डॉ. मोहनलाल गुप्ता
सारी दुनिया मानती है कि परमात्मा ने सबसे पहले एक स्त्री और एक पुरुष को स्वर्ग से धरती पर उतारा। हम उन्हें एडम और ईव, आदम और हव्वा तथा आदिमनु और इला (सतरूपा) के नाम से जानते हैं। उन्हीं की संतानें फलती-फूलती हुई आज धरती पर चारों ओर धमचक मचाये हुए हैं। उन्हीं की संतानों ने अलग-अलग रीति-रिवाज और आचार-विचार बनाये। सभ्यता का रथ आगे बढ़ने के साथ-साथ रक्त सम्बन्धों से बंधे हुए लोग विभिन्न समाजों, संस्कृतियों, धर्मों और देशों में बंध गये। इस बंधने की प्रक्रिया में ही उनके दूर होने की प्रक्रिया भी छिपी थी। यही कारण है कि हर संस्कृति में अलग तरह की मान्यताएं हैं। इन मान्यताओं में अंतर्विरोध भी हैं, परस्पर टकराव भी है और एक दूसरे से सीखने की ललक भी है। भारतीय सनातन संस्कृति में सगोत्र विवाह न करने की परम्परा वैदिक काल से भी पुरानी है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि निकट रक्त सम्बन्धियों में विवाह होने से कमजोर संतान उत्पन्न होती है। सामाजिक स्तर पर भी देखें तो सगोत्रीय विवाह न करने की परम्परा से समाज में व्यभिचार के अवसर कम होते हैं। एक ही कुल और वंश के लोग मर्यादाओं में बंधे होने के कारण सदाचरण का पालन करते हैं जिससे पारिवारिक और सामाजिक जटिलताएं उत्पन्न नहीं होतीं तथा संस्कृति में संतुलन बना रहता है। यही कारण है कि सदियों से चली आ रही परम्पराओं के अनुसार हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में जातीय खांपों की पंचायतें सगोत्रीय विवाह को अस्वीकार करती आई है तथा इस नियम का उल्लंघन करने वालों को कठोर दण्ड देती आई है। कुछ मामलों में तो मृत्युदण्ड तक दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को मृत्युदण्ड अथवा किसी भी तरह का दण्ड देने का अधिकार केवल न्यायिक अदालतों को है। फिर भी परम्परा और सामाजिक भय के चलते लोग, जातीय पंचायतों द्वारा दिये गये मृत्यु दण्ड के निर्णय को छोड़ कर अन्य दण्ड को स्वीकार करते आये हैं। इन दिनों हरियाणा में सगोत्रीय विवाह के विरुद्ध आक्रोश गहराया है तथा कुछ लोग सगोत्रीय विवाह पर कानूनन रोक लगाने की मांग कर रहे हैं। जबकि सगोत्रीय विवाह ऐसा विषय नहीं है जिसके लिये कानून रोक लगाई जाये। हजारों साल पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं के चलते यह विषय वैयक्तिक भी नहीं है कि जब जिसके जी में चाहे, वह इन मान्यताओं और परम्पराओं को अंगूठा दिखा कर सगोत्रीय विवाह कर ले। वस्तुत: यह सामाजिक विषय है और इसे सामाजिक विषय ही रहने दिया जाना चाहिये। इसे न तो कानून से बांधना चाहिये और न व्यक्ति के लिये खुला छोड़ देना चाहिये। सगोत्रीय विवाह का निषेध एक ऐसी परम्परा है जिसके होने से समाज को कोई नुकसान नहीं है, लाभ ही है, इसलिये इस विषय पर समाज को ही पंचायती करनी चाहिये। जातीय खांपों की पंचायतों को भी एक बात समझनी चाहिये कि देश में कानून का शासन है, पंच लोग किसी को किसी भी कृत्य के करने अथवा न करने के लिये बाध्य नहीं कर सकते। उन्हें चाहिये कि वे अपने गांव की चौपाल पर बैठकर सामाजिक विषयों की अच्छाइयों और बुराइयों पर विचार-विमर्श करें तथा नई पीढ़ी को अपनी परम्पराओं, मर्यादाओं और संस्कृति की अच्छाइयों से अवगत कराते रहें। इससे आगे उन्हें और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। जोर-जबर्दस्ती तो बिल्कुल भी नहीं।
Friday, May 14, 2010
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