Saturday, October 3, 2009

गांवों की आत्मा पंचायतों में बसती है

पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि भारत गांधीजी के पीछे चलता है। गांधीजी ने लिखा है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। आजादी के 62 साल बाद का ज्वलंत सवाल ये है कि गांवों की आत्मा कहां बसती है ? मेरा मत है कि भारत की आत्मा पंचायतों में बसती है। वही पंचायतें जिनकी सुव्यवस्थित प्रणाली का उदघाटन आज ही के दिन आज से ठीक पचास साल पहले देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिला मुख्यालय पर किया था। इस हिसाब से हमारी पंचायतें पचास साल की प्रौढ़ा हो गर्इं किंतु पंचायतों की आयु का सही हिसाब लगाने से पहले हमें भारत के इतिहास में और गहराई तक झांकना होगा। भारत में पंचायतें राजन्य व्यवस्था के साथ उत्पन्न हुर्इं। अपितु यह कहा जाये कि राजन्य व्यवस्था भारतीय पंचायतों की ही देन थी तो कोई गलत नहीं होगा। पंचायत शब्द बना है पांच से। पांच लोग मिलकर जो कार्य करते थे उसे पंचों द्वारा किया गया काम माना जाता था। राजा का चयन भी पंच लोग मिल कर करते थे। आगे चलकर जब राजा अपने पुत्रों में से अपने उत्ताराधिकारी चुनने लगे तो भी यह कार्य पंचों की सहमति से होता था। रामायण काल में तो पंच व्यवस्था थी ही, गुप्त काल में भी यदि शासन के सर्वोच्च स्तर पर चक्रवर्ती सम्राट की व्यवस्था थी तो सबसे निचले स्तर पर पंचायतें ही थीं। मौर्य काल में भी यही व्यवस्था कायम थी। राजपूत राजाओं के शासन में भी पंचायतें किसी न किसी रूप में कार्यरत थीं।भारत की प्राचीन पंचायती व्यवस्था का आधार कानून नहीं था, समाज के परस्पर सहयोग और सहमति से चलने की भावना और जीवन के हर पल में समाया हुआ आनंद था। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि दशरथजी ने अपनी राजसभा में रामजी को युवराज घोषित करने की अनुमति इन शब्दों में मांगी- जौं पांचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका। इन शब्दों में पंचायती राज व्यवस्था का गूÞढ अर्थ छिपा है। वह अर्थ यह है कि पांच लोगों द्वारा हर्षित मन से बनाई गई शासन व्यवस्था ही प्रजा के लिये हितकारी होती है। इसीलिये तो दशरथजी राज्य के पांच प्रमुख लोगों से प्रार्थना करते हैं कि यदि आप को यह अच्छा लगे तो आप हर्षित होकर रामजी को टीका दीजिये। कहने का आशय यह कि आज की शासन व्यवस्था में यदि गांवों की आत्मा पंचायतों में बसती है तो पंचायतों को परस्पर सहयोग और समन्वय से, सबकी सहमति से, प्रसन्न मन से, आनंद पूर्वक गांवों की व्यवस्था चलानी चाहिये।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जब पंचायती राज व्यवस्था का शुभारंभ किया था तब उनके मन में यही कल्पना रही होगी कि गांव के लोग, सबकी सहमति से, सबके सहयोग और समन्वय से, सबकी प्रसन्नता के लिये ग्राम पंचायतों के माध्यम से अपने गांवों को विकास करेंगे। हम देखते हैं कि पिछले पचास सालों में पंचायतों का रूप निखरा है, वे ताकतवर हुई हैं, उन्हें ढेरों कानूनी अधिकार मिले हैं। अब यह तो पंचायतों के सोचने की बात है कि क्या वे परस्पर सहयोग, समन्वय, सहमति, प्रसन्नता और आनंद के आधार पर अपनी पंचायतें चला रही हैं या अभी हमारी पंचायतों को इस दिशा में आगे बढ़ना शेष है!

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