अमरीका ने कोपेनहेगन में आयोजित धरती सम्मेलन में भारत और चीन के साथ एक अबाध्यकारी और धुंधली सी संधि करके यह प्रतिबद्धता दर्शाने का प्रयास किया था कि वह धरती को चढ़ते बुखार से चिंतित है और वह को-पेन हेगन (हमदर्द हेगन) को नो-पेन हेगन (बेदर्द हेगन) नहीं बनने देगा किंतु केवल पन्द्रह दिनों में ही अमरीका ने भारत से खरीदे जा रहे सैण्ड स्टोन पर प्रतिबंध लगाकर इसे फ्लॉप-एन हेगन (असफल हेगन) बनने के कगार पर धकेल दिया है। आज पूरी दुनिया में भारत से मोटे तौर पर तीन तरह के पत्थरों का निर्यात होता है- संगमरमर, ग्रेनाइट तथा सैण्ड स्टोन। इनमें से संगमरमर और ग्रेनाइट महंगे पत्थर हैं तथा प्रसंस्करण के बाद ही काम आते हैं जबकि सैण्ड स्टोन एक सस्ता पत्थर है और बिना प्रसंस्करण के ही भवन निर्माण जैसे कार्यों में लगता है। विगत दिनों अमरीकी राष्ट्रपति अपनी चीन यात्रा में इस बात के संकेत दे चुके हैं कि वे चीन के साथ नये व्यापारिक सम्बन्ध बनायेंगे और ऐसा करने के लिये वे चीन को एशियाई देशों का नेतृत्व सौंपने में भी नहीं हिचकिचायेंगे। इसलिये समझा जा सकता है कि विगत आधी शताब्दी से भारत से आयात किये जा रहे सैण्ड स्टोन को अब अमरीका यह कहकर खरीदने से क्यों मना कर रहा है कि भारतीय खदानों में बाल श्रमिक इस पत्थर को खोदते हैं! जबकि पर्दे के पीछे की सच्चाई यह है कि इससे चीनी हित जुÞडेÞ हुए प्रतीत होते हैं। चीन विगत आधी शताब्दी से भारत से संगमरमर और ग्रेनाइट से बनी सामग्री खरीदता था। विगत एक दशक में चीन ने भारत से तैयार सामग्री खरीदना बंद करके संगमरमर तथा ग्रेनाइट के ब्लॉक खरीदने आरंभ कर दिये।
चीन पत्थर के इन ब्लॉक्स का दो तरह से उपयोग करता है। पहला उपयोग तो यह कि चीन उनसे विभिन्न प्रकार की सामग्री तैयार करके अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात करता है जिससे उसके श्रमिकों को रोजगार और देश को अधिक वैदेशिक मुद्रा मिल सके। चीन इस पत्थर का दूसरा उपयोग इसे सीधे ही दुनिया के दूसरे देशों को बेच कर मुनाफा वसूलने में करता है। अमरीका और उसके मित्रों द्वारा चीन को प्रश्रय दिये जाने के कारण भारतीय पत्थर व्यवसायी एवं निर्यातक दुनिया के बाजारों में पिट रहे हैं और चीन उस पत्थर से करोड़ों डॉलर कमा रहा है।
इस प्रकार चीन पहले ही भारत के ग्रेनाइट और संगमरमर से तैयार चीजें खरीदना बंद करके भारतीय श्रमिकों को बेरोजगारी की ओर धकेल चुका है और अब अमरीका भी भारत से सैण्ड स्टोन खरीदना बंद करके इस प्रक्रिया को बढ़ावा देगा। अकेले राजस्थान में सैण्ड स्टोन के खनन, परिवहन एवं निर्यात व्यवसाय से जुडे दो लाख लोग बेरोजगार हो जायेंगे। अमरीका और चीन यदि वास्तव में धरती के बुखार को उतारने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें दो काम करने होंगे। चीन भारत से ग्रेनाइट और संगमरमर के ब्लॉक्स खरीदने की बजाय तैयार माल खरीदने की नीति अपनाये तथा अमरीका भारत से सैण्ड स्टोन खरीदने पर प्रतिबंध न लगाये। अन्यथा भारतीय पत्थर उद्योग में लगे श्रमिक, व्यवसायी एवं अन्य लोग नि:संदेह ऐसे कामों की तरफ जायेंगे जिनके कारण को-पेनहेगन को नो-पेन हेगन या फ्लोप-एन हेगन बनने से कोई नहीं रोक सकेगा।
Thursday, December 31, 2009
Wednesday, December 30, 2009
जैकेट क्यों उतारती है?
जोधपुर ने पूरे देश को नया संदेश दिया है वह बधाई का पात्र है। जिस राष्टÑीय संगठन के नेतृत्व में देश ने आजादी की लड़ाई लड़ी, उस संगठन के 125 वें स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में एक नृत्यांगना ने नृत्य करते-करते अपनी जैकेट उतारी ही थी कि वयोवृद्ध और अनुभवी नेताओं ने उस गीत और नृत्य को बंद करवा दिया और नृत्यांगना को मंच से नीचे उतार दिया। ऐसा देश में पहली बार हुआ है और सचमुच उल्लेखनीय हुआ है। ये भारत की संस्कृति नहीं है कि सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे भौण्डे नृत्य हो, किसी समय समाज का हिस्सा रहे नौटंकी घरों, कोठों और खेल-तमाशों में ऐसी बातें होती रही होंगी किन्तु आजाद भारत में सामाजिक सरोकारों वाले ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में नृत्यांगनाओं का क्या काम? विदेशों में कुछ ऐसे टीवी चैनल हैं जिनमें कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली एंकर अथवा समाचार वाचिका कार्यक्रम अथवा समाचार वाचन के दौरान अपने शरीर के सारे कपड़े उतार फैंकती है। ऐसा वह अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए करती है। भारत में भी आज टीआरपी बढ़ाने के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है। सार्वजनिक कार्यक्रमों में क्रिकेट के खिलाड़ियों को बुलाने, फिल्मी अभिनेताओं को बुलाकर उनसे सिनेमाई संवाद बुलवाने तथा भौण्डे नृत्य आयोजित करवाने के पीछे आयोजकों में अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ाने अर्थात अधिक भीड़ खींचने की भावना निहित रहती है। लगे हाथों नृत्यांगना भी अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए नृत्य के दौरान जैकेट अतार देने जैसी हरकतें करती है। आजादी के बाद बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से इस तरह की अपसंस्कृति का चलन आरंभ हुआ जो बढ़ता हुआ पूरे देश में कैंसर की तरह फैल गया। दक्षिण भारत आज इस मामले में सबसे आगे बढ़ गया है। जोधपुर ने इस कैंसर को उखाड़ फैंकने का रास्ता दिखाया है। आशा की जानी चाहिए कि देश के दूसरे नगर भी जोधपुर का अनुसरण करेंगे। कार्यक्रम आयोजक तो अपनी ओर अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढाने के लिए रामलीला जैसे धार्मिक आयोजन में क्रिकेट खिलाड़ी हरभजनसिंह को रावण का मुखौटा पहना कर सीता मैया का अभिनय कर रही नटी के साथ भौंडा और अश्लील नृत्य करवा चुके हैं। हरभजनसिंह को तो केवल पैसे से मतलब है, पूरा देश और उसकी भावनाएं जाएं भाड़ में।
