Wednesday, October 7, 2009

यह कहानी है निर्लज्जता, लालच और सीना जोरी की !

अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने दुनिया भर की निजी कम्पनियों के अधिकारियों के वेतन को लालच की संज्ञा दी है। भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने निजी कम्पनियों से अपील की है कि मंदी के इस दौर में वे सादगी बरतें। भारत सरकार के कंपनी मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है कि कम्पनियां अपने उच्च अधिकारियों को इतना मोटा वेतन और भत्ताा न दें कि लोग उन्हें निर्लज्ज कहें। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा है कि जब दुनिया भर की सरकारों ने विश्व को मंदी के भंवर से बाहर निकालने के लिये 76 लाख करोड़ रुपये लगाए हैं तब निजी कम्पनियां ऐसा कैसे कर सकती है कि वे कुछ लोगों को जरूरत से ज्यादा वेतन दें। मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं किंतु भारत का सामान्य नागरिक होने के नाते यह सोचकर पीड़ा का अनुभव करता हूँ कि आज भी भारत में ऐसे लोग रहते हैं जो सीवरेज के मोटे पाइपों में जीवन बसर करते हैं और रात को कचरों के डम्पिंग यार्डों में सोते हैं। हिन्दुस्तान भर के रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों और मंदिरों के बाहर भिखारियों की लम्बी कतारें भूख से बिलबिलाती है। हजारों युवक चोरी चुपके अपना खून बेच कर और युवतियां तन बेचकर पेट भरते हैं। हर साल किसान और बेरोजगार युवक हताशा में आत्महत्या करते हैं। हजारों लोग सांप और बंदर नचा कर पेट भरते हैं। यह तो वह हिन्दुस्तान है जिसके बारे में हम जानते हैं। हिंदुस्तान का एक हिस्सा ऐसा भी है जो कभी-कभी ही हमारी आंखों के सामने आता है। आज से दस साल पहले नागौर जिले में साटिया नामक जाति के लोगों की निम्न जीवन शैली देखकर मेरी आंखें वेदना से भीग गई थीं। ये लोग पेट भरने के लिये जंगलों से खरगोश, गोह, सांप आदि छोटे जीवों तथा कबूतर एवं तोते आदि पक्षियों का शिकार करते थे। वे कच्चा मांस ही खाते थे और जितना मांस बच जाता था, झौंपड़ी की छत में छिपाकर रख देते थे और अगले समय वह इसी कच्चे मांस से पेट का गड्ढा भरते थे। यह सचमुच निर्लज्जता की बात है कि जिस देश में करोड़ों लोगों के जीवन यापन का इतना निम्न स्तर हो, उसी देश में कुछ लोगों का वेतन 50 करोड़ रुपये सालाना हो। उन्हें भारत के आम आदमी की औसत आय से साढ़े बारह हजार गुना कमाई होती हो। भारत में आज भी लगभग एक तिहाई जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करती है। लोग रेलों और बसों की छतों पर बैठकर यात्रा करते हैं और उपचार के अभाव में दम तोड़ देते हैं। भारत सरकार के सादगी के आह्लान के जवाब में उद्योग जगत तथा कार्पोरेट जगत ने यह कहकर देश के आम आदमी को निराश किया है कि यदि कम्पनी के अधिकारियों का वेतन कम किया गया तो देश से प्रतिभायें बाहर चली जायेंगी। तो क्या इस देश को केवल चंद प्रतिभायें ही चला सकती हैं जिनके बाहर चले जाने से देश ठप्प हो जायेगा! इस देश में प्रतिभाओं की कमी थोडेÞ ही है। क्या कुछ प्रतिभायें इस शर्त पर देश में रहना चाहती हैं कि यदि उन्हें पचास करोड़ रुपये सालाना नहीं मिले तो वे देश छोड़कर चली जायेंगी। ऐसी प्रतिभाएं किस काम की जो देश के आम आदमी को भूखा मार दें। देश को चलाने के लिये जितनी आवश्यकता प्रतिभाओं की होती है, उतनी ही आवश्यकता राष्ट्र भक्तों की होती है। हम यह नहीं कहते कि हमें उन प्रतिभाओं की आवश्यकता है जो गरीबी में दिन गुजारें किंतु हम यह अवश्य कहना चाहते हैं कि हमें उन प्रतिभाओं की आवश्यकता है जो देश के आम आदमी के सुख दुख की भागीदार बनें। किसी ने शायद ठीक ही कहा है- कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं।

2 comments:

  1. भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने निजी कम्पनियों से अपील की है कि मंदी के इस दौर में वे सादगी बरतें।
    भारत सरकार के कंपनी मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है कि कम्पनियां अपने उच्च अधिकारियों को इतना मोटा वेतन और भत्ताा न दें कि लोग उन्हें निर्लज्ज कहें।
    योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा है कि जब दुनिया भर की सरकारों ने विश्व को मंदी के भंवर से बाहर निकालने के लिये 76 लाख करोड़ रुपये लगाए हैं तब निजी कम्पनियां ऐसा कैसे कर सकती है कि वे कुछ लोगों को जरूरत से ज्यादा वेतन दें।
    ????????????????????
    ठीक है यह बात सही है की गरीबों के देश में इतना वेतन लेना गलत है मगर वो वेतन के बदले काम तो करते होंगे?
    मगर उन भ्रष्ट नौकरशाहों इंजीनियरों नेताओं का क्या जो कुछ ही समय मे करोड़पति हो जाते हैं???????

    यह अपील इन लोगों से की जाती की वेतन भत्तों के अलावा कुछ न लें.

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  2. You are right but million doller salaries are niether the real value of any work nor the guaranty of the curreptionless society.
    - Dr. Mohanlal Gupta

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