Wednesday, October 14, 2009

अधिक वेतन भ्रष्टाचार मुक्त समाज की गारंटी तो नहीं है!

पिछले आलेख- यह कहानी है निर्लज्जता, लालच और सीना जोरी की! पर तीन महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं मिलीं। पहली प्रतिक्रिया प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी अनिल अग्रवाल की है कि यह बात सही है कि देश को प्रतिभाओं की जितनी आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता राष्ट्रभक्तों की भी है। ऐसी प्रतिभायें किस काम की जो देश के आम आदमी के सुख-दुख से सरोकार न रखकर केवल अपने मोटे वेतन के लिये समर्पित हों। इस प्रतिक्रिया का सीधा-सीधा अर्थ यह है कि प्रतिभावान होना राष्ट्रभक्त होने की गारण्टी नहीं है। उनकी बजाय यदि मंद प्रतिभाओं के व्यक्ति राष्ट्रभक्त हों तो वे व्यक्ति किसी भी देश के लिये पहली पसंद हो सकते हैं। प्रतिभावान तो रावण भी था जिसने कुबेर से सोने की लंका छीन ली थी। प्रतिभावान तो मारीच भी था जो सोने का हिरण बन सकता था। प्रतिभावान तो सोने की आंखों वाला हिरण्याक्ष भी था जो धरती को चुराकर पाताल में ले गया था किंतु इनमें से कोई भी, मानव समाज के व्यापक हित के लिये समर्पित नहीं था। सबके सब अहंकारी, स्वर्ण के लालची और मानवता के शत्रु थे, इनमें से कोई भी राष्ट्रभक्त नहीं था! इसलिये राष्ट्र के लिये उपयोगी नहीं था। उनके विपरीत, प्रतिभावान राष्ट्रभक्त मणिकांचन योग की तरह राष्ट्र के सिर माथे पर शिरोधार्य किये जा सकते हैं। दूसरी प्रतिक्रिया मेरे मित्र बी. आर. रामावत की रही, जिन्होंने कहा कि भारत में जोगी तथा साटिया जैसी जातियाँ छोटे जानवरों के मांस से पेट भरकर तथा सपेरा और मदारी जैसी जातियाँ साँप तथा बंदर नचाकर भी इसलिये प्रसन्न रहती हैं क्योंकि भारत की संस्कृति का मूल आधार अभावों में भी प्रसन्न रहने का है। भारत का आम आदमी संतोषी है तथा भाग्य पर विश्वास करता है। वह किसी पर बोझ बनकर नहीं जीना चाहता और अपने दिन भर के परिश्रम का मूल्य दो वक्त की रोटी के बराबर समझता है। इसके ठीक विपरीत, अमरीका और यूरोप की संस्कृति यह है कि वहाँ का आम आदमी अपने देश की सरकार पर तथा कार्यशील समाज पर भार बना हुआ है। वहाँ की सरकारों को हर माह बेरोजगारी भत्ते के मद में वेतन के मद से अधिक रकम चुकानी पड़ती है।एक अज्ञात सुधि पाठक ने तीसरी आंख के ब्लॉग पर बड़ी रोचक प्रतिक्रिया दी है।
वे लिखते हैं- ठीक है, यह बात सही है कि गरीबों के देश में इतना वेतन लेना गलत है मगर वो वेतन के बदले काम तो करते होंगे? मगर उन भ्रष्टों का क्या जो कुछ समय में करोÞडपति हो जाते हैं??????? यह अपील उन लोगों से की जाती कि वेतन भत्तों के अलावा कुछ न लें। इस सम्बन्ध में मुझे केवल इतना ही कहना है कि आदमी को यह अवश्य तय करना चाहिये कि किसी भी आदमी के एक दिन के परिश्रम का अधिकतम पारिश्रमिक या वेतन कितना होना चाहिये। क्या उसकी कोई सीमा होनी चाहिये। जैसे न्यूनतम वेतन की सीमा है, वैसे ही अधिकतम वेतन की सीमा अवश्य होनी चाहिये। अमानवीय तरीके से निर्धारित किया गया वेतन भी भ्रष्टाचार से कम अहितकारी नहीं है।

2 comments:

  1. मैं सहमत हंू कि. कहीं न कहीं न्युनतम और अधिकतम की सीमा अवश्य होनी चाहिए,बहुत ही अच्छी बातें लिखी हैं कि अधिक बेतन पाने वाले देश भक्त होंगे इसकी कोई गारंटी नहीं हैं । एक कम बेतन वाले यदि देशभक्त हैं तो ऐसे लोग हमारे, काम के हैं । अब जो देश भक्त नहीं हैं ,उसे परिभािशत करते हुए प्रथमत:उसका बहिश्कार तो किया ही जा सकता हैं । जैसे ऐसे लोगों के सम्मेलन में न जाना ,उन्हें सम्मान न देना , उनके साथ कोई कार्यक्रम हो तो बहिश्कार करना आदी .............मैं दिल से साथ दंूगा ।

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  2. Blog ki duniya me aapka swagat hai gupta ji.
    Likhte rahiye aur dikhte rahiye...
    Mere blog par bhi padhare.....


    http://www.gangu-teli.blogspot.com

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