मेरा अभिमत है कि और चाहे जिस किसी की पैसे की भूख मिट जाए क्रिकेट के खिलाड़ियां की पैसे की भूख कभी नहीं मिटती। देखा जाए तो नृत्य के दौरान जैकेट उतारने के लिए केवल नृत्यांगना दोषी नहीं है। हमें अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि आखिर नृत्यांगना नृत्य के दौरान जैकेट क्यों उतारती है? उसके लिए जिम्मेदार कौन है? नृत्यांगना अथवा हम? मैं समझता हूं कि नृत्यांगना तो नाच-गाकर अपना पेट भरती है। उसका क्या दोष, वह तो वही करेगी जिससे दर्शक प्रसन्न हो, उसे अधिक पैसे मिले और उसका रोजगार चलता रहे। दोष तो सभ्य और सुसंस्कृत माने कहलाने वाल हम लोगों का है जो उस नृत्यांगना को ऐसा भौण्डा प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, उसे ऐसा रोजगार अपनाने के लिए अधिक पैसे देते हैं। हमें जोधपुर की जनता को बधाई देनी चाहिए जो टीआरपी और भौण्डे मनोरंजन के मोहजाल से बचकर जैकेट उतारने वाली लड़की को मंच से नीचे उतार देती है।
मेरा अभिमत है कि और चाहे जिस किसी की पैसे की भूख मिट जाए क्रिकेट के खिलाड़ियां की पैसे की भूख कभी नहीं मिटती। देखा जाए तो नृत्य के दौरान जैकेट उतारने के लिए केवल नृत्यांगना दोषी नहीं है। हमें अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि आखिर नृत्यांगना नृत्य के दौरान जैकेट क्यों उतारती है? उसके लिए जिम्मेदार कौन है? नृत्यांगना अथवा हम? मैं समझता हूं कि नृत्यांगना तो नाच-गाकर अपना पेट भरती है। उसका क्या दोष, वह तो वही करेगी जिससे दर्शक प्रसन्न हो, उसे अधिक पैसे मिले और उसका रोजगार चलता रहे। दोष तो सभ्य और सुसंस्कृत माने कहलाने वाल हम लोगों का है जो उस नृत्यांगना को ऐसा भौण्डा प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, उसे ऐसा रोजगार अपनाने के लिए अधिक पैसे देते हैं। हमें जोधपुर की जनता को बधाई देनी चाहिए जो टीआरपी और भौण्डे मनोरंजन के मोहजाल से बचकर जैकेट उतारने वाली लड़की को मंच से नीचे उतार देती है।
Saturday, December 26, 2009
अब भी सच नहीं बोल रहे बराक !
कोपेनहेगन सम्मेलन से लौटकर अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ने इसके सफल होने की घोषणा की थी किंतु केवल 6 दिन बाद ही हुसैन ने अपना बयान बदलते हुए कहा है कि कोपेनहेगन के नतीजे पर पूरी दुनिया में चिंता होना वाजिब है। अचानक ऐसा क्या हुआ जो दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी की अन्तरात्मा हिलती हुई दिखाई दे रही है। वे कह रहे हैं कि वैज्ञानिक तथ्य हमसे इस बात की मांग करते हैं कि हम अगले 40 वर्षों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सजर्न में महत्वपूर्ण कटौती करें। वे ये भी कह रहे हैं कि सभी देश जलवायु परिवर्तन की समस्या से निबटने के इच्छुक हैं।
देखा जाये तो हुसैन अब भी सच नहीं बोल रहे हैं, वे अपने आप को सच बोलते हुए दिखाने का भ्रम फैला रहे हैं। वस्तुत: कोपेनहेगन की विफलता की कहानी आज से नहीं, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से आरंभ हो जाती है। आज तो केवल उसके परिणाम दिखाई दे रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामों ने दुनिया पर दादागिरी करने का लाइसेंस यूरोप से छीनकर अमरीका के हाथों में दे दिया था। तब से ही अमरीका अपने पंूजीवादी उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिये पूरी दुनिया का शोषण करने के लिये निकल पÞडा था। तब केवल सोवियत संघ ही एक मात्र ऐसा देश था जिसने अमरीका को चुनौती देते हुए उसका मार्ग रोका था। इसी कारण विश्व शक्तियों के मध्य शीतयुद्ध आरंभ हुआ और अमरीका तथा रूस में भारी मात्रा में खतरनाक हथियार बनाने की होड आरंभ हुई। अंतत: भारत, चीन तथा फ्रांस जैसे देशों को भी इस होड में शामिल होना पड़ा इतना ही नहीं, इन हथियारों को बनाने के लिये पूरी दुनिया को अधिक से अधिक पूंजी की आवश्यकता अनुभव हुई जिससे पूरी दुनिया को औद्योगिकीकरण, मुक्त व्यापार और उदारीकरण की तरफ जाना पड़ा। विश्वव्यापी औद्योगिकीकरण के चलते भारत और चीन जैसे देशों में सदियों से चल रहे ग्रामीण और कुटीर उद्योग बंद हो गये। लोगों को अपने गांव छोड़कर कारखानों में काम करने के लिये शहरों की ओर भागना पड़ा जिससे शहरीकरण की प्रक्रिया तेजी से बढ़ी। शहरीकरण से बाजारीकरण को तेजी से बढ़ावा मिला। बाजार की मांग को पूरा करने के लिये और अधिक संख्या में कारखाने लगे, बिजली की मांग बढ़ी, वातानुकूलित जीवन शैली का विकास हुआ और पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया।
1945 से लेकर 2008 तक तो अमरीका ने इन स्थितियों का लाभ उठाया किंतु 2009 में पंूजीवाद का जनाजा निकलने लगा, ठीक वैसे ही, जैसे कि कुछ दशक पहले साम्यवाद का जनाजा उठा था। देखते ही देखते अमरीका और यूरोप महामंदी की सुनामी से घिर गये। सैंकड़ों अमरीकी और यूरोपीय बैंक बर्बाद हो गये। अब अमरीका चाहता है कि भारत और चीन जैसे बड़े देश औद्योगिक उत्पादन न बढ़ायें ताकि अमरीकी और यूरोपीय कारखानों में बने हुए माल को इन देशों में बेचा जा सके। यही कारण है कि कोपेनहेगन सम्मेलन से ठीक पहले अमरीकी राष्ट्रपति हुसैन ने भारत के प्रधानमंत्री को चीन आने का न्यौता दिया और स्वयं चीन की राजधानी बीजिंग में जाकर हाजिरी भर आये। भारत और चीन ने हुसैन की मुसीबत को समझते हुए, कोपेनहेगन में अमरीका की नाक कटने से बचाने का प्रयास किया। यही कारण था कि कोपेनहेगन में हुसैन केवल भारत और चीन के साथ ही एक धुंधली सी अबाध्यकारी संधि करने में सफल हुए जिसका वास्तव में कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि अब ओबामा फिर से कोपेनहेगन का पिटारा खोलकर बैठ गये हैं। इसी को कहते हैं- भई गति सांप छछूंदर केरी। हुसैन न तो पूंजीवाद के संÞडांध मारते शव की अंत्येष्टि कर सकते हैं और न ऐसा किये बिना दूसरी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लग सकती है। यही कारण है कि वे सच न बोलकर सच बोलने का दिखावा कर रहे हैं। वे जो कुछ भी कह रहे हैं, उसका केवल यही अर्थ है कि भारत और चीन अपने कारखाने बंद करके अमरीकी कारखानों में बना हुआ माल खरीदने की संधि कर ले।
