकों पर केले के छिलके और थूक फैंकने में संकोच नहीं करते। यूरोप में ऐसे स्तरहीन समाजिक व्यवहार वाले दृश्य दिखाई नहीं देते।
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