Monday, March 22, 2010

जिम्मेदारियां निभाने वाली आवारा हैं वे !

डॉ. मोहनलाल गुप्ता
वह लावारिस नहीं है किंतु सारे दिन आवाराओं की तरह रहती है। वह शहर की किसी भी भीड़ भरी सड़क अथवा चौराहे पर खड़ी हुई दिखाई दे जाती है, कभी अकेली तो कभी झुण्ड में। सर्दी, गर्मी और बरसात में भले ही ट्रैफिक का सिपाही थोड़ा हट कर खड़ा हो जाये किंतु वह मानव सभ्यता की प्रहरी की तरह कड़कड़ाती ठण्ड, चिलचिलाती धूप और घनघोर बरसात में भी अपने स्थान से इंच भर नहीं हिलती। जब से उसने मानवों को अपना पुत्र माना, तब से वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करती आ रही है। आदमी ने उसके दूध को अमृत मानकर पिया और उसके पुत्रों को खेतों और बैलगाड़ियों में जोता। एक समय था जब स्वयं ईश्वर उसका प्यार पाने के लिये मानव बनकर आया और गोपाल कहलाया किंतु जैसे ही मानव ने गांव छोड़ कर शहरों में रहना आरंभ किया, हल के बदले ट्रैक्टर अपनाया और बैलगाड़ी के बदले कार चलाने लगा, तब से मानव ने अपनी इस निरीह माता के सुख-दुख से नाता ही तोड़ लिया। अब तो बस वह दूध देने की मशीन भर बन कर रह गई हैं।
आप सही समझे हैं, मैं शहरों में रहने वाली गायों की ही बात कर रहा हूँ। शहर की हवा ही ऐसी है। जिस तरह शहरों में रहने वाले अधिकांश लोग अपनी माताओं के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं करते, वे गौमाता के प्रति भी वैसे ही रूखे और निर्दयी बन गये हैं। यही कारण है कि शहरों में रहने वाली गायों के कंधों पर गांवों, ढाणियों और खेतों में रहने वाली गायों की अपेक्षा तीन गुनी जिम्मेदारियों का भार है। उन्हें सुबह-सायं दूध तो देना ही है, बछडेÞ-बछड़ियां भी पैदा करने ही हैं किंतु साथ ही अपने भोजन का प्रबंध भी उन्हें स्वयं अपने बल बूते पर करना है। नगर के पगलाये हुए ट्रैफिक के बीच खड़े रह कर अपने जीवन की रक्षा भी स्वयं ही करनी है।
शहर के हर चौराहे पर खड़ी हुई इन हजारों गायों को देखकर कौन कह सकता है कि एक दिन भारतीय इस गाय को अपनी माता कहते नहीं अघाते थे! आज भी वे भूले बिसरे गीतों की तरह बच्छ बारस पर उनके बछड़ों की पूजा करते हैं किंतु आज के दौर में मानव सभ्यता की यह माता होटलों से फैंकी गई झूठन पाने के लिये आवार कुत्तों से प्रतिस्पर्धा कर रही है। वह प्लास्टिक की थैलियों को खाने के लिये कचना बीनने वाले बच्चों से सींग लड़ा रही है। वह शहर के भयंकर गति से भाग रहे ट्रैफिक के बीच सहमी हुई सी खड़ी होकर आदमी से अपने प्राणों की भीख मांग रही है। कोई है जिसे इन गायों को देखकर पीड़ा होती है? कोई है जो इन गायों के मालिकों को समझा सके कि भाई तुम इन गायों को शहरों से दूर ले जाओ, सुबह शाम इनका दूध दूहकर इन्हें आवारा की भांति भटकने के लिये सड़कों पर मत छोड़ो? कोई है जो इन गायों को सड़कों से दूर किसी सुरक्षित स्थान पर भेज कर शहर की सड़कों पर फैले मौत के भय से अपने बच्चों को मुक्त कर सके?
blog comments powered by Disqus