देखा जाये तो हुसैन अब भी सच नहीं बोल रहे हैं, वे अपने आप को सच बोलते हुए दिखाने का भ्रम फैला रहे हैं। वस्तुत: कोपेनहेगन की विफलता की कहानी आज से नहीं, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से आरंभ हो जाती है। आज तो केवल उसके परिणाम दिखाई दे रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामों ने दुनिया पर दादागिरी करने का लाइसेंस यूरोप से छीनकर अमरीका के हाथों में दे दिया था। तब से ही अमरीका अपने पंूजीवादी उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिये पूरी दुनिया का शोषण करने के लिये निकल पÞडा था। तब केवल सोवियत संघ ही एक मात्र ऐसा देश था जिसने अमरीका को चुनौती देते हुए उसका मार्ग रोका था। इसी कारण विश्व शक्तियों के मध्य शीतयुद्ध आरंभ हुआ और अमरीका तथा रूस में भारी मात्रा में खतरनाक हथियार बनाने की होड आरंभ हुई। अंतत: भारत, चीन तथा फ्रांस जैसे देशों को भी इस होड में शामिल होना पड़ा इतना ही नहीं, इन हथियारों को बनाने के लिये पूरी दुनिया को अधिक से अधिक पूंजी की आवश्यकता अनुभव हुई जिससे पूरी दुनिया को औद्योगिकीकरण, मुक्त व्यापार और उदारीकरण की तरफ जाना पड़ा। विश्वव्यापी औद्योगिकीकरण के चलते भारत और चीन जैसे देशों में सदियों से चल रहे ग्रामीण और कुटीर उद्योग बंद हो गये। लोगों को अपने गांव छोड़कर कारखानों में काम करने के लिये शहरों की ओर भागना पड़ा जिससे शहरीकरण की प्रक्रिया तेजी से बढ़ी। शहरीकरण से बाजारीकरण को तेजी से बढ़ावा मिला। बाजार की मांग को पूरा करने के लिये और अधिक संख्या में कारखाने लगे, बिजली की मांग बढ़ी, वातानुकूलित जीवन शैली का विकास हुआ और पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया।
1945 से लेकर 2008 तक तो अमरीका ने इन स्थितियों का लाभ उठाया किंतु 2009 में पंूजीवाद का जनाजा निकलने लगा, ठीक वैसे ही, जैसे कि कुछ दशक पहले साम्यवाद का जनाजा उठा था। देखते ही देखते अमरीका और यूरोप महामंदी की सुनामी से घिर गये। सैंकड़ों अमरीकी और यूरोपीय बैंक बर्बाद हो गये। अब अमरीका चाहता है कि भारत और चीन जैसे बड़े देश औद्योगिक उत्पादन न बढ़ायें ताकि अमरीकी और यूरोपीय कारखानों में बने हुए माल को इन देशों में बेचा जा सके। यही कारण है कि कोपेनहेगन सम्मेलन से ठीक पहले अमरीकी राष्ट्रपति हुसैन ने भारत के प्रधानमंत्री को चीन आने का न्यौता दिया और स्वयं चीन की राजधानी बीजिंग में जाकर हाजिरी भर आये। भारत और चीन ने हुसैन की मुसीबत को समझते हुए, कोपेनहेगन में अमरीका की नाक कटने से बचाने का प्रयास किया। यही कारण था कि कोपेनहेगन में हुसैन केवल भारत और चीन के साथ ही एक धुंधली सी अबाध्यकारी संधि करने में सफल हुए जिसका वास्तव में कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि अब ओबामा फिर से कोपेनहेगन का पिटारा खोलकर बैठ गये हैं। इसी को कहते हैं- भई गति सांप छछूंदर केरी। हुसैन न तो पूंजीवाद के संÞडांध मारते शव की अंत्येष्टि कर सकते हैं और न ऐसा किये बिना दूसरी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लग सकती है। यही कारण है कि वे सच न बोलकर सच बोलने का दिखावा कर रहे हैं। वे जो कुछ भी कह रहे हैं, उसका केवल यही अर्थ है कि भारत और चीन अपने कारखाने बंद करके अमरीकी कारखानों में बना हुआ माल खरीदने की संधि कर ले।
Friday, December 18, 2009
कोपेनहेगन के अमृत और विष का बंटवारा किस आधार पर हो!
कोपेनहेगन पृथ्वी सम्मेलन रूपी समुद्र-मंथन से निकले अमृत और विष का बंटवारा किस आधार पर हो! 7 से 18 दिसम्बर तक इसी बंटवारे का कोई सर्वमान्य फार्मूला निकालने की माथापच्ची चल रही है। विकसित कहे जाने वाले सम्पन्न देश यह चिंता तो जताते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में कमी होनी चाहिये किंतु वे इस कमी का बीड़ा स्वयं नहीं उठाना चाहते। वे चाहते हैं कि कार्बन उत्सर्जन से होने वाले विकास की वारुणि उन्हें सदैव निर्बाध रूप से प्राप्त होती रहे और कार्बन उत्सर्जन का विषपान विकासशील देशों के माथे मढ़ दिया जाये। विकसित देश चाहते हैं कि विकसित, विकासशील एवं अविकसित देशों में 20 से 25 प्रतिशत कार्बन ऊत्सर्जन कटौती की जाये। देखने में तो यह फार्मूला न्याय संगत लगता है कि सब देशों में बराबर कार्बन कटौती हो किंतु इस फार्मूले में छिपी कड़वी सच्चाई कुछ और है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि बैल, ऊँ ट, घोडेÞ और गधे आदि पशुओं की पीठ पर समान भार लाद दिया जाये और यह दावा किया जाये कि हमने सबके साथ बराबरी का व्यवहार किया है। आज भारत में प्रति-व्यक्ति, प्रति-वर्ष ऊर्जा देने के लिये 510 किलोग्राम आॅयल के बराबर र्इंधन जलाया जाता है जबकि चीन में 1500 किलो, अमरीका में 7778 किलो और कनाडा में 8262 किलो आॅयल के बराबर र्इंधन जलाया जाता है। यदि इस ऊर्जा में से चौथाई हिस्से की कटौती कर दें तो भारत में प्रतिव्यक्ति, प्रतिवर्ष 382 किलो तेल जलाने जितनी ऊर्जा मिलेगी। जैसे-जैसे आबादी बढ़ती जायेगी, प्रति व्यक्ति ऊर्जा की उपलब्धता कम होती जायेगी। जबकि चीन को भारत से तीन गुनी, अमरीका को पन्द्रह गुनी और कनाडा को सोलह गुनी ऊर्जा मिलती रहेगी। कार्बन उत्सर्जन में पच्चीस प्रतिशत कटौती के फार्मूले को लागू करने के दस सालों बाद जब हम दुनिया का आर्थिक मानचित्र देखेंगे तब भारत की आबादी सवा गुनी हो चुकी होगी किंतु ऊर्जा की कमी के कारण देश में अनाज, पेयजल, दवायें, कपड़े और आवास की भयानक समस्या उत्पन्न हो चुकी होगी। भारत अत्यंत पिछड़ा, निर्धन और अशक्त देश दिखाई देगा जबकि चीन भारत से तीन गुनी ऊर्जा की खपत करके भारत में आने वाली सैंकड़ों नदियों को बांध बनाकर रोक लेगा। वह हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करके बड़े भू-भाग दाब लेगा और हमारी सामरिक क्षमताओं के मुकाबले में वह अत्यधिक ताकतवर हो जायेगा। अमरीका और कनाडा हमसे पंद्रह- सोलह गुनी ऊर्जा का उपयोग करके आज से भी अधिक विकसित, शक्तिशाली और सम्पन्न देशों का रूप ले चुके होंगे। भारत चाहता है कि सन् 2012 तक समस्त घरों में बिजली पहुंचे। यदि कोपेनहेगन संधि के बाद भारत पर भी कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती लागू की गई तो सन् 2012 तो क्या, आने वाली कई सदियों तक भारत के करोड़ों लोग बिजली का प्रकाश नहीं देख सकेंगे। इसलिये कोपेनहेगन में कार्बन कटौती का फार्मूला तय करने का आधार केवल यह होना चाहिये कि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को प्रति वर्ष उपभोग के लिये कितनी ऊर्जा उपलब्ध रहे। इसके अतिरिक्त कोई भी फार्मूला दुनिया के देशों के साथ न्याय नहीं कर सकेगा।
Monday, December 14, 2009
क्या कार्बन उत्सर्जन ने श्रीकृष्ण की द्वारिका समुद्र में डुबो दी?
