डॉ. मोहनलाल गुप्ता
जोधपुर। कल हमने उल्लेख किया था कि सड़कों अथवा रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते हुए, रेलगाड़ियों में अपनी शर्ट से सफाई करते हुए, चाय की थड़ियों और रेस्टोरेंटों पर कप प्लेट धोते हुए, हलवाई की कढ़ाई मांजते हुए, कारखानों की भट्टियों में कोयला झौंकते हुए, लेथ मशीन पर लोहा घिसते हुए, वैल्डिंग करते हुए, कमठे पर पत्थर या रेत ढोते हुए, कचरे के ढेर से कागज और प्लास्टिक बीनते हुए बच्चों की प्रतिभा कैसे कुंद हो जाती है। ऐसे बच्चे धनवान तो खैर हो ही नहीं सकते। केवल स्लमडॉग मिलेनियर में ही ऐसे बच्चे डॉलर और पौण्ड पर छपे राजा की तस्वीर पहचानते हैं और क्विज कंटेस्ट जीत कर मिलेनियर भी बन सकते हैं किंतु वास्तविक जीवन में यह लगभग नामुमकिन है कि वे करोड़पति हो जायें। यह अलग बात हंै कि अपराध की दुनिया में प्रवेश करके ये वह सब कुछ हासिल कर लें जो भारतीय हिंदी सिनेमा में दिखाया जाता रहा है। फिर भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे बच्चों को सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी पूंजी की आवश्यकता नहीं होती किंतु ये बच्चे अपना काम छोड़कर स्कूल नहीं जा सकते। यदि स्कूल जायेंगे तो खायेंगे क्या? यदि स्कूल में एक समय का पौषाहार मिल भी गया तो भी इन बच्चों के ऊपर अपने परिवार के दूसरे सदस्यों का पेट भरने की जिम्मेदारी भी होती है।इनमें से बहुत से बच्चे तो सालों तक नहाते भी नहीं। बरसात में प्राकृतिक स्रान हो जाये तो बात अलग है। उनके शरीर में से दुर्गंध आती है। उनके तन पर कपड़े या तो होते ही नहीं, यदि होते भी हैं तो मैले-कुचैले और फटे हुए। ऐसे बच्चों को कौन विद्यार्थी अपनी कक्षा में बैठने देगा! पहली बात तो अध्यापक भी ऐसे बच्चों को स्कूल में शायद ही प्रवेश दें। कौन जाने उस मैले-कुचैले और गंदे बच्चे से कौन सा इंफैक्शन दूसरे बच्चे को हो जाये! इनमें से बहुत से बच्चों को उनकी जातियों के आधार पर आरक्षण की सुविधा उपलब्ध होती है किंतु आरक्षण शब्द से वे जीवन भर परिचित नहीं होते। क्या होता है यह! किस काम आता है! कहा मिलता है! कैसे मिलता है! संविधान में उनके लिए आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है किंतु ये बच्चे उससे कोसों दूर है। यही वह भारत है जिसे समस्त संवैधानिक अधिकारों, न्यायिक उपचारों, विकास योजनाओं और विशाल शैक्षिक तंत्र के उपलब्ध होते हुए भी शिक्षा के समान तो क्या, असमान अवसर भी उपलब्ध नहीं हैं। भारत सरकार के अनुसार भारत में 5 से 14 करोड़ की आयु के 39 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से 2 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं जबकि अन्य एजेंसियां भारत में बाल श्रमिकों की संख्या 5 करोड़ बताती हैं। भारत सरकार के आंकड़ें को ही स्वीकार करें तो भारत में बाल श्रमिकों की कुल जनसंख्या आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर है और भारत की कुल जनसंख्या का पचासवां हिस्सा है। ये दो करोड़ बच्चे कभी स्कूल का मुंह नहीं देखते।
Monday, November 2, 2009
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मोहनलाल जी,
ReplyDeleteहिन्दी चिट्ठाकारी में आपका स्वागत है!
आपने समस्या का वर्णन बहुत सुन्दर ढ़ंग से किया है। किन्तु इसका कोई बढ़िया/व्यावहारिक हल भी सोचना जरूरी है। आशा है कभी आप इस पर भी अपने विचार रखेंगे।