Saturday, June 19, 2010

माता-पिता ने सिर पे उठा रखा है आसमान !

मोहनलाल गुप्ता
ज ब से शिक्षा, उच्च निवेश वाला क्षेत्र बना है, समाज के होश उड़े हुए हैं। जो माँ-बाप अपने बच्चों के सबसे बड़े हितैषी माने जाते हैं, उन्होंने अपने बच्चों का ऐसा पीछा घेरा है कि बच्चों का जीना मुश्किल हो गया है। पिछले एक दशक में लगभग हर शहर में बड़ी-बड़ी घोषणायें और दावे करने वाले महंगे स्कूलों और कोचिंग सेंटरों की बाढ़ आ गई है जिनके द्वारा किये जाने वाले बड़े-बड़े दावों, सफलता की अनूठी कहानियों और सफल छात्रों की झूठी-सच्ची तस्वीरों को देखकर माता-पिता के मुंह से लार टपक पड़ती है। उन्हें लगता है कि उनका बच्चा इनमें पढ़कर कलक्टर नहीं तो डॉक्टर या इंजीनियर अवश्य बन जायेगा। आईआईटी या एम्स नहीं मिला तो भी क्या हुआ, ए आई ट्रिपल ई और आर पी ई टी तो कहीं नहीं गया! दूसरों के बच्चों का भी तो सलेक्शन हो रहा है, फिर मेरे बच्चे का क्यों नहीं होगा! इस मानसिकता के साथ माता-पिता हाई रिस्क जोन में चले जाते हैं। भले ही बच्चा इस दैत्याकार पढ़ाई का बोझ उठाने को तैयार न हो और वह बार-बार मना करे किंतु बच्चों के भविष्य को संवारने की धुन में माता-पिता अपने मासूम बच्चे को प्रतियोगी परीक्षाओं की अंधी दुनिया में धकेल कर अपनी जीवन भर की जमा-पूंजी का मुंह खोल देते हैं। स्कूल की मोटी फीस, किताबों-कॉपियों और बस्तों का खर्च, स्कूल बस का मासिक किराया, कोचिंग सेंटर की भारी फीस, कोचिंग सेंटर की बस का किराया। महंगे नोट्स, बोर्ड परीक्षाओं की फीस, विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के लिये एप्लीकेशन फॉर्म, बाप रे बाप! इन सबकी जोड़ निकालें तो आंखें बाहर आ जायें, लेकिन अभी माता-पिता द्वारा किये जाने वाले व्यय का अंत कहाँ ! हर साल कम प्रतिभावान बच्चे अपने से अधिक प्रतिभावान बच्चों पर वरीयता प्राप्त करने के लिये बारहवीं कक्षा के बाद एक साल ड्रॉप करते हैं। पहले तो तीन-चार साल तक करते थे, अब भारत सरकार के नये नियमों के चलते आईआईटी जैसी परीक्षाओं में बच्चा दो साल ही बैठ सकता है इसलिये मैथ्स के बच्चों में ड्रॉप ईयर्स की संख्या घटकर एक रह गई है, बायॉलोजी के बच्चे अब भी दो तीन साल तक ड्रॉप कर रहे हैं। ऐसे बच्चे कोटा भी जाते हैं। माता-पिता को अपनी जमापूंजी का मुंह नये सिरे से खोलना होता है।
इस सब आपा-धापी में माता-पिता का डिब्बा बज चुका होता है। स्कूल और कोचिंग सेंटर उन्हें पूरी तरह चूस चुके होते हैं। समझने वाली बात यह है कि किसी भी कॉलेज या इंस्टीट्यूट में हर वर्ष उतने ही बच्चे चयनित हो सकते हैं, जितनी कि सीटें उपलब्ध हैं जबकि उनमें प्रवेश पाने वाले बच्चों की संख्या 50 से 100 गुना या उससे भी अधिक होती है। हर साल लाखों बच्चों का कहीं भी चयन नहीं होता। सामान्यत: इन बच्चोंं के माता-पिता बच्चोें का जीना हराम कर देते हैं। उन्हें कोसते हैं, अपमानित करते हैं, गाली देते हैं। हर ओर से असफलता प्राप्त बच्चा अपने ही घर में अपने विरोधियों की फौज खड़ी देखकर कुण्ठित हो जाता है। स्कूल के साथी पीछे छूट चुके होते हैं। कोचिंग सेंटर के नाम से उसे मतली आती है। शिक्षकों से घृणा हो जाती है। वह अपने ही दोस्तों और भाई-बहनों का शत्रु हो जाता है। माता-पिता से बदला लेने पर उतारू रहता है किंतु हाय री दुनिया! बरसों से इसी ढर्रे पर चली जा रही है। जाने इसका अंत कहाँ होगा!
blog comments powered by Disqus