भारत के कई पुराणों में वर्णन मिलता है कि वैवस्वत मनु के समय में बर्फ पिघलने या मौसम के भीषण परिवर्तन के कारण धरती पर चारों ओर पानी ही पानी हो गया। इसे भारत का दूसरा महा जल प्लावन कहा जा सकता है। नि:संदेह उस समय के हिम ग्लैशियर जनसंख्या के बढ़ने, जंगलों के कटने, कार्बन डाई आॅक्साइड या क्लोरो फ्लोरो कार्बन जैसी गैसों के बढ़ने से नहीं पिघले थे। न ही उस समय ग्रीन हाउस इफैक्ट जैसी किसी चीज ने धरती पर जन्म लिया था। काठक संहिता, तैत्तारीय संहिता, अतैत्तारीय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि एक बार सारी पृथ्वी पर सर्वंतक अग्नि से भयंकर दाह हुआ।
तदनन्तर एक वर्ष की अतिवृष्टि से महान् जन प्लावन आया। सारी पृथ्वी जल निमग्न हो गई। वृष्टि की समाप्ति पर जल के शनै:शनै: नीचे होने से कमलाकार पृथ्वी प्रकट होने लगी। इस समय उन जलों में श्री ब्रह्माजी ने योगज शरीर धारण किया। सृष्टि वृद्धि को प्राप्त हुई। तब बहुत काल के पश्चात् समुद्रों के जलों के ऊँचा हो जाने से एक दूसरा जल प्लावन वैवस्वत मनु और यम के समय आया। इन दो महा जलप्लावनों के अतिरिक्त लघु जलप्लावन भी संसार में आते ही रहे हैं। ईसा से 1400 साल पहले आये एक ऐसे ही जल प्लावन में कृष्णजी की द्वारिका समुद्र में समा गई। विभीषणजी की लंका भी एक ऐसे ही जल प्लावन के कारण समुद्र में डूब गई थी। तमिल साहित्य में वर्णित दो जल प्लावनों में से एक जलप्लावन में दक्षिण में स्थित कपाटपुरम् तथा दूसरे जल प्लावन में पुरानी मदुरा जल में डूब गई थी। कश्मीर के नीलमत पुराण में कश्मीर में आये प्रलय का विशद वर्णन है । स्पष्ट है कि इन सारे जलप्लावनों का कारण वायुमण्डल के तापमान में अत्यधिक वृद्धि होना रहा होगा किंतु तापमान में वृद्धि किसी मानवीय कारण से नहीं आई होगी। न जनसंख्या बढ़ने से, न जंगलों की कटाई से और न सीओटू या सीएफसी में वृद्धि से। ताण्ड्य महाब्राह्मण में सरस्वती के लुप्त होने का उल्लेख है जबकि जैमिनी ब्राह्मण में उसके लुप्त होकर पुन: प्रकट होने का उल्लेख है। ऐतरेय ब्राह्मण सरस्वती की स्थिति मरुप्रदेश से कुछ दूरी पर बताता है। एक पुराण में सरस्वती की स्थिति रेत में पÞडी उस नौका के समान बताई गई है जिसके तल में छेद हैं। माना जाता है कि सरस्वती धरती में घुस गई। कालीदास ने भी सरस्वती को अंत:सलिला कहकर सम्बोधित किया है। भूकम्प भी समुद्री एवं भूगर्भीय जल स्तरों को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। लातूर के भूकम्प के दौरान महाराष्ट्र में कई स्थानों पर जल की धाराएं फूट पÞडी थीं। कुछ वर्ष पहले आया सुनामी भी समुद्री क्षेत्र में आया एक भूकम्प ही था। इसी प्रकार बाड़मेर क्षेत्र में विगत दो माह पूर्व आये भूकम्प के बाद वैज्ञानिकों ने चिंता जताई थी कि इससे इस क्षेत्र का तेल बहकर पाकिस्तान की ओर ेसरक सकता है। ये सारे उदाहरण गिनाने का उद्देश्य यह है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या केवल मानव जनित नहीं हैं, इसमें नैसर्गिक बदलावों की भारी भूमिका है। कहीं बड़े, धनी और ताकतवर देश जलवायु परिवर्तन को मनुष्य जनित संकट बताकर छोटे, विकासशील, अविकसित अथवा निर्धन देशों का गला घोंटने में सफल नहीं जायें।
तदनन्तर एक वर्ष की अतिवृष्टि से महान् जन प्लावन आया। सारी पृथ्वी जल निमग्न हो गई। वृष्टि की समाप्ति पर जल के शनै:शनै: नीचे होने से कमलाकार पृथ्वी प्रकट होने लगी। इस समय उन जलों में श्री ब्रह्माजी ने योगज शरीर धारण किया। सृष्टि वृद्धि को प्राप्त हुई। तब बहुत काल के पश्चात् समुद्रों के जलों के ऊँचा हो जाने से एक दूसरा जल प्लावन वैवस्वत मनु और यम के समय आया। इन दो महा जलप्लावनों के अतिरिक्त लघु जलप्लावन भी संसार में आते ही रहे हैं। ईसा से 1400 साल पहले आये एक ऐसे ही जल प्लावन में कृष्णजी की द्वारिका समुद्र में समा गई। विभीषणजी की लंका भी एक ऐसे ही जल प्लावन के कारण समुद्र में डूब गई थी। तमिल साहित्य में वर्णित दो जल प्लावनों में से एक जलप्लावन में दक्षिण में स्थित कपाटपुरम् तथा दूसरे जल प्लावन में पुरानी मदुरा जल में डूब गई थी। कश्मीर के नीलमत पुराण में कश्मीर में आये प्रलय का विशद वर्णन है । स्पष्ट है कि इन सारे जलप्लावनों का कारण वायुमण्डल के तापमान में अत्यधिक वृद्धि होना रहा होगा किंतु तापमान में वृद्धि किसी मानवीय कारण से नहीं आई होगी। न जनसंख्या बढ़ने से, न जंगलों की कटाई से और न सीओटू या सीएफसी में वृद्धि से। ताण्ड्य महाब्राह्मण में सरस्वती के लुप्त होने का उल्लेख है जबकि जैमिनी ब्राह्मण में उसके लुप्त होकर पुन: प्रकट होने का उल्लेख है। ऐतरेय ब्राह्मण सरस्वती की स्थिति मरुप्रदेश से कुछ दूरी पर बताता है। एक पुराण में सरस्वती की स्थिति रेत में पÞडी उस नौका के समान बताई गई है जिसके तल में छेद हैं। माना जाता है कि सरस्वती धरती में घुस गई। कालीदास ने भी सरस्वती को अंत:सलिला कहकर सम्बोधित किया है। भूकम्प भी समुद्री एवं भूगर्भीय जल स्तरों को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। लातूर के भूकम्प के दौरान महाराष्ट्र में कई स्थानों पर जल की धाराएं फूट पÞडी थीं। कुछ वर्ष पहले आया सुनामी भी समुद्री क्षेत्र में आया एक भूकम्प ही था। इसी प्रकार बाड़मेर क्षेत्र में विगत दो माह पूर्व आये भूकम्प के बाद वैज्ञानिकों ने चिंता जताई थी कि इससे इस क्षेत्र का तेल बहकर पाकिस्तान की ओर ेसरक सकता है। ये सारे उदाहरण गिनाने का उद्देश्य यह है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या केवल मानव जनित नहीं हैं, इसमें नैसर्गिक बदलावों की भारी भूमिका है। कहीं बड़े, धनी और ताकतवर देश जलवायु परिवर्तन को मनुष्य जनित संकट बताकर छोटे, विकासशील, अविकसित अथवा निर्धन देशों का गला घोंटने में सफल नहीं जायें।
