Thursday, August 13, 2009
चलो सबको पीटें हम !
आजकल एक गीत लिखने की इच्छा बार-बार होती है। कुछ इस तरह का गीत- चलो सबको पीटें हम! चलो सबको पीटें हम! जो करते हैं हमारी सेवा उन्हें घसीटें हम। तोड़ दें, फोड़ दें, हाथ पांव मरोड़ दें। अनुशासनहीनता की खाज में मार-पीट का कोढ़ दें। कैसा रहेगा यह गीत! मैं अपने आप से सवाल करता हूँ। यद्यपि यह सवाल मैंने ख़डा नहीं किया है। यह सवाल तो आज हर चौराहे पर, सरकारी कार्यालयों में, अस्पतालों में, गांवों में और शहरों में मुँह बाये ख़डा है। हम उन डॉक्टरों को पीट रहे हैं जो भरसक उपचार के बाद भी हमारे परिजन को मरने से नहीं रोक सके। हम उन सिपाहियों को पीट रहे हैं जो चौराहे पर ख़डे होकर यातायात व्यवस्था भंग करने वाले को रोकते हैं। हम उन पत्रकारों को पीट रहे हैं जो दिन रात विविध घटनाओं की सूचना हम तक पहुँचाते हैं। हम जलदाय विभाग के उन कर्मचारियों को पीट रहे हैं जो भूगर्भ का जलस्तर नीचे चले जाने के कारण हम तक पेयजल नहीं पहुँचा पा रहे हैं। हम उन बिजली कर्मचारियों को भी पीट रहे हैं जो देश में बरसात में कमी और भीषण गर्मी के कारण बढी हुई बिजली की मांग पूरी नहीं कर पा रहे हैं। कई बार तो मुझे लगता है कि इन दिनों देश के मंदिरों में इतने घण्टे और घड़ियाल नहीं बजाये जा रहे होंगे जितने कि सरकारी कर्मचारी बजाये जा रहे हैं। देश में प्रजातंत्र है, जनता उसकी माई बाप है। जनता जैसे चाहे वैसे अपने देश की व्यवस्था बना सकती है। अच्छी-बुरी परम्परायें डाल सकती है लेकिन जनता का माई बाप कौन है? देश का संविधान ही तो! लेकिन संविधान में तो कहीं नहीं लिखा कि कोई भी किसी को पीटे। आज जब पुलिस थानों में भी चोरों और अपराधियों की पिटाई करने का समय बीत गया तब यह कैसा समय आया कि कुछ अपराधी सारी व्यवस्था को अपने काबू में लेकर पुलिस कर्मियों, पत्रकारों, डॉक्टरों और सरकारी कर्मचारियों को पीट रहे हैं! एक पुरानी कहावत है कि खराब कारीगर अपने औजारों से लडता है। पुलिसकर्मी, पत्रकार, डॉक्टर और सरकारी कर्मचारी जनता के औजार हैं। इन औजारों को अच्छा और तेज बनाया जाना चाहिये या कि उन्हें मार पीट कर और भोथरा बनाया जाना चाहिये! देश में जैसा माहौल हो गया है, उसके लिये क्या केवल ये खराब औजार ही जिम्मेदार हैं! क्या वे लोग जिम्मेदार नहीं हैं जो लाख समझाने पर उस पेड़ को काटने से बाज नहीं आते जिस पर वे बसेरा किये हुए हैं! हम लोग मसालों में गधों की लीद मिलाने से बाज नहीं आते, तेज वाहन चलाकर दुर्घटनायें करने से बाज नहीं आते, नकली मावा बनाने से बाज नहीं आते! हममें से कुछ लोग औरतों को सरे आम नंगा करके पीटते हैं और बाकी के लोग तमाशा देखते हैं। कुछ लोग आतंकवादियों को अपने घरों में शरण देते हैं और बाकी के लोग उसका खामियाजा भुगतते हैं। कुछ लोग विदेशियों द्वारा किये गये नकली नोटों के षडयंत्र में शामिल हो जाते हैं और पूरे देश को महंगाई का अभिषाप झेलना पडता है। क्या इन सारी बुराइयों के लिये हम सब दोषी नहीं हैं! क्या हमने अपने लालच को पूरा करने के लिये आजादी का गलत फायदा नहीं उठाया! क्या हम उन लोगों के अपराधी नहीं हैं जिन्होंने हमें आजाद करवाने के लिये अपना पूरा जीवन जेल की सलाखों के पीछे गुजार दिया। कई बार मुझे सुभाषचंद्र बोस और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्द याद आते हैं जिनका मानना था कि अभी भारतीय समाज आजादी पाने के लायक नहीं हुआ। क्या वे वास्तव में सही थे? क्या वे अंग्रेज भी सही थे जो 1947 में यहाँ से जाते समय हम पर हँसते थे? कितना अच्छा हो कि वे सब गलत सिध्द हों और किसी को मारपीट वाला गीत लिखने की इच्छा नहीं हो।
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