Monday, January 4, 2010

डॉन की पार्टी क्यों नाची खाकी!

बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह समंदर का नियम है। बÞडा सांप छोटे सांप को जिंदा निगल जाता है, यह जंगल का रिवाज है। बÞडा गुण्डा छोटे गुण्डे को पाल लेता है, यह आदमियों की रवायत है। यह है उस सवाल का जवाब जो पूरे देश के सामने है कि पच्चीस दिसम्बर की रात को बम्बई में एक डॉन की पार्टी में खाकी वाले क्यों नाचे! पिछले कुछ सालों से देश में नाचने का जो सिलसिला बढा है, उसका चरम यह है कि दिल्ली की सडकों पर एक नौजवान खुलेआम अपने पडौसी का खून करके वहशी दरिंदों की तरह हाथ लहरा कर नाचता है और बम्बई में पुलिस के बडे अधिकारी डॉन के घर में आयोजित पार्टी में शराब पीकर ठुमकते हैं। उन सारे नाच गानों और ठुमकों का तो हिसाब ही क्या रखना जो बम्बई के होटलों और डांस बारों में, या सुनसान इलाकों में चोरी छिपे आयोजित हो रही रेवा पार्टियों में समाज के प्रभावशाली परिवारों के नौजवान और युवतियां ड्रग्स पीकर नाचते हैं।
देश में वहशी दरिंदों के नंगे नाच का सिलसिला लम्बा हो गया है। मेरठ के मेडिकल कॉलेज में कुछ लोग आदमियों के शवों की हड्डियों में से चर्बी निकालकर घी में मिलाते हैं। मेरठ और कानपुर में रेलवे स्टेशनों पर दीवार रंगने के जहरीले पेण्ट से चाय बनाकर बेची जाती है। गाजियाबाद में कुछ वहशी दरिंदे बच्चों को मारकर उनके शव खा जाते हैं और उनकी हड्डियां नालों में फैंक देते हैं। आर. एस. शर्मा जैसे बÞडे पुलिस अधिकारी महिला पत्रकार की हत्या करते हैं, अमर मणि त्रिपाठी जैसे लोग कवयित्रियों से दोस्ती करके उनकी हत्या कर देते हैं। एस. पी. सिंह राठौÞड जैसे उच्च पुलिस अधिकारी रुचिका की हत्या करके पुलिस विभाग का सर्वोच्च पद पा जाते हैं।
पैसे का लालच चारों ओर इतना बढ गया है कि एक सहायक अभियंता फर्जी मेडिकल बिलों से ढाई करोड रुपये का भुगतान उठाता है। आखिर क्यों चाहिये एक आदमी को इतना पैसा? क्यों आज एक आम आदमी अपने बच्चे के विवाह में हजारों आदमियों की दावत करता है ? क्यों आज हर आदमी को रहने के लिये करोडों का मकान चाहिये!
उस पर भी हमारा ढोंग यह कि हम बात-बात में महात्मा गांधी की दुहाई देते हैं। विश्व गुरु होने का दंभ भरते हैं। सत्य, अहिंसा और न्याय का ढिंढोरा पीटता हैं। गंगा, गाय और गीता की सौगंध खाते हैं। कई बार मुझे लगता है कि जिस अनुपात में हमारा लालच बÞढा है, उसी अनुपात में स्कूलों और सार्वजनिक मंचों पर ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोसितां हमारा’’ गाया जाने लगा है। क्या वास्तव में हम इस देश की बुलबुलें बन गये हैं जो दाना चुगकर फुर्र हो जाने में विश्वास करते हैं? जैसे ही हमारे बच्चे के कुछ नम्बर ज्यादा आये, हमने अपने बच्चे को पÞढने के लिये अमरीका, लंदन या आॅस्ट्रेलिया भेजने का पासपोर्ट बनवाया। जैसे ही हमारा मौका लगा, हमने बेइमानी आरंभ की, इसी को तो कहते हैं बुलबुलें। एक ओर तो हम बुलबुलें बनकर नाच और गा रहे हैं और दूसरी ओर हमारा प्यारा भारत.... खैर जाने दो वह तो बिग बॉस के घर में बंद है।
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