Wednesday, December 9, 2009
यमुना ने सरस्वती को निगला तब कार्बन उत्सर्जन कहाँ था !
ज्ञात मानव इतिहास में धरती पर पहला बड़ा जल प्लावन ईसा से लगभग 3102 साल पहले आया। जब जल प्रलय समाप्त हो गया तब सरस्वती की दिशा उलट गई। अर्थात् इस नदी की मुख्य धारा अपने पहले के बहाव क्षेत्र में बहने के स्थान पर दिल्ली से कुछ ऊपर एक छोटी पहाड़ी नदी की तेज धारा में मिलकर दक्षिण-पूर्व की ओर बहने लगी और विशाल यमुना का जन्म हुआ। चूंकि उसने सरस्वती का पानी निगल लिया था इसलिये वह सरस्वती को मृत्यु देने वाली यमुना अर्थात् यम की बहिन कहलाई। गंगा और यमुना जहाँ प्रयाग में मिलती हैं, उस स्थल को देखकर अनुमान होता है कि इनमें से यमुना बड़ी नदी है किंतु आज वास्तविक स्थिति यह है कि गंगा, यमुना से बड़ी है।
पुराणों में वर्णित तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अगस्त्य और वसिष्ठ ऋषियों के समय तक अर्थात् 2350 ई. पूर्व तक सरस्वती की पुरानी धारा में कुछ जल बहता था जो विनाशन नामक स्थान तक आकर लुप्त होता था। सरस्वती की मुख्य धारा के यमुना में मिल जाने से सरस्वती के पुराने तटों पर बसी हुई मानव बस्तियां उजड़ गर्इं जिनमें कालीबंगा, हड़प्पा और मोहनजोदड़ों आदि के नाम लिये जा सकते हैं। सरस्वती के तट पर बने ऋषियों के आश्रम उजड गये।
इस घटना के लगभग एक सौ साल बाद सप्त-ऋषियों के काल में सरस्वती का पुराना स्वर्णकाल लौटा पर वह सरस्वती तट तक सीमित नहीं था, उसका प्रभाव सारे उत्तरी भारत में था। यह स्थिति पाँच सौ साल तक चली। इसमें उत्तरी भारत के लोगों को शुद्ध जल की आपूर्ति प्रचुर मात्रा में हुई। कालीबंगा जैसी पुरानी बस्तियों पर फिर से नई बस्तियां बस गर्इं। आज भी कालीबंगा की खुदाई में मानव बस्तियों के दो स्तर ठीक एक दूसरे के ऊपर मिलते हैं।
1800 ई. पूर्व के आस-पास एक बार फिर उत्तरी भारत में नदियों ने अपना रूप बदला। सरस्वती फिर सूखने लगी। इस कारण उसके तटों पर खड़े जंगल सूख गये। इस काल का हमारे पुराणों में विशद वर्णन उपलब्ध है जिसमें कहा गया है कि सरस्वती के तट पर ऋषि भूखों मरने लगे तथा अधिकांश ऋषि सरस्वती का तट छोड़कर गंगा-यमुना के मध्य क्षेत्र में जा बसे। इस काल में पूरे उत्तरी भारत में भयानक अकाल पड़ा। इसी काल के एक उपनिषद में वर्णन आता है कि भूख से बिलबिलाते हुए एक ऋषि ने एक महावत से साबुत उड़द मांगकर खाये। वामन पुराण में लिखा है कि ब्रह्मावर्त (आज का हरियाणा और उत्तरी राजस्थान) में सरस्वती के किनारे बड़ी संख्या में ऋषियों के आश्रम स्थित थे। अत्यंत दीर्घजीवी मार्कण्डेय ऋषि सरस्वती के उद्गम के पास रहते थे। जब प्रलय आया तो मार्कण्डेय ऋषि अपने स्थान से उठकर चल दिये। सरस्वती नदी उनके पीछे-पीछे चली। इसी कारण सरस्वती की ऊपरी धारा का नाम मारकण्डा पड़ गया। इस रूपक से आशय लगाया जा सकता है कि जब सरस्वती की मुख्य धारा सूखने लगी तो मार्कण्डेय ऋषि ने अपने पूर्व स्थान को त्याग दिया तथा सरस्वती की जिस धारा के तट पर जाकर वे रहे, वह धारा ऋषि के नाम पर मारकण्डा के नाम से जानी गई। हिमालय पर्वत पर 3207 फुट की ऊँ चाई पर नाहन की चोटी है जिस पर स्थित मारकण्डा नदी का चौड़ा पाट बताता है कि किसी समय यह नदी एक विशाल नद के रूप में प्रवाहित होती थी तथा सरस्वती इसकी सहायक नदी थी। इस सरस्वती को प्राचीन सरस्वती की ही एक धारा समझना चाहिये। सरस्वती के इतने सारे मार्ग परिवर्तनों के समय कार्बन उत्सर्जन जैसी कोई चीज नहीं थी। फिर भी वह लुप्त हो गई।
पुराणों में वर्णित तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अगस्त्य और वसिष्ठ ऋषियों के समय तक अर्थात् 2350 ई. पूर्व तक सरस्वती की पुरानी धारा में कुछ जल बहता था जो विनाशन नामक स्थान तक आकर लुप्त होता था। सरस्वती की मुख्य धारा के यमुना में मिल जाने से सरस्वती के पुराने तटों पर बसी हुई मानव बस्तियां उजड़ गर्इं जिनमें कालीबंगा, हड़प्पा और मोहनजोदड़ों आदि के नाम लिये जा सकते हैं। सरस्वती के तट पर बने ऋषियों के आश्रम उजड गये।
इस घटना के लगभग एक सौ साल बाद सप्त-ऋषियों के काल में सरस्वती का पुराना स्वर्णकाल लौटा पर वह सरस्वती तट तक सीमित नहीं था, उसका प्रभाव सारे उत्तरी भारत में था। यह स्थिति पाँच सौ साल तक चली। इसमें उत्तरी भारत के लोगों को शुद्ध जल की आपूर्ति प्रचुर मात्रा में हुई। कालीबंगा जैसी पुरानी बस्तियों पर फिर से नई बस्तियां बस गर्इं। आज भी कालीबंगा की खुदाई में मानव बस्तियों के दो स्तर ठीक एक दूसरे के ऊपर मिलते हैं।
