जोधपुर। लंदन से जारी हुई लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की सामाजिक व्यवस्था को विश्व में सबसे अच्छी बताया गया है। भारतीय समाज और परिवारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये कम खर्चीली जीवन शैली पर विकसित हुए हैं। घर, परिवार और बच्चों के साथ रहना, गली मुहल्ले में ही मिलजुल कर उत्सव मनाना, कीर्तन आदि गतिविधियों में समय बिताना, कम कमाना और कम आवश्यकतायें ख़डी करना, आदि तत्व भारतीय सामाजिक और पारिवारिक जीवन का आधार रहे हैं। इसके विपरीत पश्चिमी देशों की जीवन शैली होटलों में शराब पार्टियां करने, औरतों को बगल में लेकर नाचने, महंगी पोशाकें पहनने और अपने खर्चों को अत्यधिक बढ़ा लेने जैसे खर्चीले शौकों पर आधारित रही है।
आजकल टी. वी. चैनलों और फिल्मों के पर्दे पर एक अलग तरह का भारत दिखाया जा रहा है जो हवाई जहाजों में घूमता है, गर्मी के मौसम में भी महंगे ऊनी सूट और टाई पहनता है तथा चिपचिपाते पसीने को रोकने के लिये चौबीसों घण्टे एयरकण्डीश्नर में रहता है। घर की वृद्धाएं महंगी साड़ियाँ, क्रीम पाउडर और गहनों से लदी हुई बैठी रहती हैं। टीवी और सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाला यह चेहरा वास्तविक भारतीय समाज और परिवार का नहीं है। वह भारत की एक नकली तस्वीर है जो आज के बाजारवाद और उपभोक्तवाद की देन है।
आज भी वास्तविक भारत का बहुत बड़ा हिस्सा दिन भर धूप भरी सड़कों पर फल-सब्जी का ठेला लगाता है, सड़क पर बैठ कर पत्थर तोड़ता है, पेड़ के नीचे पाठशालायें लगाता है और किसी दीवार की ओट में खड़ा होकर पेशाब करता है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इन लोगों का योगदान, ए.सी. में छिपकर बैठे लोगों से किसी प्रकार कम नहीं है। इन्हीं लोगों की बदौलत कम खर्चीले समाज का निर्माण होता है। यदि इन सब लोगों को ए. सी. में बैठने की आवश्यकता पड़ने लगी तो धरती पर न तो एक यूनिट बिजली बचेगी और न बिजली बनाने के लिये कोयले का एक भी टुकड़ा। लेगटम प्रोस्पेरिटी इण्डेक्स में भारतीय समाज की इन विशेषताओं को प्रशंसा की दृष्टि से देखा गया है। भारतीय परिवार के दिन का आरंभ नीम की दातुन से होता था। आज करोड़ों लोग खड़िया घुले हुए चिपचिपे पदार्थ से मंजन करते हैं, इस स्वास्थ्य भंजक चिपचिपे पदार्थ को बेचकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हजारों करोड़ रुपये हर साल भारत से लूट कर ले जाती हैं।
पाश्चात्य संस्कृति की देन यह है कि हर बार पेशाब करने के बाद कम से कम पंद्रह लीटर फ्रैश वाटर गटर में बहा दिया जाता है तथा मल त्याग के बाद कागज से शरीर साफ किया जाता है। जो काम बिना पानी के हो सकता है, उसमें पानी की बर्बादी क्यों? और जो काम पानी से हो सकता है, उसके लिये फैक्ट्री में बना हुआ कागज क्यों? भारतीय समाज सुखी इसीलिये रहा है क्योंकि आज भी करोÞडों लोग पेशाब करने के बाद पंद्रह लीटर पानी गटर में नहीं बहाते और मल त्याग के बाद कागज का उपयोग नहीं करते। इस गंदे कागज के डिस्पोजल में भी काफी बड़ी पूंजी लगती है। जैसे-जैसे भारतीय समाज दातुन, पेशाब और मल त्याग की पश्चिमी नकल करने वालों की संख्या बढ़ेगी भारतीय समाज और परिवार को अधिक पूंजी की आवश्यकता होगी और उसकी शांति भंग होगी।
Saturday, November 14, 2009
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jabardast
ReplyDeletejago mohan pyare