Tuesday, December 8, 2009

विकासशील देशों में प्रगति का पहिया रोकना चाहते हैं धनी देश!

दुनिया भर के देशों ने आज से 20 साल पहले रियो दी जेनरो में तथा 10 साल पहले क्योटो में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किये थे जिनमें संसार के लगभग सभी देशों ने जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये सर्वमान्य संधियां की थीं। क्योटो संधि 2012 में समाप्त हो रही है। इसलिये आज से 18 दिसम्बर तक कोपेनहेगन में फिर से पृथ्वी सम्मेलन आयोजित हो रहा है जिसमें दुनिया के देशों द्वारा एक नई संधि की जायेगी जिसके तहत सभी देशों को आगामी दस सालों में कार्बन उत्सर्जन में एक निश्चित कमी लाने का संकल्प व्यक्त करना है। यह आयोजन ठीक वैसा ही प्रतीत होता है जैसा कि भारतीय पुराणों में मायावी असुरों एवं सरल-चित्ता सुरों द्वारा किये गये समुद्र मंथन का वर्णन मिलता है। कोपेनहेगन मंथन में अमरीका और यूरोप के विकसित देश मायावी असुरों की भूमिका में हैं तथा भारत एवं उसके जैसे विकासशील देश देवताओं की भूमिका में हैं। मायावी असुर अपनी ताकत पर कूद रहे हैं जबकि देवताओं को शरणागत वत्सल विष्णु और विषपायी शिव-शम्भू का भरोसा है।
मायावी असुरों और सरल-चित्ता सुरों के मध्य समुद्र मंथन का आयोजन अमृत प्राप्ति के लिये किया गया था किंतु दोनों ही पक्ष इस बात से अनजान थे कि अमृत के साथ-साथ इसमें से देवी लक्ष्मी, धनवन्तरि, चंद्रमा, कौस्तुभ, उच्चैश्रवा:, कामधेनु एवं ऐरावत जैसी सम्पदायें और विष एवं वारुणि जैसी विपदायें भी निकलेंगी और इन्हें कौन लेगा! जबकि कोपेनहेगन में में तो झगडा ही इस बात पर होना है कि र्इंधन चालित मशीनों से निकलने वाले कार्बन उत्सर्जन रूपी विष को कौन पियेगा! धनी देश चाहते हैं कि उनके द्वारा निकाले गये विष को विकासशील देश पी लें। जब इंधन से चलने वाली मशीनें काम करती हैं तो विकास का पहिया आगे बढता है तथा अपने पीछे कार्बन डॉई आक्साइड, कार्बन मोनो आॅक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन जैसे विषैले उत्सर्जन छोड जाता है। इन गैसों से धरती का वातावरण गरम होता है जिससे ग्लेशियरों और ध्रुवों की बर्फ पिघलती है तथा समुद्रों का जलस्तर बढता है। परिणामत: किनारों पर बसे देश पानी में डूब जाते हैं। पिछले दिनों मालदीव अपने मंत्रिमण्डल की बैठक समुद्र में करके तथा नेपाल अपने देश की बैठक एवरेस्ट के बेस कैम्प में करके संसार को इस बात की चेतावनी दे चुके हैं कि यदि धरती का तापक्रम इसी तरह बÞढता रहा तो आने वाला भविष्य कैसा होगा!
इतिहास गवाह है कि जब से मनुष्य ने र्इंधन चालित मशीनों का निर्माण किया है, तब से यूरोप और अमरीका ने सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन किया है। यही कारण है कि आज यूरोप और अमरीका जगमगाती बिजलियों, सरपट दौडती सडकों, लम्बे पुलों और ऊँची भव्य मीनारों से सजे हुए हैं। इसके विपरीत पिछडे हुए अर्थात् विकासशील देशों में टूटी फूटी सडकों, अंधकार में बिलखते शहरों और गरीबी में सिसकते गांवों की उपस्थिति केवल इसलिये है क्योंकि वे र्इंधन चालित मशीनों का उपयोग प्रभूत मात्रा में नहीं कर पाये। आज विकसित देश अपनी समृद्धि के चरम पर हैं। उन्हें लगता है कि यदि विकासशील देशों ने उनकी बराबरी की तो विकसित देशों पर कहर टूट पÞडेगा। इसलिये वे रियो दी जेनरो और क्योटो पृथ्वी सम्मेलनों में विकासशील देशों को यह संदेश दे चुके हैं कि वे ईधन चालित मशीनों के पहियों की गति धीमी करें नहीं तो दुनिया समुद्र में डूब जायेगी तथा अब कोपेनहेगन में भी वे यही दोहराना चाहते हैं जिसका अर्थ है पंजाब के खेतों में चल रहे ट्रैक्टर बंद हो जायें, राजस्थान की सीमेंट फैक्ट्रियां बंद हो जायें, महाराष्ट्र के कपडे और बिजली के कारखाने बंद हो जायें नहीं तो आगामी पचास सालों में धरती के कई बडे शहर समुद्र के पेट में समा जायेंगे।
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