1800 ई. पूर्व के आस-पास एक बार फिर उत्तरी भारत में नदियों ने अपना रूप बदला। सरस्वती फिर सूखने लगी। इस कारण उसके तटों पर खड़े जंगल सूख गये। इस काल का हमारे पुराणों में विशद वर्णन उपलब्ध है जिसमें कहा गया है कि सरस्वती के तट पर ऋषि भूखों मरने लगे तथा अधिकांश ऋषि सरस्वती का तट छोड़कर गंगा-यमुना के मध्य क्षेत्र में जा बसे। इस काल में पूरे उत्तरी भारत में भयानक अकाल पड़ा। इसी काल के एक उपनिषद में वर्णन आता है कि भूख से बिलबिलाते हुए एक ऋषि ने एक महावत से साबुत उड़द मांगकर खाये। वामन पुराण में लिखा है कि ब्रह्मावर्त (आज का हरियाणा और उत्तरी राजस्थान) में सरस्वती के किनारे बड़ी संख्या में ऋषियों के आश्रम स्थित थे। अत्यंत दीर्घजीवी मार्कण्डेय ऋषि सरस्वती के उद्गम के पास रहते थे। जब प्रलय आया तो मार्कण्डेय ऋषि अपने स्थान से उठकर चल दिये। सरस्वती नदी उनके पीछे-पीछे चली। इसी कारण सरस्वती की ऊपरी धारा का नाम मारकण्डा पड़ गया। इस रूपक से आशय लगाया जा सकता है कि जब सरस्वती की मुख्य धारा सूखने लगी तो मार्कण्डेय ऋषि ने अपने पूर्व स्थान को त्याग दिया तथा सरस्वती की जिस धारा के तट पर जाकर वे रहे, वह धारा ऋषि के नाम पर मारकण्डा के नाम से जानी गई। हिमालय पर्वत पर 3207 फुट की ऊँ चाई पर नाहन की चोटी है जिस पर स्थित मारकण्डा नदी का चौड़ा पाट बताता है कि किसी समय यह नदी एक विशाल नद के रूप में प्रवाहित होती थी तथा सरस्वती इसकी सहायक नदी थी। इस सरस्वती को प्राचीन सरस्वती की ही एक धारा समझना चाहिये। सरस्वती के इतने सारे मार्ग परिवर्तनों के समय कार्बन उत्सर्जन जैसी कोई चीज नहीं थी। फिर भी वह लुप्त हो गई।
Tuesday, December 8, 2009
कोई हुसैन और अमरीकियों को भारतीय पुराण पढ़ाये !
आज ध्रुवों और ग्लेशियरों का जल पिघल कर समुद्र में आ रहा है, बराक हुसैन तथा उसके पिछलग्गू विकसित देशों द्वारा इसके दो बड़े कारण बताये जा रहे हैं। एक तो आदमी द्वारा जंगलों को काटना तथा दूसरा र्इंधन चालित मशीनों से कार्बन उत्सर्जन को खतरनाक स्तर पर पहुंचा देना। इन दोनों ही कारणों के लिये विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। क्या वास्तव में धरती पर आये जलवायु संकट का कारण यही है? संभवत: नहीं! पिछले छ: लाख सालों में एशिया, यूरोप और उत्तरी अमरीका के उत्तरी भागों की जलवायु बारी बारी से बहुत ठण्डी और गरम होती रही है जिसके कारण धरती पर कई बार हिमयुग, दुर्भिक्ष और जल प्लावन आये जिनकी कहानी भारतीय पुराणों में लिखी हुई है। इन जलवायु परिवर्तनों के लिये विकासशील देश अथवा आदमी कतई जिम्मेदार नहीं थे। प्लीस्टोसीन पीरियड जो कि आज से छ: लाख वर्ष पहले शुरु हुआ और आज से 10 हजार साल पहले तक चला, इसमें धरती पर कम से कम चार हिम युग आये। प्रत्येक दो कालों के बीच मंद या थोडा गर्म अंतर्हिम काल आया। इस प्रकार कुल तीन अंतर्हिम काल आये जिनमें आदमी ने बार-बार अपना स्थान बदला। जब अधिक सर्दी का दौर आता तो आदमी दक्षिणी प्रदेशों में चला जाता और जब अधिक गर्मी पड़ती तो वह उत्तरी प्रदेशों में आकर रहने लगता। हिम युग की सर्दी के कारण वनस्पति भी नष्ट हो जाती थी जिसके कारण पशु भी लगातार उन प्रदेशों के लिये पलायन करते रहते थे जहाँ गर्मी के कारण घास के मैदानों का विकास हो जाता था। आदमी धरती पर आज से लगभग 20 लाख साल पहले आया किंतु हमारी प्रजाति का आदमी अर्थात् होमोसेपियन का उदय हिमयुगों की आवाजाही के बीच आज से लगभग 40 हजार से लेकर 30 हजार साल पहले के किसी काल में हुआ। यह चौथे हिम युग का अंतिम दौर था। आज से दस हजार साल पहले चौथा हिमयुग समाप्त हो गया और गर्म युग की शुरुआत हुई। इस गर्म युग में ही आदमी ने तेजी से अपना मानसिक विकास किया और उसने कृषि, पशुपालन तथा समाज को व्यवस्थित किया। भारतीय भूभाग में जलवायु परिवर्तन का इतिहास वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में देखा जा सकता है। यदि बराक हुसैन ओबामा और उनके देश के वैज्ञानिक इन वेदों और पुराणों को पढें तो उन्हें ज्ञात हो सकेगा कि धरती पर जलवायु परिवर्तन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। वैदिक काल में सरस्वती नदी एक चौÞडे महानद के रूप में प्रवाहित होती थी। वह स्थान-स्थान पर सर अर्थात् झील बनाकर चलती थी। उन झीलों में से कुछ को कुरुक्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। इनमें से एक को महाभारत काल में ब्रह्म सरोवर कहा गया है जिसमें महाभारत के युद्ध के बाद धृतराष्ट्र ने मृतक पुत्रों एवं पौत्रों का तर्पण किया। आज उन्हीं सरोवरों को कुण्ड कहा जाता है। वैदिक काल में इसी सरस्वती की एक धारा राजस्थान में कालीबंगा तक बहकर आती थी और यह क्षेत्र सारस्वान कहलाता था। जब सरस्वती लुप्त हुई और कालीबंगा की सभ्यता नष्ट हुई उस समय मानव जनित कार्बन उत्सर्जन की मात्रा शून्य थी। यदि कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि ही धु्रवों और ग्लेशियरों के पिघलने का कारण है तो फिर सरस्वती के ग्लेशियर कैसे नष्ट हुए! कालीबंगा क्यों उजड गया! कोई बराक हुसैन ओबामा और उनकी वैज्ञानिक टीम से इन सवालों के जवाब पूछे ताकि कोपेनहेगन में वह अपना विश्वव्यापी खेल खेलकर विकासशील देशों में प्रगति के पहिये पर ब्रेक लगाने की अपनी योजना को अंजाम न दे सकें। अपने पाठकों की जानकारी के लिये हम भारतीय पुराणों के वे संदर्भ अगली दो कड़ियों में लिखेंगे जिनमें जलवायु परिवर्तन का इतिहास लिखा हुआ है।
विकासशील देशों में प्रगति का पहिया रोकना चाहते हैं धनी देश!
