Tuesday, December 8, 2009

कोई हुसैन और अमरीकियों को भारतीय पुराण पढ़ाये !

आज ध्रुवों और ग्लेशियरों का जल पिघल कर समुद्र में आ रहा है, बराक हुसैन तथा उसके पिछलग्गू विकसित देशों द्वारा इसके दो बड़े कारण बताये जा रहे हैं। एक तो आदमी द्वारा जंगलों को काटना तथा दूसरा र्इंधन चालित मशीनों से कार्बन उत्सर्जन को खतरनाक स्तर पर पहुंचा देना। इन दोनों ही कारणों के लिये विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। क्या वास्तव में धरती पर आये जलवायु संकट का कारण यही है? संभवत: नहीं! पिछले छ: लाख सालों में एशिया, यूरोप और उत्तरी अमरीका के उत्तरी भागों की जलवायु बारी बारी से बहुत ठण्डी और गरम होती रही है जिसके कारण धरती पर कई बार हिमयुग, दुर्भिक्ष और जल प्लावन आये जिनकी कहानी भारतीय पुराणों में लिखी हुई है। इन जलवायु परिवर्तनों के लिये विकासशील देश अथवा आदमी कतई जिम्मेदार नहीं थे। प्लीस्टोसीन पीरियड जो कि आज से छ: लाख वर्ष पहले शुरु हुआ और आज से 10 हजार साल पहले तक चला, इसमें धरती पर कम से कम चार हिम युग आये। प्रत्येक दो कालों के बीच मंद या थोडा गर्म अंतर्हिम काल आया। इस प्रकार कुल तीन अंतर्हिम काल आये जिनमें आदमी ने बार-बार अपना स्थान बदला। जब अधिक सर्दी का दौर आता तो आदमी दक्षिणी प्रदेशों में चला जाता और जब अधिक गर्मी पड़ती तो वह उत्तरी प्रदेशों में आकर रहने लगता। हिम युग की सर्दी के कारण वनस्पति भी नष्ट हो जाती थी जिसके कारण पशु भी लगातार उन प्रदेशों के लिये पलायन करते रहते थे जहाँ गर्मी के कारण घास के मैदानों का विकास हो जाता था। आदमी धरती पर आज से लगभग 20 लाख साल पहले आया किंतु हमारी प्रजाति का आदमी अर्थात् होमोसेपियन का उदय हिमयुगों की आवाजाही के बीच आज से लगभग 40 हजार से लेकर 30 हजार साल पहले के किसी काल में हुआ। यह चौथे हिम युग का अंतिम दौर था। आज से दस हजार साल पहले चौथा हिमयुग समाप्त हो गया और गर्म युग की शुरुआत हुई। इस गर्म युग में ही आदमी ने तेजी से अपना मानसिक विकास किया और उसने कृषि, पशुपालन तथा समाज को व्यवस्थित किया। भारतीय भूभाग में जलवायु परिवर्तन का इतिहास वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में देखा जा सकता है। यदि बराक हुसैन ओबामा और उनके देश के वैज्ञानिक इन वेदों और पुराणों को पढें तो उन्हें ज्ञात हो सकेगा कि धरती पर जलवायु परिवर्तन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। वैदिक काल में सरस्वती नदी एक चौÞडे महानद के रूप में प्रवाहित होती थी। वह स्थान-स्थान पर सर अर्थात् झील बनाकर चलती थी। उन झीलों में से कुछ को कुरुक्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। इनमें से एक को महाभारत काल में ब्रह्म सरोवर कहा गया है जिसमें महाभारत के युद्ध के बाद धृतराष्ट्र ने मृतक पुत्रों एवं पौत्रों का तर्पण किया। आज उन्हीं सरोवरों को कुण्ड कहा जाता है। वैदिक काल में इसी सरस्वती की एक धारा राजस्थान में कालीबंगा तक बहकर आती थी और यह क्षेत्र सारस्वान कहलाता था। जब सरस्वती लुप्त हुई और कालीबंगा की सभ्यता नष्ट हुई उस समय मानव जनित कार्बन उत्सर्जन की मात्रा शून्य थी। यदि कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि ही धु्रवों और ग्लेशियरों के पिघलने का कारण है तो फिर सरस्वती के ग्लेशियर कैसे नष्ट हुए! कालीबंगा क्यों उजड गया! कोई बराक हुसैन ओबामा और उनकी वैज्ञानिक टीम से इन सवालों के जवाब पूछे ताकि कोपेनहेगन में वह अपना विश्वव्यापी खेल खेलकर विकासशील देशों में प्रगति के पहिये पर ब्रेक लगाने की अपनी योजना को अंजाम न दे सकें। अपने पाठकों की जानकारी के लिये हम भारतीय पुराणों के वे संदर्भ अगली दो कड़ियों में लिखेंगे जिनमें जलवायु परिवर्तन का इतिहास लिखा हुआ है।
blog comments powered by Disqus