दुनिया भर के देशों ने आज से 20 साल पहले रियो दी जेनरो में तथा 10 साल पहले क्योटो में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किये थे जिनमें संसार के लगभग सभी देशों ने जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये सर्वमान्य संधियां की थीं। क्योटो संधि 2012 में समाप्त हो रही है। इसलिये आज से 18 दिसम्बर तक कोपेनहेगन में फिर से पृथ्वी सम्मेलन आयोजित हो रहा है जिसमें दुनिया के देशों द्वारा एक नई संधि की जायेगी जिसके तहत सभी देशों को आगामी दस सालों में कार्बन उत्सर्जन में एक निश्चित कमी लाने का संकल्प व्यक्त करना है। यह आयोजन ठीक वैसा ही प्रतीत होता है जैसा कि भारतीय पुराणों में मायावी असुरों एवं सरल-चित्ता सुरों द्वारा किये गये समुद्र मंथन का वर्णन मिलता है। कोपेनहेगन मंथन में अमरीका और यूरोप के विकसित देश मायावी असुरों की भूमिका में हैं तथा भारत एवं उसके जैसे विकासशील देश देवताओं की भूमिका में हैं। मायावी असुर अपनी ताकत पर कूद रहे हैं जबकि देवताओं को शरणागत वत्सल विष्णु और विषपायी शिव-शम्भू का भरोसा है।
मायावी असुरों और सरल-चित्ता सुरों के मध्य समुद्र मंथन का आयोजन अमृत प्राप्ति के लिये किया गया था किंतु दोनों ही पक्ष इस बात से अनजान थे कि अमृत के साथ-साथ इसमें से देवी लक्ष्मी, धनवन्तरि, चंद्रमा, कौस्तुभ, उच्चैश्रवा:, कामधेनु एवं ऐरावत जैसी सम्पदायें और विष एवं वारुणि जैसी विपदायें भी निकलेंगी और इन्हें कौन लेगा! जबकि कोपेनहेगन में में तो झगडा ही इस बात पर होना है कि र्इंधन चालित मशीनों से निकलने वाले कार्बन उत्सर्जन रूपी विष को कौन पियेगा! धनी देश चाहते हैं कि उनके द्वारा निकाले गये विष को विकासशील देश पी लें। जब इंधन से चलने वाली मशीनें काम करती हैं तो विकास का पहिया आगे बढता है तथा अपने पीछे कार्बन डॉई आक्साइड, कार्बन मोनो आॅक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन जैसे विषैले उत्सर्जन छोड जाता है। इन गैसों से धरती का वातावरण गरम होता है जिससे ग्लेशियरों और ध्रुवों की बर्फ पिघलती है तथा समुद्रों का जलस्तर बढता है। परिणामत: किनारों पर बसे देश पानी में डूब जाते हैं। पिछले दिनों मालदीव अपने मंत्रिमण्डल की बैठक समुद्र में करके तथा नेपाल अपने देश की बैठक एवरेस्ट के बेस कैम्प में करके संसार को इस बात की चेतावनी दे चुके हैं कि यदि धरती का तापक्रम इसी तरह बÞढता रहा तो आने वाला भविष्य कैसा होगा!
इतिहास गवाह है कि जब से मनुष्य ने र्इंधन चालित मशीनों का निर्माण किया है, तब से यूरोप और अमरीका ने सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन किया है। यही कारण है कि आज यूरोप और अमरीका जगमगाती बिजलियों, सरपट दौडती सडकों, लम्बे पुलों और ऊँची भव्य मीनारों से सजे हुए हैं। इसके विपरीत पिछडे हुए अर्थात् विकासशील देशों में टूटी फूटी सडकों, अंधकार में बिलखते शहरों और गरीबी में सिसकते गांवों की उपस्थिति केवल इसलिये है क्योंकि वे र्इंधन चालित मशीनों का उपयोग प्रभूत मात्रा में नहीं कर पाये। आज विकसित देश अपनी समृद्धि के चरम पर हैं। उन्हें लगता है कि यदि विकासशील देशों ने उनकी बराबरी की तो विकसित देशों पर कहर टूट पÞडेगा। इसलिये वे रियो दी जेनरो और क्योटो पृथ्वी सम्मेलनों में विकासशील देशों को यह संदेश दे चुके हैं कि वे ईधन चालित मशीनों के पहियों की गति धीमी करें नहीं तो दुनिया समुद्र में डूब जायेगी तथा अब कोपेनहेगन में भी वे यही दोहराना चाहते हैं जिसका अर्थ है पंजाब के खेतों में चल रहे ट्रैक्टर बंद हो जायें, राजस्थान की सीमेंट फैक्ट्रियां बंद हो जायें, महाराष्ट्र के कपडे और बिजली के कारखाने बंद हो जायें नहीं तो आगामी पचास सालों में धरती के कई बडे शहर समुद्र के पेट में समा जायेंगे।
मायावी असुरों और सरल-चित्ता सुरों के मध्य समुद्र मंथन का आयोजन अमृत प्राप्ति के लिये किया गया था किंतु दोनों ही पक्ष इस बात से अनजान थे कि अमृत के साथ-साथ इसमें से देवी लक्ष्मी, धनवन्तरि, चंद्रमा, कौस्तुभ, उच्चैश्रवा:, कामधेनु एवं ऐरावत जैसी सम्पदायें और विष एवं वारुणि जैसी विपदायें भी निकलेंगी और इन्हें कौन लेगा! जबकि कोपेनहेगन में में तो झगडा ही इस बात पर होना है कि र्इंधन चालित मशीनों से निकलने वाले कार्बन उत्सर्जन रूपी विष को कौन पियेगा! धनी देश चाहते हैं कि उनके द्वारा निकाले गये विष को विकासशील देश पी लें। जब इंधन से चलने वाली मशीनें काम करती हैं तो विकास का पहिया आगे बढता है तथा अपने पीछे कार्बन डॉई आक्साइड, कार्बन मोनो आॅक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन जैसे विषैले उत्सर्जन छोड जाता है। इन गैसों से धरती का वातावरण गरम होता है जिससे ग्लेशियरों और ध्रुवों की बर्फ पिघलती है तथा समुद्रों का जलस्तर बढता है। परिणामत: किनारों पर बसे देश पानी में डूब जाते हैं। पिछले दिनों मालदीव अपने मंत्रिमण्डल की बैठक समुद्र में करके तथा नेपाल अपने देश की बैठक एवरेस्ट के बेस कैम्प में करके संसार को इस बात की चेतावनी दे चुके हैं कि यदि धरती का तापक्रम इसी तरह बÞढता रहा तो आने वाला भविष्य कैसा होगा!
इतिहास गवाह है कि जब से मनुष्य ने र्इंधन चालित मशीनों का निर्माण किया है, तब से यूरोप और अमरीका ने सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन किया है। यही कारण है कि आज यूरोप और अमरीका जगमगाती बिजलियों, सरपट दौडती सडकों, लम्बे पुलों और ऊँची भव्य मीनारों से सजे हुए हैं। इसके विपरीत पिछडे हुए अर्थात् विकासशील देशों में टूटी फूटी सडकों, अंधकार में बिलखते शहरों और गरीबी में सिसकते गांवों की उपस्थिति केवल इसलिये है क्योंकि वे र्इंधन चालित मशीनों का उपयोग प्रभूत मात्रा में नहीं कर पाये। आज विकसित देश अपनी समृद्धि के चरम पर हैं। उन्हें लगता है कि यदि विकासशील देशों ने उनकी बराबरी की तो विकसित देशों पर कहर टूट पÞडेगा। इसलिये वे रियो दी जेनरो और क्योटो पृथ्वी सम्मेलनों में विकासशील देशों को यह संदेश दे चुके हैं कि वे ईधन चालित मशीनों के पहियों की गति धीमी करें नहीं तो दुनिया समुद्र में डूब जायेगी तथा अब कोपेनहेगन में भी वे यही दोहराना चाहते हैं जिसका अर्थ है पंजाब के खेतों में चल रहे ट्रैक्टर बंद हो जायें, राजस्थान की सीमेंट फैक्ट्रियां बंद हो जायें, महाराष्ट्र के कपडे और बिजली के कारखाने बंद हो जायें नहीं तो आगामी पचास सालों में धरती के कई बडे शहर समुद्र के पेट में समा जायेंगे।
Wednesday, December 2, 2009
वो किचन में पेशाब करेगी, जय हो
अभी मेरे उस आलेख की स्याही सूखी भी नहीं है जिसमें मैंने लिखा था कि पति-पत्नी में से कोई एक घर में रहे। इधर देश के एक बड़े शहर से यह खबर आई है कि खाना बनाने वाली एक नौकरानी पर रसद सामग्री की चोरी करने का संदेह होने पर एक गृह-स्वामिनी ने अपने रसोईघर में एक गुप्त कैमरा लगाया और आठ दिनों तक उसकी हरकतों की रिकॉर्डिंग की। जब इस कैमरे की रिकॉर्डिंग देखी गई तो सबकी आंखें शर्म और घृणा से भर गर्इं। यह नौकरानी खाना बनाने के दौरान न केवल चावल, घी, चीनी तथा बना हुआ खाना खाती रहती थी अपितु वह जिस कपड़े से अपनी बहती हुई नाक साफ करती थी और पसीना पौंछती थी, उसी कपड़े में रोटियां लपेट कर टिफन में रखती थी। जिस पानी में वह गंदे हाथ धोती थी, उसी पानी में सब्जियां बनाती थी। इस रिकॉर्डिंग के घृणास्पद और शर्मनाक अंश वे थे जिनमें नौकरानी खाना बनाते हुए, वहीं खड़ी होकर पेशाब भी करती थी। पता नहीं कब से उस घर के लोग उसी किचन में बना हुआ खाना खा रहे थे जिसे उनकी नौकरानी ने पेशाब करने के दौरान बनाया था। आजाद भारत, समृद्ध परिवार और आधुनिक संस्कृति का यह कैसा वीभत्स दृश्य है! हो भी क्यों नहीं, हमें तो स्लमडॉग मिलेनियर को देखकर जय हो! गाने से फुर्सत ही कहाँ है! क्रिकेट के मैच में भारतीय खिलाड़ियों को जीतते हुए देखकर धरती को हिला देने वाले पटाखे फोड़ने से ही भला कहाँ फुर्सत है। राखी सावंत का अधनंगा और बेशर्म नाच देखकर पुलकित होने वाले हम भारतीय प्रतिदिन कम से कम एक घण्टा इस बात पर खर्च करते हैं कि बिग बॉस में राजू श्रीवास्तव औरतों के कपड़े पहन कर क्या भौण्डी हरकतें कर रहा है! मेरा दावा है कि यदि गृह स्वामिनी ने अपने टीवी को देखना छोड़कर अपनी रसोई को देखा होता तो वह नौकरानी किचन में पेशाब कतई नहीं कर सकती थी। क्रिकेट, टी. वी. के कार्यक्रम और नित्य होने वाले विवाह समारोहों में एकत्रित होने वाले हजारों लोगों की बदहवास भीड़ में खोकर हम स्वयं को आधुनिक समाज का हिस्सा समझते हैं, वस्तुत: यह बर्बादी की तरफ धकेले जाते समाज का चेहरा है न कि आधुनिक समाज का। बर्बादी की तरफ धकेला जाता हुआ भारतीय समाज बाजारवाद की हवस का शिकार हुआ है। यह हवस कभी पूरी नहीं होने वाली। जो आज लखपति है उसे करोड़पति और करोड़पति को अरबपति बनने की हवस है। इसलिये धोनी का क्रिकेट चलेगा, राखी सावंत का स्वयंवर चलेगा और अमिताभ बच्चन का बिग बॉस चलेगा। इन्हें चलाने के लिये बाजार विज्ञापन देगा, जिन्हें देखकर आप और हम जरूरत और बिना जरूरत का सामान खरीदेंगे। इस सामान को खरीदने के लिये अनाप-शनाप पैसे चाहियेंगे। पैसों के लिये आदमी और औरत दोनों कमाने के लिये घर से निकलेंगे और पीछे से नौकरानी किचन में पेशाब करेगी। जय हो!
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